शिक्षा पर भी मजहबी जुनून हावी, बच्चों को प्रार्थना तक नहीं करने दे रहे

लगता है सारे बदन पर पित निकली है। जहां- जहां मजहब के बिच्छू- बूटी छू लें, वहां-वहां खारिश होती है। फोड़े फूटने लगते हैं। पीप निकलने लगती है। झारखंड से खबर आई है कि वहां एक स्कूल में गांव के लोगों ने प्रार्थना बंद करवा दी। प्रार्थना के समय बच्चों के हाथ जोड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया। दबाव ऐसा कि शिक्षकों ने इसे मान भी लिया और वही सब होने लगा जो गांव वाले चाहते थे, क्योंकि गांव की अधिकांश आबादी मुस्लिम है।

पहले प्रार्थना चल रही थी … दया कर दान भक्ति का, हमें परमात्मा देना… इसकी जगह गांव वालों के दबाव में गाया जाने लगा… तू ही राम है, तू ही रहीम है… आपत्ति तू ही राम है, तू ही रहीम है … पर नहीं है। होनी भी नहीं चाहिए। लेकिन पहली प्रार्थना पर आपत्ति क्यों? फिर हाथ जोड़ने में तो कोई बुराई होनी नहीं चाहिए! गांव वालों को इसमें क्या बुरा लगा, वे ही जानें, लेकिन समझ में यह नहीं आता कि हम मजहब को किस दकियानूसी मानसिकता से पढ़ रहे हैं? …और उसी मानसिकता से हम अपने बच्चों को भी क्यों पढ़ाना चाहते हैं?

झारखंड के एक सरकारी स्कूल के बच्चे 4 महीने से हाथ बांधकर प्रार्थना कर रहे थे। शिक्षकों का आरोप है कि स्कूल में मुस्लिम स्टूडेंट्स ज्यादा होने के कारण गांव वालों ने इसके लिए दबाव बनाया था।
झारखंड के एक सरकारी स्कूल के बच्चे 4 महीने से हाथ बांधकर प्रार्थना कर रहे थे। शिक्षकों का आरोप है कि स्कूल में मुस्लिम स्टूडेंट्स ज्यादा होने के कारण गांव वालों ने इसके लिए दबाव बनाया था।

हैरत की बात है कि एक स्कूल में चार महीने से यह सब चल रहा था और किसी को कुछ भी पता नहीं चला। या पता चला भी तो बात आई – गई कर दी गई। जब बात मीडिया में आई। हल्ला हुआ, तब अधिकारियों के कानों में जूं रेंगी। अफसरों ने और कुछ किया या नहीं, लेकिन इतना जरूर हुआ कि अब इस स्कूल में प्रार्थना के वक्त हाथ जोड़ने पर कोई मनाही नहीं है।

शिक्षकों कहना है कि गांव वालों की जिद के कारण हमें उनके बताए अनुसार बदलाव करना पड़ा था, लेकिन किसी शिक्षक ने ऊपर इसकी शिकायत करने की जरूरत भी नहीं समझी। ये कैसे शिक्षक हैं? और बच्चों के भविष्य को आखिर कैसे और कितना सुधार पाएंगे, सहजता से अंदाजा लगाया जा सकता है!

उदारता वहीं हो जहां उसकी जरूरत हो, बाकी जगह कानून को अपना काम बेखौफ करने की खुली छूट होनी ही चाहिए। कम से कम देश के प्रति सम्मान के मामलों में तो कड़ाई बरती ही जानी चाहिए।
उदारता वहीं हो जहां उसकी जरूरत हो, बाकी जगह कानून को अपना काम बेखौफ करने की खुली छूट होनी ही चाहिए। कम से कम देश के प्रति सम्मान के मामलों में तो कड़ाई बरती ही जानी चाहिए।

खैर, बच्चों और शिक्षकों की बात तो फिर भी मानी जा सकती है, हमारी संसद में भी कुछ खास सांसद राष्ट्रगान के वक्त खड़े होने की जरूरत नहीं समझते। जबकि हम आम हिंदुस्तानी तो अब सिनेमा हॉल में भी राष्ट्रगान के वक्त शिद्दत से खड़े रहते हैं।

निश्चित ही उन हजारों स्वतंत्रता सेनानी की आत्मा रो रही होगी जिन्होंने इस देश की आजादी और बेहतरी के लिए हंसते- हंसते अपनी जान गंवा दी। वो जब देखती होगी कि कई चुने हुए प्रतिनिधि भी हमारे राष्ट्रगान का अपमान करते रहते हैं और इसका उन्हें तनिक भी अफसोस नहीं होता।

होना यह चाहिए कि उदारता वहीं हो जहां उसकी जरूरत हो, बाकी जगह कानून को अपना काम बेखौफ करने की खुली छूट होनी ही चाहिए। कम से कम देश के प्रति सम्मान के मामलों में तो कड़ाई बरती ही जानी चाहिए।

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