जनसंख्या असंतुलन को लेकर भागवत की चिंता कितनी वाजिब?, एक की बढ़ेगी तो दूसरे की घटेगी आबादी
बच्चे सिर्फ़ ग़रीबों के घर ही नहीं बढ़ते बल्कि अल्पसंख्यक भी अपनी ताक़त जताने के लिए अधिक से अधिक बच्चे पैदा करते हैं. उनके धर्म गुरू भी उन्हें ऐसा करने को उकसाते हैं
मानव समाज का यह एक विचित्र खेल है, कि समाज का जो हिस्सा गरीब होता है, उसकी आबादी निरंतर बढ़ती रही है. इसके विपरीत जो खाता-पीता वर्ग है, उसकी आबादी घटती रहती है. इसकी एक वजह तो यह है कि गरीब वर्ग के लिए उसके बच्चों में वृद्धि उसके लिए हाथ हैं. अर्थात् जितने बच्चे होंगे उसकी उतनी कमाई बढ़ेगी. लेकिन खाते-पीते मध्य वर्ग के लिए बच्चे पेट होते हैं. यानी बच्चे बढ़ेंगे तो उनके लिए पौष्टिक भोजन, दवाएँ और उनकी स्कूलिंग, उनका बजट बिगाड़ देंगी. इसलिए मध्य वर्ग की आबादी तेजी से घटने लगने लगती है.
मध्य वर्ग इसे लेकर खुश रहता है, कि उसको घरेलू सहायक, धोबी, मिस्त्री, प्लंबर, इलेक्ट्रीशियंस, ड्राइवर आदि लोग सस्ते में उपलब्ध हैं. लेकिन यह सिर्फ़ फ़ौरी सोच है. लम्बे समय बाद जब यही बढ़ती आबादी वोट बैंक बन जाती हैं, तो सब परेशान हो जाते हैं. सोशियो डेमोग्राफ़र चेताते भी हैं कि अमुक समुदाय की आबादी बढ़ रही है. तब कोई ध्यान नहीं देता. लेकिन जिस समुदाय की आबादी बढ़ेगी, उसके घर में काम करने वाले हाथ बढ़ेंगे तो ज़ाहिर है उसके पास पैसा आएगा और फिर वह मध्य वर्ग के एलीट क्लास में शामिल होने के लिए अपने अधिकार माँगेगा. तब चिल्ल-पों मचती है.
भागवत की चिंता वाजिब
विजयादशमी को आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने अपने उदबोधन में इसी बढ़ती आबादी को ले कर चिंता व्यक्त की है. उन्होंने देश में सभी के लिए समान जनसंख्या नीति बनाये जाने पर जोर दिया है. भारत में जिस तरह आबादी बढ़ रही है, उसका पेट भरने लायक़ अन्न और पीने के लिए पानी भी नहीं है. इसीलिए संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) ने भी एक बार चेताया था, कि दुनिया की सर्वाधिक आबादी वाले देशों में अब भोजन और पानी नहीं बचा है. इसलिए बढ़ती जनसंख्या इन देशों के लिए मुसीबत बनने वाली है.
लेकिन यह भी विचित्र स्थिति होती है, कि राजनेता कभी भी अपने वोट बैंक की आबादी घटती हुई नहीं देख सकता. इसलिए वह न तो आबादी की बढ़त पर कुछ बोलता है न किसी समुदाय की घटत पर. उसे घटत वाले समुदाय की चिंता भी नहीं होती. किंतु राजनीतिज्ञ को चिंता होती है. क्योंकि वह पाँच साल की राजनीति नहीं करता, उसके लिए राजनीति कई-कई सौ साल आगे चलती है. इसीलिए विजयादशमी पर संघ प्रमुख ने कहा कि देश की जो आबादी आज है, वह निरंतर बढ़ती ही रही तो देश आने वाले 50 वर्षों तक इन सब लोगों को भोजन उपलब्ध करा पाएगा. उन्होंने कहा, जनसंख्या असंतुलन भौगोलिक सीमाओं में बदलाव की वज़ह बनती है. इसलिए जनसंख्या की एक समग्र नीति बने जो सब पर समान रूप से लागू हो.
आबादी बढ़ेगी और फिर औंधे मुँह गिरेगी
उधर सोशियो डेमोग्राफ़र भी बताते हैं, कि दो वर्ष बाद देश की आबादी पीक (PEAK) पर होगी। तब न सबको भोजन मिल पाएगा न अन्न. इसलिए भी जनसंख्या नीति बहुत ज़रूरी है. इसे हर हाल में बनाओ अन्यथा हो सकता है, 2050 तक आबादी में भारी गिरावट हो जाए और देश की आबादी कुल 109 करोड़ ही बचे. यह आकलन डराने वाला भी है, और एक कड़वी सच्चाई भी. मगर कोई भी राजनेता इस दिशा में किसी तरह की पहल करने की नहीं सोच रहा. सुप्रीम कोर्ट ने भी ऐसी एक याचिका पर विचार करने में रुचि नहीं दिखाई. लेकिन मोहन भागवत की बात में दम है, कि जनसंख्या बढ़ने से समाज के विभिन्न संप्रदायों के बीच द्वेष पैदा होता है, सामाजिक असंतुलन बढ़ता है और यह देश की एकता के लिए घातक होगा.
श्वेत आबादी भयभीत
यही कारण है, कि अमेरिका और योरोप में भी लोग अपने-अपने समुदाय को ले कर आज बहुत चिंतित हैं. वहाँ पर गोरे (श्वेत) लोगों की आबादी तेजी से घट रही हैं, जबकि प्रवासियों की आबादी बढ़ती जा रही है. उनके समक्ष एक तरह से अस्तित्त्व का संकट आ गया है. उनको लगता है, कि यही हाल रहा तो एक दिन उनका अपने ही देशों पर से वर्चस्व समाप्त हो जाएगा. इसीलिए हर गोरी महिला के तीन से चार बच्चे तो होते ही हैं, ताकि उनकी आबादी घटे नहीं. ऐसा क्यों होता है, इस पर पूछे जाने पर एक गोरे (श्वेत) दम्पति ने बताया कि हमारे देश की नीतियाँ बहुत उदार हैं. लोगों को शरण देने और बाहर की आबादी को खपाने में हम सबको बुलाते हैं. लेकिन हम यह भी नहीं चाहते कि हमारी स्वयं की आबादी इतनी कम हो जाए, कि हम अपने ही देश में अल्पसंख्यक हो जाएं.
बच्चे पैदा करने के लिए कनाडा
टोरंटो में एक पाकिस्तानी युवती ने मुझे बताया कि उसकी दो बेटियाँ हैं और दोनों ही कनाडा की नागरिक हैं. क्योंकि जब ये पैदा होने वाली थीं तब हम कनाडा आ गए. जबकि वह युवती और उसका शौहर यहाँ पर PR लेकर आया हुआ है. दोनों अभी बेरोजगार हैं. पति पढ़ रहा है और पत्नी हाउस वाइफ़ है. दोनों ही वर्किंग नहीं हैं, इसलिए प्रति बच्चा हज़ार-हज़ार डॉलर उन्हें वज़ीफ़ा मिलता है. वे यहाँ बेसमेंट में रहते हैं और कभी-कभी लाहौर चले जाते हैं. चूँकि बच्चों का जन्म कनाडा में हुआ है, इसलिए वे कनाडा के नागरिक जन्मना ही हो गए. और इसी आधार पर बच्चों के माँ-बाप को भी देर-सबेर कनाडा की नागरिकता मिल जाएगी.
लालच में और बच्चे
इस तरह के वे अकेले दम्पति नहीं हैं. ऐसे असंख्य दम्पति यहाँ हैं और वे सब अपने समुदाय की संख्या भी बढ़ा रहे हैं. मालूम हो कि कनाडा और अमेरिका में उन बच्चों को नागरिकता स्वतः मिल जाती है, जो यहाँ पैदा होते हैं. इसलिए वर्क वीज़ा या PR लेकर आने वाले अधिकांश दम्पति चाहते हैं, कि उनके बच्चे यहीं पर हों ताकि यहाँ वे कनाडा की चाइल्ड वेलफ़ेयर स्कीम का लाभ उठा सकें. इस कारण औसत कनाडाई घबराया भी हुआ है. लेकिन उनके देश के क़ानून इतने सख़्त हैं कि वह ऐतराज भी ज़ाहिर नहीं कर पा रहा. मगर अंदर ही अंदर वे सुलग रहे हैं. इसीलिए कनाडा अब शरणार्थियों को उस प्रांत में कम से कम पाँच वर्ष रहने के लिए अनुबंधित करता है, जहां जीवन बहुत कठिन है. खुल्लम-खुल्ला न सही किंतु कनाडा ने एक तरह से जनसंख्या अनुपात न बढ़ने देने के लिए एक चाल तो चल ही दी है.
अल्पसंख्यक हो जाने का डर
बच्चे सिर्फ़ ग़रीबों के घर ही नहीं बढ़ते बल्कि अल्पसंख्यक भी अपनी ताक़त जताने के लिए अधिक से अधिक बच्चे पैदा करते हैं. उनके धर्म गुरू भी उन्हें ऐसा करने को उकसाते हैं, जैसे-जैसे उनकी आबादी बढ़ने लगती है, उनका मनोबल भी बढ़ता है और वे चुनाव की राजनीति में अपना दख़ल करने के लिए फिर धर्मादेश जारी करते हैं. इससे समुदायों में परस्पर क्लेश बढ़ता है और नाहक ही द्वेष फैलता है. मोहन भागवत ने जिन भौगोलिक सीमाओं में फेरबदल की आशंका व्यक्त की है, उसके पीछे यह एक भय है. किसी भी संप्रदाय विशेष की बढ़ती आबादी जब देश के बहुसंख्यक समाज की वृद्धि दर से अधिक होती है, तो यह डर स्वाभाविक है.
NFHS की चेतावनी
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) की मानें तो औसत मुस्लिम महिला अपने जीवन में 2.6 बच्चों को जन्म देती है, जबकि एक हिंदू महिला का औसत 1.99 है. हालाँकि इसके पीछे ग़रीबी, अशिक्षा और उनके धर्मग़ुरु भी बड़े कारक हैं लेकिन इससे अनावश्यक असंतोष तो पैदा होता ही है. इसलिए यदि पूरे देश के लिए यदि कोई समान जनसंख्या नीति हो तो इस असंतोष को टाला जा सकता है.