नीतीश कुमार ने बीजेपी को छोड़ आरजेडी से क्यों मिलाया हाथ?
बिहार के सियासी खेल में कितने पेंच हैं, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि नीतीश कुमार ने अपने राजनीतिक करियर में कितनी बार सीएम पद की शपथनीतीश कुमार ने बुधवार को रिकॉर्ड आठवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली, जबकि उनके नए सहयोगी तेजस्वी यादव ने बतौर उपमुख्यमंत्री शपथ ली। सात पार्टियों के मेल वाली महागठबंधन सरकार का विस्तार बाद में किया जाएगा। शपथ लेने के तुरंत बाद नीतीश कुमार ने पत्रकारों से बात करते हुए विपक्षी एकता का आह्वान किया।
8 बार के सीएम नीतीश कुमार ने पहली बार 2000 में बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली थी, लेकिन उनका कार्यकाल सिर्फ एक हफ्ते का ही रह पाया था, क्योंकि वह बहुमत साबित नहीं कर सके। उन्होंने 2005 और 2010 में क्रमशः दूसरी और तीसरी बार शपथ ली, और दोनों बार उन्होंने अपना 5 साल का कार्यकाल पूरा किया। 2014 में, नीतीश कुमार ने सीएम पद से इस्तीफा दे दिया और जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया, लेकिन फरवरी 2015 में उन्होंने फिर वापसी की और चौथी बार सीएम के रूप में पदभार संभाला।
उसी साल नवंबर में, RJD के नेतृत्व वाले महागठबंधन के विधानसभा चुनाव जीतने के बाद उन्होंने पांचवीं बार मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। दो साल बाद, जुलाई 2017 में नीतीश कुमार ने महागठबंधन छोड़ दिया और NDA से हाथ मिला लिया, और छठी बार सीएम पद की शपथ ली। 2020 में नीतीश कुमार ने NDA नेता के तौर पर विधानसभा चुनाव लड़ा और सातवीं बार सीएम के रूप में शपथ ली। अब फिर से वह महागठबंधन में शामिल हुए और आज (10 अगस्त) आठवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।
नीतीश कुमार के एनडीए छोड़ने की आहट पिछले कई दिनों से सुनी जा रही थी। वह अपनी सहयोगी बीजेपी से नाखुश थे। मंगलवार को नीतीश कुमार ने पांच घंटे के भीतर अपना सियासी खेमा बदल लिया। उन्होंने अपने विधायकों की बैठक बुलाई, राजभवन गए, अपना इस्तीफा सौंपा और फिर सीधे RJD नेता तेजस्वी यादव के आवास पर गए, जहां उन्हें महागठबंधन का नेता चुन लिया गया। इसके बाद वह फिर तेजस्वी यादव, कांग्रेस के अजीत शर्मा और HAM पार्टी के जीतनराम मांझी के साथ नई सरकार बनाने का दावा पेश करने के लिए राजभवन गए। राज्यपाल फागू चौहान ने बुधवार को नीतीश कुमार और उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव को शपथ दिला दी। मंत्रिमंडल का विस्तार बाद में होगा।
हर कोई यह सवाल पूछ रहा है कि नीतीश कुमार बीजेपी से नाखुश क्यों थे? बीजेपी के पास 77 विधायक थे, जबकि नीतीश के जनता दल (यूनाइटेड) के पास 45 एमएलए थे, फिर भी बीजेपी ने उन्हें मुख्यमंत्री का पद दिया? नीतीश कुमार को खुली छूट मिली थी, फिर रिश्तों में खटास क्यों आई?
नवंबर 2020 में चुनाव के नतीजे आने के बाद से ही नीतीश कुमार के मन में बीजेपी को लेकर शंका के बीज पड़ गए थे। नीतीश कुमार को लगता है कि उनकी पार्टी को कम से कम 40 सीटों पर बीजेपी ने हरवाया.। चिराग पासवान पर पर्दे के पीछे बीजेपी का हाथ है। इसके बाद भी नीतीश कुमार, बीजेपी की मदद से मुख्यमंत्री बन गए, लेकिन वह पहले दिन से ही अपना रास्ता तलाशने में लगे रहे। इसके बाद बीजेपी ने विजय कुमार सिन्हा को स्पीकर की कुर्सी पर बैठा दिया। सिन्हा से नीतीश की नहीं बन रही थी।
नीतीश को यह भी लगने लगा था कि अब बीजेपी उनकी पार्टी तोड़ने की कोशिश कर रही है। उनको शक अपने पुराने साथी आरसीपी सिंह पर था। नीतीश ने ही आरसीपी सिंह को जेडीयू का अध्यक्ष बनाया था, और नीतीश के कहने पर ही आरसीपी सिंह को केन्द्र में मंत्री बनाया गया। इसके बाद जब आरसीपी सिंह का राज्यसभा का टर्म खत्म हुआ तो नीतीश ने उन्हें टिकट नहीं दिया, उनका मंत्री पद भी चला गया। आरपीसी सिंह ने बगावती तेवर दिखाए तो नीतीश को लगा कि इसके पीछे बीजेपी है।
नीतीश कुमार के शक को दूर करने के लिए खुद गृह मंत्री अमित शाह पटना गए। शाह ने पार्टी के कार्यकर्ताओं के सामने खुलकर कहा कि अगला चुनाव बीजेपी और जेडीयू मिलकर लड़ेंगे, नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही लडेंगे। लेकिन इसके बाद भी नीतीश के मन में शंका थी, और वह दूर नहीं हुई। इसके बाद उन्होंने RJD नेता तेजस्वी यादव से संपर्क किया और राबड़ी देवी और उनके बेटे द्वारा आयोजित एक इफ्तार पार्टी में शामिल हुए। JDU के नेताओं ने भी खुलकर कहा कि नीतीश कुमार का कद छोटा करने की कोशिश की जा रही थी, और इसे पार्टी के कार्यकर्ता कभी बर्दाश्त नहीं करेंगे।
बीजेपी के प्रति नीतीश कुमार की चाल उसी दिन बदल गई थी जिस दिन उन्हें विधानसभा में खड़े होकर स्पीकर विजय कुमार सिन्हा पर खुलेआम नाराजगी जाहिर की थी। एक मामले में जांच को लेकर मुख्यमंत्री और स्पीकर के बीच तीखी नोकझोंक हुई थी।
बीजेपी से नाता तोड़ते हुए नीतीश की पार्टी जेडीयू ने निम्नलिखित कारण बताए: (1) नीतीश कुमार को खुली छूट नहीं दी गई (2) विधानसभा अध्यक्ष के साथ उनका तनाव, (3) जेडीयू के खिलाफ बीजेपी की साजिशें (4) बीजेपी आरसीपी सिंह का इस्तेमाल जेडीयू के खिलाफ कर रही है (5) पार्टी को बांटने के लिए चिराग पासवान मॉडल का इस्तेमाल कर रही है (6) केंद्र में अनुपात के मुताबिक मंत्री पद नहीं है (7) राज्य में बीजेपी के मंत्रियों पर नियंत्रण की कमी है (8) जाति आधारित जनगणना को लेकर केंद्र से मतभेद (9) बीजेपी ने जेडीयू को हमेशा छोटा दिखाने की कोशिश की (10) बीजेपी आलाकमान से सीधा संपर्क न हो पाना।
मंगलवार को महागठबंधन में दोबारा शामिल होने के बाद नीतीश कुमार ने कहा कि उन्हें विधानसभा में 164 विधायकों और एक निर्दलीय का समर्थन हासिल है। उन्होंने कहा, ‘हमारे महागठबंधन में 7 पार्टियां हैं। हम मिलकर के आगे काम करेंगे, सेवा करेंगे।’
RJD नेता तेजस्वी यादव पूरी मजबूती से नीतीश के साथ खड़े थे। तेजस्वी ने कहा कि बीजेपी के एजेंडे को अब बिहार में नहीं चलने देना है। जब रिपोर्ट्स ने पूछा कि वह तो नीतीश को पलटूराम, बेशर्म, ठग, बहरूपिया और न जाने क्या-क्या कहते रहे हैं तो तेजस्वी ने तुरंत जवाब दिया, ‘चाचा से लड़ाई-झगड़ा होता रहा है। हर परिवार में झगड़े-झंझट होते रहते हैं। इसका मतलब यह तो नहीं कि कोई तीसरा पुरखों की विरासत को ले जाए। बीजेपी तो आपस में लड़ा कर अपना रास्ता बनाती है, लेकिन नीतीश कुमार ने बता दिया कि ये सब बिहार में नहीं चलेगा।’
बीजेपी के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने नीतीश कुमार के आरोपों के जवाब दिए। उन्होंने कहा कि नीतीश कुमार कभी भी मुख्यमंत्री नहीं बन पाते क्योंकि उनके नाम का उनकी ही पार्टी में विरोध हो रहा था, लेकिन बीजेपी ने उन्हें सीएम का पद दे दिया। प्रसाद ने पूछा, ‘बिहार विधानसभा चुनाव मोदी के नाम पर लड़ा गया था, और खुद से आधी सीटें होने के बावजूद बीजेपी ने नीतीश कुमार को सीएम बनाया था। यह एहसान फरामोशी नहीं तो और क्या है?’
केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री गिरिराज सिंह ने कहा कि नीतीश कुमार प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देख रहे थे, लेकिन ‘पीएम पद पर कोई वैकेंसी नहीं है, इसमें बीजेपी की क्या गलती।’ उन्होंने कहा, ‘हकीकत यह है कि नीतीश कुमार मौकापरस्त हैं, और यह आज पूरे देश ने देख लिया।’ सोशल मीडिया पर ऐसे कई मीम्स ट्रेंड कर रहे थे जिनमें पाला बदलने के लिए नीतीश कुमार पर व्यंग्य किया गया था।
नीतीश कुमार की दिक्कत उस दिन शुरू हुई थी जब पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी उनसे बड़ी पार्टी हो गई। बीजेपी की सीटें जेडीयू के मुकाबले लगभग दोगुनी हो गई थीं। नीतीश को लगा कि बीजेपी ने उनका कद छोटा करने के लिए चिराग पासवान का इस्तेमाल किया। नीतीश कुमार को इस बात की भी तकलीफ थी कि बिहार के मामलों में एक जमाने में वह लालकृष्ण आडवाणी और अरुण जेटली जैसे नेताओं के साथ सीधे बात करते थे, लेकिन अब उनसे बातचीत के लिए बीजेपी ने भूपेन्द्र यादव को नियुक्त कर दिया था। नीतीश चाहते थे उन्हें अगर मोदी नहीं तो कम से कम अमित शाह से सीधे डील करने का मौका मिले, लेकिन यह नहीं हो पाया।
नीतीश थोड़े इगो वाले नेता हैं। ये सब बातें उन्हें परेशान करती थीं। जब आरसीपी सिंह को केन्द्र में मंत्री बनाया गया, हालांकि वह नीतीश कुमार की पंसद से ही मंत्री बने थे, लेकिन नीतीश ने अपनी पार्टी में इंप्रेशन दिया कि आरसीपी को मंत्री बनाने का फैसला अमित शाह का था। इसकी वजह से आरसीपी सिंह की अपनी पार्टी में यह धारणा बनी कि वह तो बीजेपी के आदमी हो गए। नीतीश चाहते थे कि आरसीपी सिंह दिल्ली में उनकी तरफ से अमित शाह और जेपी नड्डा जैसे नेताओं से संपर्क में रहें, लेकिन ये भी नहीं हो पाया।
अंतत: नीतीश कुमार ने आरसीपी सिंह को भी किनारे कर दिया और बाद में पार्टी के बाहर कर दिया, क्योंकि उन्हें लगने लगा था कि आरसीपी सिंह के जरिए बीजेपी उनकी पार्टी को तोड़ देगी, और उनका हाल उद्धव ठाकरे की तरह हो जाएगा। उनके पास न पार्टी रहेगी, न सरकार। इस शक-ओ-शुबह ने नीतीश कुमार की रातों की नींद उड़ा दी, और उनको इतना परेशान कर दिया कि वह तेजस्वी यादव के पास चले गए।
मतलब साफ है बिहार में सरकार सिर्फ नीतीश कुमार के शक के कारण बदली है, वरना उनकी कुर्सी को कोई खतरा नहीं था। अब सवाल यह है कि तेजस्वी ने अपने पास दोगुने विधायक होते हुए भी नीतीश को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर क्यों बैठाया? नीतीश को अपना नेता मानकर फिर से उनके साथ सरकार क्यों बनाई?
असल में पटना में जो हुआ उसमें नीतीश और तेजस्वी दोनों का फायदा है। दोनों सत्ता के लिए व्याकुल थे। नीतीश कुमार अपनी आखिरी पारी खेल रहे हैं और तेजस्वी की पारी अभी शुरू ही हुई है। वे मानते हैं बिहार में पलटी मारने से, भ्रष्टाचार के इल्जाम होने से, अपनी बात बदलने से खास फर्क नहीं पड़ता। उनका विश्वास हैं कि बिहार में आज भी चुनाव जातिगत समीकरण के आधार पर जीता जाता है, और इस समय जाति के समीकरण नीतीश, तेजस्वी और उनके साथ आई पार्टियों के पक्ष में है। इसीलिए, बीजेपी को इस बात की चिंता है कि 2024 के चुनाव में अपनी सीटें कैसे कायम रखी जाएं।