तबादला-तैनाती उद्योग से भ्रष्टाचार का एटीएम बन गया सरकारी अमला
जो घटनाक्रम करीब सालभर पहले महाराष्ट्र की आघाड़ी सरकार में चला था, कुछ-कुछ वैसा ही लेकिन पूरी तरह से बदली हुई शक्ल-सूरत में यूपी की भाजपा सरकार के भीतर चलता दिखाई दे रहा है। कहना न होगा कि दोनों सरकारें किसी लिहाज से एक जैसी नहीं हैं, लेकिन चाहे अपने चहेते पुलिस अफसर के जरिए महाराष्ट्र के गृहमंत्री द्वारा तगड़ी रकम उगाही के लिए दबाव डालने का मामला हो या फिर अफसरों के तबादले-तैनाती के माध्यम से बड़ी रकमें जमा करने का लगातार चलते रहने वाला उद्योग हो- दोनों के ही मर्म में नौकरशाही का इस्तेमाल करके किए जाने वाले राजनीतिक भ्रष्टाचार का प्रकरण है।
देशमुख और वाजे के खिलाफ जो कानूनी कार्रवाई चल रही है, उसके पीछे एक आपराधिक किस्म का विस्फोटक भंडाफोड़ था। केवल सौ दिन पुरानी नई आदित्यनाथ सरकार के भीतर जो कुछ घटित हो रहा है, उसकी प्रकृति ऊपर से देखने में सरकार चलाने से संबंधित राजनीतिक मतभेदों की है। लेकिन उसमें राजनीतिक रूप से विस्फोटक हो सकने के सभी पहलू मौजूद हैं। इससे उपज सकने वाले किसी भी राजनीतिक संकट से सरकार को बचाने के लिए भाजपा के केंद्रीय आलाकमान से लेकर यूपी की सरकार के संचालक लगे हुए हैं।
महाराष्ट्र में केवल एक मंत्री फंसा दिखाई दे रहा था। उत्तर प्रदेश में कोई मंत्री उस तरह से फंसा हुआ नहीं है, लेकिन एक उपमुख्यमंत्री, दो वरिष्ठ मंत्री और दो राज्यमंत्री या तो तबादला-तैनाती उद्योग के मकड़जाल से निकलने के लिए छटपटा रहे हैं या फिर वे उसका आर्थिक दोहन न कर पाने के कारण बेचैन हैं। समझा जाता है इन मंत्रियों को दिल्ली के दबाव में रखा गया था, लेकिन मुख्यमंत्री के प्रभाव में काम करने वाले अफसरों ने इन्हें निष्प्रभावी बना दिया है। जो भी हो, धीरे-धीरे स्पष्ट होगा कि ये मंत्री दरअसल चाहते क्या हैंं।
इन मंत्रियों ने स्वयं शिकायती-पत्र लिखे हैं और उन्हें वायरल किया है। यह प्रकरण सार्वजनिक चर्चा से नहीं बच सकता। समस्या केवल महाराष्ट्र और यूपी की नहीं, इस बीमारी से शायद ही कोई सरकार बच पाई है। तबादला-तैनाती उद्योग से सैकड़ों-हजारों करोड़ रुपए जमा किए जाते हैं। इसका एक हिस्सा अय्याशियों और सम्पत्ति बनाने में खर्च होता है- और ज्यादा बड़ा हिस्सा चुनाव लड़ने, दलबदल करवाने और नेताओं के निजी दबदबे को कायम रखने में जाता है।
राजनीति के क्षेत्र में इस भ्रष्टाचार को सभी पक्षों ने कालाधन जमा करने की स्थापित युक्ति के रूप में स्वीकार कर लिया है। जो अफसर तगड़ा पैसा देकर दुधारू तैनाती पाता है, वह उसकी कई गुना भरपाई के लिए चांदी काटता है। अफसरों को ऊपर से नीचे तक हिस्सा बांटना पड़ता है। विपक्ष को यह सवाल जोरदारी से उठाना चाहिए, पर वह आम तौर पर चुप रहता है। कारण यह है कि जब उसकी सरकार बनती है, तो वह भी यही करता दिखाई पड़ता है। इस सरकार में जो किया जा रहा है, वह पिछली सरकार में भी किया जाता रहा है।
मिसाल के तौर पर यूपी में अखिलेश और मायावती ने कभी तबादलों और तैनातियों में भ्रष्टाचार का मसला नहीं उठाया, क्योंकि उनकी सरकारों में यही होता था। भारतीय राजनीति में कोई चमत्कारिक सुधार नहीं हुआ तो अगली सरकारों में भी यही होगा। मुख्यमंत्री भले ईमानदार रहे, यह सिलसिला कभी नहीं रुकता। आदित्यनाथ के बारे में कहा जाता है कि वे ईमानदार हैं और निजी तौर पर रिश्वत नहीं लेते।
जब उन्हें भ्रष्टाचार के बारे में पता चलता है तो कार्रवाई करते हैं। पर यह कोई नहीं कह सकता कि वे भ्रष्टाचार रोकने में कामयाब रहे हैं। उनके मंत्रियों को लगता है तबादले उनकी मंजूरी से होने चाहिए। जब ऐसा नहीं होता और बड़े अफसर तबादले करके खुद सारा पैसा खा जाते हैं तो वे असंतुष्ट हो जाते हैं। जो मंत्री अपने मन से तबादले कर रहा था, पर उन्हे रोक दिया गया, तो वह भी असंतोष व्यक्त करने लगा।
अखबारों में खबर छप चुकी है कि एक सीएम की पत्नी ने नोट गिनने की हैवी-ड्यूटी मशीन खरीदने के लिए विदेश-यात्रा की थी। मीडिया के जानकार हलकों में चर्चा होती रही है कि एक सीएम वसूली के कोटे निर्धारित करती थीं। पत्रकारों की आपसी चर्चा में अकसर सुनने को मिलता है कि अमुक सरकार अमुक दल की एटीएम मशीन है। या अमुक मंत्री या विभाग किसी सरकार का एटीएम है।
सरकारी अमले का दोहन करके किया जाने वाला राजनीतिक भ्रष्टाचार जनता को सुशासन न मिलने की गारंटी करता है। चूंकि इसे बेरोकटोक चलने दिया गया है, इसलिए इसने संस्थागत प्रकृति पा ली है। कोई गिरफ्तारी, किसी मंत्री-अफसर की शिकायत ही यदाकदा सुर्खियां बटोरी पाती हैं।
तबादला-तैनाती उद्योग ऐसा ओपन सीक्रेट है, जिस पर चर्चा करने से सभी परहेज करते हैं। सभी जानते हैं इसमें बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार होता है। इसे सभी पक्षों ने कालाधन जमा करने की स्थापित युक्ति के रूप में स्वीकार कर लिया है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)