घर तो एक ऐसी बगिया है जहां हर पौधा, हर फूल एक-दूसरे को अपना जीवन देने के लिए तैयार रहता है
‘खुद के लिए जीएं’ यह भावना अब धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है। मनुष्य अपने ‘मैं’ पर इतना टिक गया है कि परहित की कामना ही खत्म हो गई। जैसे-जैसे उम्र बढ़े, यह हिसाब भी रखिएगा कि जीवन में कितने पड़ाव ऐसे आए जब हम दूसरों के लिए जीए। समय के विराट प्रवाह में 80-100 साल की उमर का कोई मायना नहीं है। घड़ी की टिक-टिक के साथ उम्र बीतती जाएगी। इसलिए दूसरों के लिए जीने का भाव बनाए रखिएगा।
खास तौर पर अपने घर-परिवार में। बाहर की दुनिया में तो प्रतिस्पर्धा है, छल-कपट है और यह सब चलता भी रहेगा। ऐसे में किससे उम्मीद करेंगे। फिर बाहरी समस्याओं का निदान तो अजीब ही ढंग से किया जाता है। अब तो लगता है हर समस्या का हल अखाड़े में ही होगा।
पहले अखाड़े होते थे, जिसमें पहलवान लोग उतरते थे। अब तो पहलवान जहां खड़े हो जाते हैं, वहीं अखाड़े बन जाते हैं। याद रखिए, अपना घर अखाड़ा नहीं है। घर तो एक ऐसी बगिया है जहां हर पौधा, हर फूल एक-दूसरे को अपना जीवन देने के लिए तैयार रहता है।