मोरबी हादसे के लिए लालच और लापरवाही हैं जिम्मेदार …!

पुल तो गुजरात के मोरबी में था लेकिन उसके गिरने से सारे देश में चिंता का माहौल बन गया है। देश के लोगों का ध्यान सरदार पटेल की जयंती और इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि पर जरूर गया, लेकिन उससे ज्यादा सबका मन दु:ख में डूब गया। लगभग डेढ़ सौ शव अब तक नदी से निकाल लिए गए हैं लेकिन पता नहीं हताहतों की संख्या कहां तक पहुंचेगी।

इस 140 साल पुराने झूलते पुल पर थोड़ी भी सावधानी बरती जाती तो इतनी बड़ी दुर्घटना होती ही क्यों? जिस झूलते हुए पुल पर 500-600 लोग चढ़ गए थे, वह जब बना था, तब उस पर सिर्फ 15 लोगों को एक साथ जाने की अनुमति हुआ करती थी और उस समय उसकी फीस सिर्फ 1 रु. थी। लेकिन इधर उस पर लगभग 100 लोगों को एक साथ चढ़ने दिया जाता था।

यह पुल किसी बड़े झूले के समान था, जिस पर चढ़कर मच्छू नदी के दृश्यों का आनंद लिया जाता था। पुल पर जब लगभग 500 लोग चढ़ गए तो उसे टूटने से कौन रोक सकता था? ये 500 लोग पुल पर कैसे चढ़ गए? उन्हें इसकी अनुमति किसने दी और क्यों दी? इसके पीछे लालच और लापरवाही दोनों हैं। लालच यह था कि हर पर्यटक को 17 रु. का टिकट खरीदना होता था।

हजारों टिकट बेचकर रोज मोटी रकम कमाने के लोभ में असीमित लोगों के लिए पुल खोल दिया गया। लापरवाही यह हुई कि न तो यह मालूम किया गया कि जो पुल सात महीने से सुधर रहा था, वह उपयोग के लायक बन गया है या नहीं, और इतनी भीड़ को पुल पर चढ़ने के लिए किसी की अनुमति की जरूरत है या नहीं?

पुल का ठेका गुजरात की ही उस कंपनी को दे दिया गया, जिसका इस तरह के कामों से कुछ लेना-देना नहीं है। वह कंपनी घड़ियां और ई-साइकिलें बनाने का काम करती है। 15 साल के इस ठेके के तहत ‘ओरेवा ग्रुप’ नामक इस कंपनी को पुल के रखरखाव, सुरक्षा, संचालन, टिकट-विक्रय आदि की जिम्मेदारी मिली थी। पिछले सात माह से पुल की मरम्मत का काम चल रहा था।

गुजरात सरकार को इस काम के लिए उसे दो करोड़ रु. भी देने थे लेकिन कंपनी ने 26 अक्तूबर को यह पुल अचानक खोल दिया। न तो स्थानीय प्रशासन से अनुमति ली गई और न ही बताया गया कि पुल खोला जा रहा है। मोरबी नगरपालिका के नेता और अफसर कह रहे हैं कि वे क्या करते? रखरखाव और सुरक्षा की सारी जिम्मेदारी उसी कंपनी की है।

स्थानीय नेताओं और अफसरों का इस तरह जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेना क्या अपराध की श्रेणी में नहीं आता? पहली बात तो यह कि ऐसी कंपनी को 15 वर्ष का ठेका क्यों दिया गया? यदि अयोग्य को ठेका दिया गया तो राज्य सरकार क्या कर रही थी? स्थानीय निकायों को राज्य सरकारें ही वित्तीय अनुदान देती हैं। वे इन संस्थाओं पर कड़ी निगरानी क्यों नहीं रखतीं?

गुजरात ही नहीं, देश की सभी राज्य सरकारों के लिए मोरबी की दुर्घटना एक सबक की तरह होनी चाहिए। मोरबी नगरपालिका अध्यक्ष और उसके अफसर इस तथ्य के लिए उत्तरदायी हैं कि मरम्मत किए जा रहे पुल के इस्तेमाल के पहले उन्होंने उसकी जांच क्यों नहीं करवाई? कंपनी ने यदि ठेके के नियम के विरुद्ध जांच की उपेक्षा की तो इसकी सबसे गंभीर दोषी वह नगरपालिका ही है।

यह ठीक है कि केंद्र और गुजरात सरकार ने मृत व्यक्तियों के लिए 6 लाख रुपए और घायलों के लिए 50 हजार रुपए का मुआवजा घोषित किया है। इसके अलावा यह भी सराहनीय है कि दोनों सरकारों और स्थानीय प्रशासन ने नदी में गिरने वालों को बचाने के लिए जी-जान से कोशिश की है। लेकिन इनसे पूछिए कि 6 लाख रुपए के ब्याज से किसी परिवार का गुजारा कैसे होगा?

भाजपा और कांग्रेस नेताओं द्वारा इस दु:खद मौके पर एक-दूसरे की टांग-खिंचाई करने की भी क्या जरूरत थी? कंपनी के कर्मचारियों के अलावा नगरपालिका के नेताओं और अधिकारियों को दोषी ठहराया जाना चाहिए और कंपनी पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए।

500 लोग मोरबी के पुल पर कैसे चढ़े? उन्हें इसकी अनुमति किसने दी? इसके पीछे लालच व लापरवाही दोनों हैं। हर पर्यटक को 17 रु. का टिकट खरीदना होता था। हजारों टिकट बेचकर मोटी रकम कमाने का लोभ था।

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