परछत्तियों से मैले कप-गिलास उतारने का पर्व; गरीब आदिवासी भी सर्वोच्च पद पर जा सकता है
गांवों में हालांकि अब तो ज्यादातर पक्के मकान बन गए हैं, लेकिन बहुत कुछ बाकी हैं। फणीश्वरनाथ रेणु के मैला आंचल से श्रीलाल शुक्ल के राग दरबारी तक जो गांव थे, वो तो आज भी वैसे ही हैं। शहरों में भले ही आज की अर्थव्यवस्था ने बाजार को चुम्बक और आदमी को लोहा बना दिया हो, लेकिन गांवों में अभी बहुत कुछ बदला नहीं है। दरअसल, गांवों के ज्यादातर घरों में ओलतन के पास बनी परछत्तियों पर कुछ मैले-कुचैले कप और गिलास रखे रहते हैं।
जब कोई गरीब-आदिवासी उनके घर आता है तो उसे पानी और चाय इन्हीं परछत्तियों पर रखे, या कहिए, वहां पड़े हुए गिलास और कप में परोसे जाते हैं! इन गिलास और कप को भी वही वहां से उतारता है और चाय-पानी के बाद मांज-धोकर वहीं पर फिर रखता भी वही है! द्रौपदी मुर्मू (अब महामहिम) के राष्ट्रपति बनने के बाद यह साबित हो चुका है कि हिंदुस्तान उस लोकतंत्र का नाम है, जहां गरीब से गरीब आदिवासी भी सर्वोच्च पद पर जा सकता है।
किसी की जाति या सम्प्रदाय, गरीब या अति पिछड़ा होने से उसकी प्रगति, उन्नति इस देश में रुकती नहीं है। इसीलिए अब परछत्तियों पर जितने भी, जहां भी, जो भी कप और गिलास बच गए हैं, उन्हें आज ही फेंक दीजिए। यह इन परछत्तियों का भार हल्का करने का महापर्व है! यह जात-पांत भुलाकर समरसता का संदेश देने वाला उत्सव है! आए दिन खबरें आती हैं कि फलां गांव में दबंगों या ऊंची जाति वालों ने किसी दलित या आदिवासी दूल्हे को घोड़ी से उतारकर भगा दिया।
ऊंची जाति वालों को यह दम्भ है कि उनके सामने कोई नीची जाति वाला घोड़ी पर बैठकर कैसे जा सकता है? अब वे दिन लद गए। बहुत पहले ही लद जाने थे लेकिन अब तो कम से कम समरसता को अपना लीजिए। एक आदिवासी, संघर्षशील महिला को सेना की सर्वोच्च घुड़सवार टुकड़ी ने सलामी दे दी है। फिर कौन-सी राह तक रहे हैं? गांधी जी, विनोबा भावे ने वर्षों जात-पांत मिटाने के लिए संघर्ष किया पर हम नहीं माने।
आज मुर्मू ने भी अपने पहले भाषण में कहा कि यह वह देश है, जहां कोई भी गरीब-गुरबा, दूरस्थ गांव का आदिवासी सर्वोच्च पद तक जा सकता है। द्रौपदी मुर्मू अपने गांव की पहली आदिवासी महिला थीं, जो कॉलेज गई थीं। विचारिए, कितना संघर्ष करना पड़ा होगा! उस समय में ऐसा करने के लिए किस-किससे, कैसी-कैसी लड़ाइयां लड़नी पड़ी होंगी! आस-पड़ोस, रिश्तेदारों और जाने-अनजानों की आंखों में इतनी शिकायतें, आपत्तियां और मनाहियां होती हैं कि सांसों से आग उठने लगती है।
तब भी कोई महिला अगर अपने पथ पर आगे बढ़ती रहे। गांव की पगडंडियों पर चलकर छाले भरे पांवों के साथ एक उस जगह पहुंच सके, जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की हो तो यह दिन देश के लिए एक महापर्व या महा-उत्सव से कम कैसे हो सकता है? भूल जाइए किसी राजनीतिक वातावरण को। पीछे छोड़ दीजिए किसी दलीय लोलुपता को। और उठ खड़े होइए संघर्ष की सफलता के चरमोत्कर्ष को अपनाने, अपना मानने के लिए। मुर्मू की पदस्थापना, पदारोहण का यही एकमात्र संदेश है।
भूल जाइए राजनीतिक वातावरण को। पीछे छोड़ दीजिए दलीय लोलुपता को। उठ खड़े होइए संघर्ष की सफलता के चरमोत्कर्ष को अपना मानने के लिए।