राजनीति में समाज सेवा का भाव बचा ही नहीं …?
राजनीति और सत्ता दोनों एक – दूसरे के पर्याय ही रहे हैं, सालों से…..
भाजपा के अध्यक्ष रह चुके नितिन गडकरी का कहना है कि राजनीति आजकल केवल सत्ता के लिए रह गई है। सेवा, समाज सेवा का भाव राजनीति में बचा ही नहीं है। गड़करी ने महात्मा गांधी के समय की तुलना भी की। लेकिन सवाल यह है कि गांधी जी के बाद तो गंगा में बहुत सा पानी बह चुका है। दरअसल, आज़ादी के बाद सत्ता की ख़ातिर टुकड़ों की राजनीति ने ज़ोर पकड़ा। इसे दो क़िस्म के लोगों ने पूरा और स्थाई कर दिया।
समाजवादियों ने और तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादियों ने। समाजवादियों को कांग्रेस में या कांग्रेस के विरुद्ध पैर रखने की जगह नहीं मिल पा रही थी। कुछ तो इसलिए कि कांग्रेस बहुत पहले समाजवादियों के नारे चुरा चुकी थी। समाजवादी सिद्धांतकारों ने देखा कि उनकी एकमात्र उम्मीद जातिवाद में है। लेकिन उसे आधार बनाने के लिए एक आड़ की ज़रूरत थी। उन्हें एक सचमुच दिव्य आड़ मिल गई। उन्होंने घोषणा की कि जातिवाद को ख़त्म करने के लिए वे जातियों को लामबंद करेंगे।
धर्मनिरपेक्षतावादी भी अंशों या टुकड़ों पर ज़ोर देने के लिए दो गुना प्रेरित थे। क्योंकि उन्होंने देखा कि वोट बटोरने का यह सबसे अच्छा तरीक़ा है। उन्होंने देश के प्रत्येक हिस्से में, और समग्र देश में अल्पसंख्यकों में यानी उत्तर- पूर्व में ग़ैर असमिया लोगों में, संपूर्ण भारत में मुसलमानों में भय पैदा किया और फिर खुद को उनके एकमात्र तारणहार के रूप में पेश किया। लोग लामबंद होते गए और थोक में वोट आते गए। क्या यह सब सेवा के लिए हो रहा था? इस सब के मध्य में भी तो सत्ता ही थी!
ख़ैर, संघ के गढ़ नागपुर में यह सब कह पाने की हिम्मत गडकरी कर पा रहे हैं, यही आपकी बहादुरी है या ये कहें कि सबकुछ छोड़ जाने का संन्यासीपन भी। वर्ना इस पार्टी में तो कई लोग मार्गदर्शक मंडल में जाकर जंग खा गए लेकिन मुँह से कुछ बोल तक नहीं पाए। आप बोल पा रहे हैं, यह बड़ी बात है।
निश्चित ही राजनीति के अलावा भी कई ऐसे क्षेत्र हैं जहां से लोगों, ग़रीबों की सेवा की जा सकती है। लेकिन जिस उद्देश्य से आपने राजनीति को अपनाया था, वह कहाँ गया? उसका क्या होगा? आख़िर पलायन तो कोई इलाज नहीं ही है।