लाख टके का सवाल, क्या इस बार फिर गुजरात फतह कर पाएगी BJP?

राज्य में 15वीं विधान सभा के लिए दो नवंबर को मतदान की घोषणा हो चुकी है. एक और पांच दिसंबर को वोट पड़ेंगे तथा 8 दिसंबर को नतीजे आएंगे. उसी दिन हिमाचल विधान सभा चुनाव का भी रिजल्ट आएग

पिछले 24 वर्षों से गुजरात में बीजेपी राज कर रही है. बीजेपी का किसी भी राज्य में शासन करने का यह एक रिकार्ड है. इस बीच कितनी भी ऊंच-नीच हुई, लेकिन सत्ता में यहाँ बीजेपी ही पहुंचती रही है. अब लाख टके का सवाल यह है, कि क्या इस बार बीजेपी फिर आ पाएगी? राज्य में बीजेपी के विरुद्ध असंतोष भी है. हाल का मोरबी पुल हादसा या कुछ महीनों पूर्व का जहरीली शराब कांड. कांडला पोर्ट में नशे का कारोबार आदि कई सवाल हैं. ये सवाल अब बीजेपी से पूछे जा रहे हैं. 2017 में यहां चुनाव में कांग्रेस भले हार गई रही हो लेकिन उसका प्रदर्शन दमदार था. संयोग से उस समय राहुल गांधी कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे. आज वे अध्यक्ष भले न हों लेकिन उनकी भारत जोड़ो यात्रा सभी को सांसत में डाले हुए हैं.

राज्य में 15वीं विधान सभा के लिए दो नवंबर को मतदान की घोषणा हो चुकी है. एक और पांच दिसंबर को वोट पड़ेंगे तथा 8 दिसंबर को नतीजे आएंगे. उसी दिन हिमाचल विधान सभा चुनाव का भी रिजल्ट आएगा. हालाँकि हिमाचल में चुनाव की घोषणा काफी पहले 14 अक्टूबर को हो गई थी. वहाँ वोट भी 12 नवंबर को पड़ जाएंगे. कांग्रेस इसे लेकर चुनाव आयोग की आलोचना कर रही है. उसे लगता है, कि केंद्रीय चुनाव आयोग (CEC) ने जान-बूझकर गुजरात चुनावों की तारीख एनाउंस करने में देरी की. उसके अनुसार ऐसा प्रधानमंत्री के गुजरात दौरे के मद्देनज़र किया गया है.

1960 में राज्य बना था गुजरात

1960 में गुजरात राज्य बना था, तब से 1975 तक यहां कांग्रेस का ही शासन रहा. कांग्रेस काल में ही 1969 में यहां भयानक हिंदू-मुस्लिम दंगा हुआ और बहुत लोग मारे गए. तब हितेंद्र भाई देसाई मुख्यमंत्री थे. उनको हटाकर कांग्रेस ने घनश्याम ओझा को मुख्यमंत्री बनाया. पर शीघ्र ही चिमनभाई पटेल अड़ गए, वे उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को धमका गए, कि प्रदेश विधानसभा में कांग्रेस नेता का चयन पार्टी विधायक दल करेगा न की कांग्रेस हाई कमान. अंततः 1973 में चिमन भाई पटेल मुख्यमंत्री बना दिए गए. लेकिन गुजरात जैसे राज्य को चलाना आसान नहीं था. उनके राज में भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और महंगाई में ऐसी वृद्धि हुई, कि पूरे प्रदेश के छात्र व युवक आंदोलित हो उठे. कॉलेज की फ़ीस बढ़ाये जाने से शुरू हुआ आंदोलन पूरे प्रदेश में फैल गया. इसे नव निर्माण आंदोलन कहा गया. बीस दिसंबर 1973 से शुरू हुआ आंदोलन 16 मार्च 1974 तक चला. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने चिमन भाई पटेल से इस्तीफ़ा ले लिया. राज्यपाल ने विधानसभा भंग कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया.

1975 में लगा था कांग्रेस को तगड़ा झटका

नव निर्माण युवक समिति द्वारा फिर आंदोलन शुरू करने पर चुनाव हुए. चिमन भाई पटेल कांग्रेस से अलग हो गए. उन्होंने नई पार्टी बना ली. 12 जून 1975 को आए नतीजों में कांग्रेस को तगड़ा झटका लगा और उस समय की 167 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस को 75 सीटें मिलीं. तब बीजेपी की पूर्ववर्ती जनसंघ, भारतीय लोकदल, कांग्रेस (ओ), प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने जनता मोर्चा बना कर चुनाव लड़ा था. इस मोर्चे को 88 सीटें मिलीं और मोर्चे की तरफ़ से बाबू भाई पटेल मुख्यमंत्री बने. इसी बीच इमरजेंसी लगा दी गई और 9 महीने के भीतर ही बाबू भाई पटेल की सरकार केंद्र ने बर्खास्त कर दी. दिसंबर 1976 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस जीत गई और माधव सिंह सोलंकी मुख्यमंत्री बनाए गए.

इसके बाद जनता पार्टी ने सोलंकी सरकार बर्खास्त कर दी. 11 अप्रैल 1977 को जनता पार्टी की तरफ से बाबू भाई पटेल पुनः मुख्यमंत्री निर्वाचित हुए. उधर कांग्रेस नेता माधव सिंह सोलंकी ने कांग्रेस को मज़बूती देने के लिए गुजरात में KHAM राजनीति शुरू की. यानी क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम का मोर्चा. इसके मुख्य शिल्पकार झीणा भाई दर्ज़ी थे. नतीजा यह रहा कि फ़रवरी 1980 में बाबूभाई की सरकार बर्खास्त हुई और जून 1980 में कांग्रेस को 182 में से 141 सीटें मिल गईं. किंतु इस मोर्चे के चलते गुजरात की सबसे ताक़तवर जाति पटेल कांग्रेस से छिटक गई. इसी बीच भारी जीत से उत्साहित माधव सिंह सोलंकी सरकार ने सरकारी नौकरियों में पिछड़ों का कोटा बढ़ा दिया. इसका भयंकर विरोध हुआ. आरक्षण विरोधी आंदोलन ने पूरे गुजरात को अस्त-व्यस्त कर दिया.

… जब 149 सीटें जीती कांग्रेस

आरक्षण का लाभ माधव सिंह सोलंकी को मिला. तमाम नाकामियों के बाद भी कांग्रेस ने 1985 के विधानसभा चुनाव में अपनी सीटें बढ़ा कर 149 कर लीं, लेकिन इस बार माधव सिंह सोलंकी सिर्फ चार महीने ही मुख्यमंत्री रह पाये. 1985 में हुई सांप्रदायिक हिंसा के चलते उन्हें हटा कर कांग्रेस आलाकमान ने आदिवासी समाज के अमर सिंह चौधरी को मुख्यमंत्री बना दिया. इसकी वजह भी थी, कि शुरू से ही गुजरात अपने भीषण दंगों के कारण कुख्यात रहा है. 1961 से ही वहाँ दंगे शुरू हो गए थे. हितेंद्र देसाई के समय 1969 के दंगों में तो एक हज़ार से ऊपर लोग मारे गए. इसके बाद 1985 में फिर भयानक दंगा हुआ. इसलिए भी कांग्रेस ने नाराज़गी दूर करने के लिए अमर सिंह चौधरी को मौका दिया. इससे उसे पटेल व अन्य ऊंची जातियों की नाराजगी दूरी करने का उपाय सूझा, इसके अतिरिक्त 15 प्रतिशत आदिवासी समुदाय को अपना वोट बैंक बना लेने का भी. किंतु अमर सिंह चौधरी चार साल ही मुख्यमंत्री रह पाए. उनकी सरकार के विरुद्ध खुद कांग्रेसियों ने ही मोर्चा खोला और एक बार फिर से माधव सिंह सोलंकी मुख्यमंत्री बन गए.

गुजरात में ऐसे हुआ कांग्रेस का सफाया

इसके बाद से कांग्रेस का गुजरात में भी सफ़ाया होने लगा. 1990 के चुनाव में जनता दल की तरफ़ से चिमन भाई पटेल मुख्यमंत्री बने. इस सरकार में भाजपा चिमन भाई पटेल की सरकार में थी. लेकिन जल्द ही भाजपा से उनका विवाद हो गया और भाजपा साढ़े सात महीने बाद सरकार से अलग हो गई. कांग्रेस के सपोर्ट से चिमनभाई की सरकार फिर बन गई. 17 फ़रवरी 1994 को चिमन भाई पटेल की मृत्यु हो गई. बाकी बचे एक साल के लिए कांग्रेस के छबील दास मेहता मुख्यमंत्री बनाए गए. 1995 के विधान सभा चुनाव में भाजपा की सरकार बन गई, क्योंकि भाजपा प्रदेश में लगातार मजबूत होती जा रही थी. भाजपा में केशू भाई पटेल मुख्यमंत्री तो बन गए लेकिन पार्टी के अंदर सिर फुटौवल काफी थी. पार्टी ने सात महीने के भीतर ही उन्हें हटा कर सुरेश मेहता को मुख्यमंत्री बना दिया. इसी बीच शंकर सिंह बाघेला बगावत कर गए. विधानसभा में जोड़ तोड़ कर राष्ट्रीय जनता पार्टी की मदद से उन्होंने अपनी सरकार बना ली. फिर एक साल बाद दिलीप पारीख, इसी पार्टी से CM बने.

1998 से लगातार जीत रही BJP

1998 में फिर बीजेपी आ गई और केशू भाई पटेल मुख्यमंत्री निर्वाचित हुए. किंतु पार्टी में असंतोष के चलते तीन वर्ष बाद 2001 में नरेंद्र मोदी को मुख्यमंत्री बनाया गया. इसके बाद से आज तक पार्टी लगातार जीत रही है. नरेंद्र मोदी सरकार के समय 2002 का दंगा हुआ और इस दंगे के बाद से सारी जातीय राजनीति के समीकरण बिगड़ गए. हिंदू एक तरफ़ हो गए और मुस्लिम एक तरफ़. 2014 में नरेंद्र मोदी जब प्रधानमंत्री बन गए, तब आनंदी बेन पटेल CM बनीं. फिर विजय रूपाणी, नितिन पटेल और अब भूपेन्द्र पटेल मुख्यमंत्री हैं. भाजपा गुजरात में जीत तो रही है, लेकिन नरेंद्र मोदी के बाद पार्टी पुख़्ता जीत हासिल नहीं कर सकी. हालाँकि नरेंद्र मोदी के बाद गुजरात विधान सभा का चुनाव 2017 में हुआ और अब 2022 में हो रहा है.

कुछ खूबियां-कुछ खामियां

भाजपा के खाते में एक तो 24 वर्ष लगातार राज करने की कुछ खूबियाँ हैं तो कुछ ख़ामियाँ भी. प्रदेश को यह गौरव है, कि उस प्रदेश का नेता नरेंद्र मोदी आज देश का प्रधानमंत्री है. लेकिन प्रदेश सरकार और केंद्र द्वारा भी सिवाय गौरव गान के और कुछ भी गुजरात को पिछले आठ वर्षों में नहीं मिला. इसलिए हिंदुओं के अंदर भी क्षोभ है. और प्रदेश का 10 प्रतिशत मुस्लिम वोटर तो कदापि भाजपा को वोट नहीं करेगा. दक्षिण गुजरात के विशाल आदिवासी समुदाय में कांग्रेस का असर है. अर्थात् आदिवासी, क्षत्रिय और मुस्लिम वोट कांग्रेस को जा सकता है. कुछ दलित और पाटीदार पटेल भी. मगर आम आदमी पार्टी (AAP) के आ जाने से कांग्रेस का पाले की मजबूती 2017 जैसी भी नहीं है. आप सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल ने वहाँ डेरा डाल लिया है और वे फ़ोकस भी आदिवासी समुदाय पर कर रहे हैं. वे बड़ी सफ़ाई से गुजरात में मुस्लिम समुदाय से दूरी बरत रहे हैं. क्योंकि मुसलमानों से करीबी का मतलब हिंदुओं से दूर होते जाना. और तो और ख़ुद कांग्रेस भी यहाँ मुसलमानों के प्रति उदासीन है.

हिंदुओं का नाराज वर्ग किसके साथ?

ऐसे में हिंदुओं का नाराज़ वर्ग अरविंद केजरीवाल के साथ जा सकता है. आदिवासी समाज में उन्होंने अपनी पकड़ बना ली तो वे बीजेपी को चुनौती दे सकते हैं. अन्यथा वे गुजरात में लड़ाई त्रिकोणीय तो बना ही देंगे. कांग्रेस के आला नेता अभी भी राहुल गांधी के साथ यात्रा में जुड़े हैं. ऐसे में वे प्रचार में कैसे उतरेंगे. इसके अलावा वे अभी तक गुजरात में मुखर हो कर नहीं आए हैं. जबकि बीजेपी को द्रोपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाने का लाभ भी मिलेगा. वे आदिवासी समाज से ही हैं. सवर्ण हिंदू को कांग्रेस अपने पाले में ला नहीं पा रही है. राहुल गांधी के कई बयान हिंदुओं को चिढ़ा देते हैं और मुसलमानों से भी वे कम से कम गुजरात में दूरी बना रहे हैं. उधर पिछली बार के असंतुष्ट पटेल समाज के नेता हार्दिक पटेल अब बीजेपी में हैं.

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