भाजपा दो साल से शिंदे से गुप्त संपर्क बनाए हुए थी, मगर ठाकरे कुनबे को भनक तक न लगी
महाराष्ट्र की राजनीति में जो नाटकीय मोड़ आया है उसे तीन भागों में बांटा जा सकता है- नैतिक, राजनीतिक और वैचारिक। नैतिकता के सवाल का आसानी से जवाब दिया जा सकता है। महा विकास अघाड़ी (एमवीए) सरकार का जन्म ही अनुचित तरीके से हुआ था। शिवसेना ने भाजपा से मिलकर एनसीपी-कांग्रेस गठजोड़ के खिलाफ चुनाव लड़ा था। चुनाव के बाद वह विरोधियों के पाले में चली गई।
यह उतनी ही अनैतिक राजनीति थी, जितनी आज हुआ दलबदल है। जो भी हो, राजनीति में नैतिकता ढूंढना नादानी है। अब हम अपने दूसरे बिंदु राजनीति पर आते हैं। सत्ता हासिल करना एक बात है, मगर उसे कब्जे में रखना दूसरी बात। शिवसेना ने भाजपा से रिश्ता तोड़ने की जोरदार राजनीतिक चाल चलकर एक झटके में सत्ता हासिल कर ली। जबकि रिश्ता तोड़ने की कोई जरूरत नहीं थी। लेकिन शिवसेना को मुख्यमंत्री की कुर्सी चाहिए थी, भले ही उसके पास भाजपा के 105 विधायकों के मुकाबले लगभग आधे यानी 56 विधायक ही थे।
भाजपा ने मना कर दिया तो शिवसेना यूपीए के पुराने घटकों की ओर मुड़ गई। उन्हें उद्धव ठाकरे को कुर्सी सौंपने में कोई मुश्किल नहीं थी। वैसे भी वह कुर्सी उनकी थी नहीं। शिवसेना तो उन्हें अपनी हार को जीत में बदलने का अप्रत्याशित उपहार दे रही थी। अब अगर हम ढाई वर्ष पीछे जाकर मीडिया को खंगालें तो पाएंगे कि लगभग सभी प्रेक्षकों, पंडितों और विश्लेषकों ने यही भविष्यवाणी की थी कि यह सरकार अस्थिर और अल्पजीवी होगी। पहली बात तो सच नहीं हुई, सरकार स्थिर थी और एकजुट थी। वह अल्पजीवी जरूर साबित हुई।
तब मेरा विचार था कि कांग्रेस ही तीन टांग वाली इस कुर्सी को गिरा देगी, क्योंकि कभी-न-कभी वह शिवसेना की हिंदुत्ववादी राजनीति से खीझ जाएगी। लेकिन ज्यादातर लोगों का मानना था कि गिराने का काम एनसीपी करेगी क्योंकि वह अस्थिर प्रवृत्ति की और सत्ता की खातिर विचारधारा से समझौता करने वाली मानी जाती है। तब किसी ने यह संदेह नहीं जाहिर किया था कि यह सरकार शिवसेना के विभाजन के कारण गिर जाएगी।
इसकी क्या व्याख्या हो सकती है? क्योंकि हमारी राजनीति का सर्वमान्य तर्क यह है कि सत्ता सबसे मजबूत जोड़ वाला फेविकोल है। फिर ऐसा कैसे हुआ कि पार्टी, सरकार, पुलिस, खुफिया तंत्र पर पकड़ होने के बावजूद ठाकरे नहीं जान पाए कि पैरों के नीचे से जमीन खिसक रही है? एक जोरदार चाल आपको शक्तिशाली से भी सत्ता छीनने में सफल बना सकती है। लेकिन सत्ता को अपने कब्जे में रखने के लिए अटूट सतर्कता और चतुराई की जरूरत होती है।
इस मामले में ठाकरे कुनबा नाकाम साबित हुआ। एकनाथ शिंदे और उनके साथी कहते हैं कि वे वैचारिक शुद्धता की खातिर अलग हुए। इससे दो सवाल खड़े होते हैं। एक तो यह कि 2019 में संबंध-विच्छेद से पहले भाजपा और शिवसेना के बीच कितनी वैचारिक समरसता थी? दूसरे, शिवसेना की विचारधारा वास्तव में क्या है? यहां भी पहले सवाल का जवाब आसान है।
करीब एक दशक से यानी बाला साहेब के निधन और राष्ट्रीय मंच पर नरेंद्र मोदी के उभार के बाद से उद्धव यह चिंता जताते रहे हैं कि उनकी वैचारिक जमीन धीरे-धीरे भाजपा के कब्जे में जा रही है। वे खीझ जाहिर करते रहे हैं कि बाला साहेब ने शुद्ध महाराष्ट्रवाद से हिंदूवाद (क्षेत्रीयतावाद से हिंदुत्व) की ओर मुड़कर शायद गलती की। ‘मराठा माणूस’ के मंच पर मोदी समेत कोई भी उन्हें चुनौती नहीं दे सकता था। लेकिन हिंदुत्व के मंच पर आगे चलकर मोदी शिवसेना से ज्यादा प्रभावी नजर आएंगे। उद्धव सही थे।
यह हमें दूसरे पहलू पर लाता है कि आखिर शिवसेना की विचारधारा क्या है? हम कह सकते हैं कि यह उग्र क्षेत्रीयतावाद और हिंदुत्व का सुविधाजनक मेल है। उग्र क्षेत्रीयतावाद हर समय चलता रहता है, लेकिन हिंदुत्व मौके के मुताबिक सिर उठाता है, जैसे 1992-93 के दंगों में उसने उठाया था। लेकिन बाला साहेब तो ऐसे थे कि अभिनेता संजय दत्त का खुला समर्थन भी कर सकते थे, जिन्हें अपने घर में घातक हथियार रखने के लिए आतंकवाद विरोधी कानून के तहत गिरफ्तार किया गया था।
2001 में एक शनिवार रात मेरा फोन बजा था और फोन करने वाले ने कहा कि बाला साहेब बात करना चाहते हैं। मुझे तुरंत ध्यान आ गया कि उस सुबह छपे अपने स्तंभ में मैंने उन्हें ‘माफिओसो’ (माफिया गुट का) कहा था। मैंने खुद को लानत-मलामत झेलने के लिए तैयार कर लिया। लेकिन वे तो बड़े प्यार से कह रहे थे, ‘जितने लोग मुझे गालियां देते हैं उनमें तुम सबसे दिलचस्प तरीके से लिखते हो।’
मैंने उनसे पूछा, ‘अगर आपको मेरा लेखन इतना दिलचस्प लगता है, तो आप मेरे लिए क्या करने जा रहे हैं?’ उन्होंने मुझे मुंबई में डिनर के लिए बुलाया और कहा कि पत्नी को भी साथ लाना। वह डिनर मातोश्री में हुई। ज्यादा बातचीत सुरेश प्रभु (जो उस समय वाजपेयी सरकार में मंत्री थे) के बारे में हुई। उन्होंने प्रभु की शिकायत प्रमोद महाजन से की थी कि वे पार्टी के लिए पैसे नहीं ला रहे हैं।
महाजन ने उनसे कहा था कि अगर कोई मंत्री कहता है कि मंत्री के रूप में पैसा बनाना संभव नहीं है तो वह या तो झूठ बोल रहा है या अयोग्य है। उनकी बातचीत में कहीं कोई हिचक नहीं थी। वे सत्ता के नकदीकरण की कला जानते थे। सच कहें तो शिवसेना की असली विचारधारा यही थी- जबरन वसूली नहीं, तो सुरक्षा फीस (प्रोटेक्शन मनी) ही ठीक। मुख्यमंत्री पद संभालते ही उद्धव ने पार्टी को इससे अलग कर दिया। उस ‘विचारधारा’ से कट जाना भी शिंदे के सैनिकों को नागवार गुजर रहा होगा।
हिंदुत्व के बजाय सेकुलर खेमा
महाराष्ट्र में हुए बीते कई लोकसभा और विधानसभा चुनावों से यह साफ हो चुका है कि हिंदू वोट शिवसेना से भाजपा की ओर खिसक रहे हैं। महाराष्ट्र में भाजपा ने बहुत छोटे आकार में जूनियर पार्टनर के रूप में शुरुआत की थी और अब वह छलांग मारकर आगे निकल गई है। दूसरी तरफ उद्धव ठाकरे हिंदुत्व के बजाय उलटे सेकुलर खेमे की ओर झुकते चले गए थे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)