‘सबकी धरती, सब धरती के’ भाव से दूर क्यों है मनुष्य

धरती के संदर्भ में तो एक भी मनुष्य न तो बाहरी है, न ही घुसपैठिया‘सबकी धरती, सब धरती के’ भाव से दूर क्यों है मनुष्य
असंख्य ग्रह, नक्षत्रों व तारामंडल को लेकर हमारे मन में कभी यह विचार नहीं आता कि यह आकाशगंगा किसकी है? धरती को लेकर भी मेरे-तेरे का भाव हमारे मन में नहीं आता। तो फिर देश, प्रदेश, शहर, गांव, समाज, जाति, धर्म भाषा, परिवार सम्पत्ति को लेकर हमारा मन सिकुड़ क्यों जाता है? मनुष्य का मन तेरे-मेरे की संकीर्ण मानसिकता में क्यों उलझ जाता है? ‘धरती सबकी, सब धरती’ का भाव दुनिया के लोगों में अब तक क्यों कर नहीं पनपा? धरती पर मनुष्य निर्मित देशों में मनुष्यकृत राजनीतिक कारकों के चलते ही इतने सारे देशों की काल्पनिक सीमाएं और राष्ट्रीयताएं विकसित हुई हैं। इन सीमाओं से उपजे विवादों से देशों के बीच विवाद, तनाव और युद्ध होते रहते हैं। देशों की सीमा में समय, काल और परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन राजनीतिक आर्थिक और प्राकृतिक संसाधनों पर स्वामित्वगत कारकों से होता रहता है। जैसे दुनिया में पानी, नदी या जल प्रवाह के विवादों का तो इतिहास बहुत लम्बा है, पर हवा और बादलों को लेकर मानव समाज में विवाद नहीं हुआ। हवा, प्रकाश और बादल में मनुष्य अभी तक स्वामित्व भाव खोज नहीं पाया, तो विवाद ही नहीं हुआ। इस जगत में जीवों के मन में जहां-जहां और जैसे-जैसे स्वामित्व का भाव पैदा हुआ, वहां-वहां ही मेरे-तेरे अधिकार का सवाल जन्मा। पर धरती के साथ सीमा का कोई सवाल या विवाद ही नहीं है।

जीवों में भी मनुष्य सबसे निराला है। मनुष्य न तो खुद से संतुष्ट होता है, न जगत में घट रहे घटनाक्रम से। मनुष्यों में से कोई भी अभेद के शाश्वत स्वरूप को जीवन के प्रारम्भ से ही समझ नहीं पाता, तभी तो हर बात में इतने मत-मतान्तर का जन्म होना मनुष्य की विचार शक्ति के निरन्तर प्रवाह का अंतहीन सिलसिला बन गया हैं। इसलिए समान विचार और विरोधी विचार को लेकर मनुष्य का मन भेद मूलक विचारों से निरन्तर शांत और अशांत भाव के साथ जीता रहता है। विचारों को लेकर हमारे मन में समभाव नहीं रह पाता, जैसे मानव को लेकर मेरे-तेरे के भाव ने धरती पर मनुष्यों में आपसी टकराहट को जन्म दिया , वैसा ही विचारों को लेकर भी सारी दुनिया में हुआ। मनुष्य में भी विचार भिन्नता का अतिशय विकास होता ही रहता है। जैसे हम मनुष्य को केवल एक सहज मनुष्य के रूप में ही नहीं देख समझ पाते हैं, वैसे ही भाव मनुष्य के विचारों के साथ भी है। देशों में नागरिकता का सवाल, मूल निवासी और बाहरी का सवाल उठा ही देशों की मनुष्यकृत सीमाओं के कारण। घुसपैठिए या बिना अनुमति या अवैध रूप से रहने वाले लोग दुनिया के हर देश में होते हैं। पूरी धरती के संदर्भ में तो एक भी मनुष्य न तो बाहरी है, न ही घुसपैठिया। सारे मनुष्य इसी धरती या दुनिया में जन्मे लोग हैं। इस तरह अंदर का, बाहरी या बिना अनुमति का, सवाल समग्र धरती के स्तर पर पैदा होने का सवाल कहीं भी कभी भी मनुष्य के जीवन में पैदा ही नहीं हुआ। देश निकाला देने का विचार भी संकीर्ण मानसिकता है। धरती या दुनिया से निकाल बाहर करना मनुष्य के बस की बात ही नहीं है।

दुनिया भर में देशों की रक्षा के लिए सेना रखने का विचार जड़ें जमा चुका है, पर दुनिया की रक्षा के लिए सेना खड़ी करने का विचार आज तक भी जन्मा ही नहीं। दुनिया के देशों को आपस में एक दूसरे से खतरा लगता है। मित्र देशों और शत्रु देशों की अवधारणा बहुत गहरेपन से सभी देशों और उनके नागरिकों के मन में जड़ें जमा चुकी हैं, पर धरती की रक्षा के लिए एकजुटता की बात नहीं होती। क्या धरती पर किसी बाहरी सभ्यता के हमले की कोई संभावना नहीं है? अभी तक हम परिकल्पना ही करते हैं कि अंतरिक्ष में कोई सभ्यता हो सकती है। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि हम जितने निकटतम स्वरूप में अस्तित्व में होते हैं, उतने ही प्रतिद्वंद्वी भावना से प्रेरित होकर एक दूसरे से भयग्रस्त हो अपनी-अपनी सीमा और सेना खड़ी कर स्वयं की सुरक्षा करने को तैयार हो जाते हैं। धरती पर कोई हमला हो सकता है, यह विचार ही नहीं आता है।

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