बिना समुचित विचार-विमर्श के यूसीसी लागू करने के प्रयास खतरनाक साबित हो सकते हैं
क्या सरकार समान नागरिक संहिता (यूसीसी) को लेकर गम्भीर है या यह उसका एक और राजनीतिक शगूफा भर है? अगर यूसीसी लागू होता है तो यह स्वागतयोग्य ही होगा। लेकिन इसके साथ गम्भीर मुद्दे जुड़े हैं, जिनमें संविधान के विभिन्न प्रावधानों में तालमेल बिठाना भी शामिल है। संविधान का अनुच्छेद 44 कहता है, राज्यसत्ता भारतीय गणराज्य के परिक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुरक्षित करने के प्रयास करेगी।
यह प्रावधान राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांत का हिस्सा है, जिसकी व्याख्या करते हुए अनुच्छेद 37 कहता है कि वे अनिवार्य नहीं हैं, न ही किसी अदालत के द्वारा लागू कराए जा सकते हैं, लेकिन वे प्रशासन के लिए बुनियादी महत्व के अवश्य हैं। संविधान का अनुच्छेद 25 बुनियादी अधिकारों का हिस्सा है, जो नागरिकों को अंतश्चेतना के पालन की स्वतंत्रता और धर्म के पालन का अधिकार देता है।
वहीं अनुच्छेद 26(बी) सभी धर्मों का पालन करने वालों को अपने धर्म के मुताबिक क्रियाकलापों के प्रबंधन का बुनियादी अधिकार देता है। ऐसे में सवाल उठता है कि हम एक ऐसे बुनियादी अधिकार- जो लोगों को उनके धर्म का पालन करने की आजादी देता है- का तालमेल यूसीसी से कैसे बिठाएं, जो धार्मिक कानूनों में एकरूपता लाने के अपने प्रबुद्ध लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उस बुनियादी अधिकार में हस्तक्षेप करने के लिए बाध्य है?
भाजपा ने 2014 और 2019 में यूसीसी को अपने चुनावी घोषणापत्र में शामिल किया था। आज भी यूसीसी लागू करने का उसका इरादा बदला नहीं है। लेकिन केंद्र की सत्ता में आठ साल रहने के बावजूद उसने इस दिशा में किया क्या है? अगर वह यूसीसी को लेकर गम्भीर होती तो एक मसौदा कानून तैयार करवाती, जिसे बहस और परामर्श के लिए सदन के पटल पर रखा जाता।
वर्तमान में धर्म-पालन के अनेक कानून हैं : हिंदू मैरिज एक्ट, इंडियन क्रिश्चियन मैरिजेस एक्ट, इंडियन डाइवोर्स एक्ट, पारसी मैरिज एंड डाइवोर्स एक्ट और शरीया भी। यूसीसी लागू करवाने के लिए शादी, तलाक, भरण-पोषण, उत्तराधिकार, दत्तक-अधिकार जैसे जटिल मामलों से सम्बंधित मौजूदा कानूनों में इस तरह से तालमेल बिठाना होगा, जो हिंदुओं, बौद्धों, जैनों, सिखों, मुसलमानों, ईसाइयों, पारसियों को स्वीकार्य हो।
बिना समुचित विचार-विमर्श के ऐसा करने का प्रयास खतरनाक साबित हो सकता है। राष्ट्रीय विधि आयोग के अध्यक्ष जस्टिस बी.एस. चौहान ने अक्टूबर 2016 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को जदयू अध्यक्ष होने के नाते एक पत्र लिखते हुए इस बारे में उनकी राय जानना चाही थी और उन्हें एक प्रश्नावली भेजी थी। तब मैं पार्टी में उनके साथ काम कर रहा था।
अपने प्रत्युत्तर में नीतीश कुमार ने लिखा था : पर्याप्त सलाह-मशविरे और विभिन्न धार्मिक समूहों- विशेषकर अल्पसंख्यकों- की सहमति बिना यूसीसी को थोपना सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने वाला साबित हो सकता है और इससे अपने धर्म का पालन करने के संवैधानिक वचन के प्रति लोगों का विश्वास भी भंग हो सकता है… यहां यह भी याद रखें कि सरकार द्वारा प्रस्तावित यूसीसी के ठोस ब्योरे पहले से सबको पता हों, ताकि उससे प्रभावित होने वाले सभी पक्ष उस पर अपनी विस्तृत प्रतिक्रिया दे सकें।
क्या भाजपा ने इस तरह के सलाह-मशविरे की कोई गम्भीर प्रक्रिया शुरू की है? हमारे गणतंत्र की बहुलतावादी और बहुधार्मिक प्रकृति को देखते हुए यह जरूरी है। मिसाल के तौर पर संविधान में अनुच्छेद 25 की पहली व्याख्या कहती है कि सिखों के द्वारा कृपाण धारण करना धार्मिक स्वतंत्रता के दायरे में होगा। तब क्या वैसी छूट दूसरों को नहीं दी जाएगी?
दूसरी व्याख्या कहती है कि हिंदुओं के बारे में बात करते समय हम उसमें सिखों, बौद्धों, जैनों को भी समाहित करेंगे। लेकिन क्या ये सभी धर्म खुद काे हिंदू धार्मिक पद्धतियों में समाविष्ट करना चाहेंगे? नवम्बर 2019 और मार्च 2020 में यूसीसी पर एक विधेयक प्रस्तावित किया गया था, लेकिन उसे संसद में प्रस्तुत ही नहीं किया गया।
उससे पहले, अगस्त 2018 में राष्ट्रीय विधि आयोग ने कहा था कि अभी यूसीसी की न तो जरूरत है, न ही वह वांछनीय है। यूसीसी हमारे देश की बहुलता के विपरीत नहीं हो सकता है। यूसीसी की हिमायत करने वाले क्या हमें बताएंगे कि यह तालमेल कैसे बैठाया जाए?
हम धर्म का पालन करने की आजादी देने वाले बुनियादी अधिकार का तालमेल यूसीसी से कैसे बिठाएं, जो धार्मिक कानूनों में एकरूपता के लिए उस बुनियादी अधिकार में ही हस्तक्षेप करेगा?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)