भगवान के लिए! कार को रॉकेट और सड़क को अंतरिक्ष मत समझिए

देखिए, ऐसा है न हार तो सरकार भी गई है समझा-समझाकर. चालान 10 गुने तक बढ़ा दिया गया मगर सुधार का सु भी अभी नदारद है. तो भइया, आपकी मर्जी है. जान अपने की जाती है, सरकार की नहीं…

मिस्टर अजय कुमार गुड़गांव की मल्टी नेशनल कंपनी में काम करते हैं. घर में बड़ी गाड़ी भी है. अजय कुमार नोएडा सेक्टर 62 की एक बहुमंजिला इमारत पर रहते हैं. दफ्तर पहुंचने का वक्त 10 बजे है. भाई साहब निकलते हैं नौ बजे. उसके बाद शुरू होता है जल्दबाजी का सिलसिला. बस यहीं से यातायात की मर्यादाएं भंग होना शुरू हो जाती है. लिफ्ट से सीधे कार पर विराजते हुए सबसे पहले तो ड्राइवर झल्लाते हैं. ड्राइवर बेचारा सुबह आठ बजे से ही सफेद पोशाक पहनकर साहब के इस्तकबाल में खड़ा रहता है मगर अजय कुमार रॉकेट की तरह आते हैं सड़क को अंतरिक्ष समझते हुए अपनी गाड़ी को रॉकेट और ड्राइवर को रॉकेट का इंजन समझने लगते हैं.

ऐन वक्त पर घर से निकलना और फिर सारी जल्दबाजी सड़क पर ही निकालने की आदत हम हिंदुस्तानियों के जीन्स में बस चुकी है. चाहे जितने चालान हो जाएं मगर हम तो हैं साहब आदत से मजबूर. मतलब नहीं सुधरना तो नहीं सुधरना. रेड लाइट जंप करना हो, जेब्रा क्रॉसिंग के ऊपर गाड़ी का रोकना हो, ट्रैफिक सिग्नल पर पीली लाइट का इशारा होता है गाड़ी स्लो चलाएं मगर यहां पर उल्टा है. यहां पर अगर लाइट येलो हुई तो और तेज गाड़ी भगाकर निकालने की कोशिश होती है ताकि एक रेड लाइट बच जाएं. ऐसी जल्दबाजी किस बात की. घर से अगर 15 मिनट पहले निकलने की कोशिश करें तो शायद आप ऐसी हरकतें न करें मगर ऐसा नहीं हो सकता. क्यों कि हम हैं…. बाकी आपके दिल ने खुद ही बोल दिया.

समय की कीमत सारी सड़कों पर ही क्यों ? विदेशों में शायद हमसे ज्यादा समय की इज्जत की जाती है. वहां के नागरिक क्यों अपनी जिम्मेदारी समझते हुए ट्रैफिक नियमों का पालन करते हैं. आपको हंसी आएगी कि जो लोग भारत से विदेश जाते हैं वो भी वहां पर ट्रैफिक नियम का पालन करने लगते हैं. गंदगी नहीं फैलाते. भाई, ऐसी क्या नाराजगी अपने देश से. सारा ज्ञान सिर्फ विदेशों के लिए ही कमाया है. वही लोग जब भारत आते हैं तो फिर ढाक के तीन पात. पहले तो वो खूब साखें बघारेंगे. वहां तो ये हो जाता था. ये लोग इंडियन बता नहीं कब सुधरेंगे और साहब ज्ञान देते-देते गाड़ी को रॉकेट बना देते हैं. भारत में हैलमेट सिर पर नहीं हाथों पर लगाया जाता है. सिर पर लगाने से वो जुल्फे बिगड़ जाती हैं ये भूल जाते हैं कि अगर गिर गए तो थोपड़ा बिगड़ जाएगा फिर तो बियाह के भी लाले पड़ जाएंगे.

दिल्ली-एनसीआर की एक बड़ी आबादी इधर से उधर जाती है. नोएडा, गाजियाबाद, फरीदाबाद और गुरुग्राम. अगर आप नोएडा से दिल्ली या गुड़गांव की तरफ जाते हैं तो आपको दिल्ली को पार करना ही होगा. यहां के सूट और बूट वाले महाशय दिल्ली सीमा लगते साथ सीट बेल्ट, मास्क, रेड लाइट सब फॉलो करने लगते हैं क्योंकि दिल्ली में कानून का पंजा कुछ ज्यादा ही लंबा है इसके डर से तुरंत सारे नियम कानून याद आ जाते हैं. जैसे ही बॉर्डर क्रॉस हुआ वैसे ही फिर वही अपने असली रूप में. भारत में पीछे सीट बेल्ट लगाने का अभी जुर्माना नहीं है. यहां पर कोई भी पीछे वाली सीट पर बैठकर सीट बेल्ट नहीं लगाता. रविवार को मुंबई में टाटा ग्रुप के पूर्व चेयरमैन साइरस मिस्त्री का सड़क हादसे में निधन हो गया. वो भी पीछे वाली सीट में बैठे थे और सीट बेल्ट नहीं लगाए थे. जबकि ड्राइवर और उनके बगल की सीट पर बैठने वाले शख्स घायल जरूर हुए हैं मगर मौत नहीं हुई. इसके अलावा 13 मई 2016 को कनाडा में संत निरंकारी बाबा हरदेव सिंह की भी ऐसे ही मौत हुई थी. वो भी बैक सीट पर बिना बेल्ट लगाए बैठे थे और सड़क हादसे में उनकी जान चली गई थी.

अब आते हैं जरा मुद्दे पर. एनसीआरबी का डेटा बताया है कि हम लोग कितने गैरजिम्मेदार लोग हैं. पिछले साल देश भर में 4.03 लाख ‘सड़क दुर्घटनाओं’ में मौतों के अलावा 3.71 लाख लोग घायल भी हुए थे.आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 2021 में पूरे भारत में सड़क दुर्घटनाओं में 1.55 लाख से अधिक लोगों की जान चली गई. औसतन 426 दैनिक या हर एक घंटे में 18. जो अब तक किसी भी कैलेंडर वर्ष में दर्ज की गई सबसे अधिक मौत का आंकड़ा है. गृह मंत्रालय अंतर्गत काम करने वाले एनसीआरबी की रिपोर्ट से पता चला है कि पिछले साल दुर्घटनाओं के कारण होने वाली मौतों की संख्या अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच गई, जबकि सड़क दुर्घटनाओं और घायल लोगों की संख्या में पिछले वर्षों की तुलना में कमी आई है.

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