राज्य सरकारें कर्ज की पूंजी को लोकलुभावन वादों पर खर्च कर रही हैं, यह विकट स्थिति

एक चर्चा में अर्थशास्त्री सरदार प्रो. चरण सिंह का सवाल था, संघीय व्यवस्था नहीं होती, तो कई राज्यों का क्या होता? उत्तर भी उन्होंने दिया, तब वे ग्रीस और श्रीलंका होते। श्रीलंका की दुर्दशा की ताजा खबर है, लोग बच्चों को सुबह देरी से जगा रहे हैं, ताकि बच्चे नाश्ता न मांगें। रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर डी. सुब्बाराव ने इस बारे में लिखकर चेताया है। उनके लेख के शीर्षक का हिंदी आशय है, ‘राज्य, मुफ्तखोरी और वित्तीय अपव्यय की कीमत’।

रिजर्व बैंक की हाल की वार्षिक रिपोर्ट में पंजाब, कर्नाटक, केरल, झारखंड, राजस्थान और पश्चिम बंगाल समेत 20 राज्यों का जिक्र है, जो कर्ज के बोझ तले दबे हैं। इनकी अर्थव्यवस्था संकट में है। इस बीमारी की जड़ कहां है? भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे अर्थशास्त्री कौशिक बसु (2009-12) राज की बात (‘एन इकोनोमिस्ट इन द रीयल वर्ल्ड’, द आर्ट ऑफ पॉलिसी मेकिंग इन इंडिया) बताते हैं, ‘पॉपुलिज्म यानी लोकलुभावनवाद में अल्पकालिक लोकप्रियता की भूख होती है।

राजनेताओं की नजर अगली सुबह अखबारों के हेडलाइन तक रहती है। बहुत हुआ तो अगले चुनाव तक!’ सुब्बाराव ने मुल्क के सामने मूल सवाल रखा है, मुफ्तखोरी की बढ़ती संस्कृति की सीमा क्या हो? वे बताते हैं, कर्ज ली गई पूंजी का निवेश सामाजिक संरचना क्षेत्रों में हो, ताकि विकास तेज हो। आमद बढ़े तो पुराने कर्ज लौटाए जा सकें। पर हो रहा है उलटा।

वे सावधान करते हैं कि अगर राज्य सरकारें कर्ज की पूंजी लोकलुभावन वायदों पर खर्च करना जारी रखती हैं, अतिरिक्त आमद का जुगाड़ नहीं करतीं, तो अंततः कर्ज विस्फोट होगा। फिर आंसू ही बचेंगे। उन्होंने उल्लेख किया है कि वैसे राज्यों की संख्या बढ़ रही है, जो वित्तीय आत्मघात के रास्ते पर हैं। वरिष्ठ नौकरशाहों की बैठक में प्रधानमंत्री के सामने यह मामला उठा। बताया गया, ‘कुछ राज्य श्रीलंका के रास्ते पर जा सकते हैं’।

अर्थनीतियां ही भविष्य तय करती हैं। भारत लोककल्याणकारी राज्य है। गांधी ने जिन्हें ‘समाज का अंतिम आदमी’ कहा, उनके शिक्षा, स्वास्थ्य समेत बेहतर जीवन और विकास के लिए हरसंभव व्यवस्था करना राज्यों और समाज की जिम्मेदारी है। कोरोना जैसी आपदा की कीमत भी बड़ी होगी। पर अर्थशास्त्रियों की नजर में यह स्थिति किसी भी कीमत पर सत्ता पाने की संस्कृति का नतीजा है।

जिन वादाें (फिर उनसे सत्ता भले मिले) को वहन करने में राजकोष असमर्थ है, वाे करेंगे तो वित्तीय घाटा ज्यादा होगा। आमदनी से अधिक खर्च होगा। फिर भी अधिक से अधिक ऋण ले कर मुफ्तखोरी (फ्रीबी) की संस्कृति को बढ़ावा देने का क्या आशय है। रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर ने एक चिंताजनक तथ्य देश के सामने रखा है। राज्य वित्तीय स्थिति के बारे में भ्रामक तथ्य बताते हैं।

जो कर्ज राशि है, उसका असल सच सामने नहीं रखते। सामाजिक उपक्रमों पर वे कर्ज ले रहे हैं। कर्ज लेते समय कुछ राज्य भविष्य में होने वाली आमद गारंटी रखते हैं। यानी भविष्य को बंधक रखकर कर्ज। इस तरह राज्यों के संपूर्ण कर्ज की तस्वीर सामने नहीं आती है। आकलन भर है कि बजट में राज्यों के जो कर्ज दर्ज हैं, लगभग इतना ही कर्ज और है। देश शायद 90 का अनुभव भूल गया है। तब मुल्क दिवालिया या कहें श्रीलंका होते-होते बचा था।

इसकी शुरुआत हो गई थी 80 के दशक में। दुनिया के जाने-माने अर्थशास्त्री और भारत के पूर्व वित्त मंत्री आईजी पटेल ने लिखा है कि 80 के दशक के बाद आई सभी सरकारों ने देश के प्रति मूल दायित्व काे अनदेखा किया है- अल्पकालीन राजनीतिक लाभ के लिए। खास तौर से राजीव गांधी के कार्यकाल पर उन्होंने टिप्पणी की। 1986 में भारत आंतरिक कर्ज के दुष्चक्र में फंस चुका था।

इसका तत्काल परिणाम था, बाहरी कर्ज के जाल में आ जाना। वे यह भी बताते हैं कि इसके निदान के प्रयास के बगैर और खुशी से हम कर्ज बढ़ाते चले गए। फिर रिजर्व बैंक के गवर्नर के रूप में डॉ. मनमोहन सिंह (1982-85), आरएन मल्होत्रा (1985-90) ने बार-बार सरकारों को चेताया पर सब मौन रहे। सवाल तो यही है ना कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे?

देश 90 का अनुभव भूल गया है। तब मुल्क दिवालिया या कहें श्रीलंका होते-होते बचा था। इसकी शुरुआत हो गई थी 80 के दशक में। सरकारों ने देश के प्रति दायित्व की अनदेखी की है- राजनीति के लिए।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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