‘आपराधिक मामलों में मंत्री का कथन सरकार का बयान नहीं …!
संविधान पीठ: नेताओं के बोलने की आजादी पर अतिरिक्त पाबंदी से इनकार …
4:1 के बहुमत से फैसले में जस्टिस नागरत्ना की फिर अलग राय
नई दिल्ली. सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने मंगलवार को अहम फैसले में कहा कि मंत्रियों, सांसदों और विधायकों के बोलने की आजादी पर ज्यादा प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता। इस बारे में संविधान के अनुच्छेद 19 (2) में पहले से व्यापक प्रावधान हैं। ऐसे में किसी अतिरिक्त पाबंदी की जरूरत नहीं है। पीठ ने यह भी कहा कि आपराधिक मामलों में किसी मंत्री के कथन को सरकार का बयान नहीं माना जा सकता। किसी नागरिक के मौलिक अधिकार की सकारात्मक रूप से रक्षा करना सरकार का कर्त्तव्य है। भले किसी नेता ने इस अधिकार का उल्लंघन किया हो।
सार्वजनिक पदों पर बैठे लोगों के भाषण व बोलने की आजादी के अधिकार को लेकर सुनवाई के बाद जस्टिस एस.ए. नजीर की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ ने 4:1 के बहुमत से फैसला सुनाया। बाकी चार जजों में जस्टिस बी.आर. गवई, वी. रामासुब्रमण्यम, ए.एस. बोपन्ना और बी.वी. नागरत्ना शामिल हैं। सोमवार को नोटबंदी के मामले की तरह इस मामले में भी जस्टिस नागरत्ना ने अलग फैसला सुनाया। मामला यूपी के तत्कालीन मंत्री आजम खां के सामूहिक दुष्कर्म पीड़ितों के बारे में एक बयान से जुड़ा था। सुनवाई के दौरान एमाइकस क्यूरी हरीश साल्वे ने कहा था कि मंत्री संविधान के प्रति जिम्मेदार हैं। वह सरकार की नीति के खिलाफ बयान नहीं दे सकते।
1सामूहिक जिम्मेदारी के सिद्धांत को लागू करने के बावजूद किसी मंत्री के बयान को सरकार के साथ नहीं जोड़ा जा सकता। भले ही बयान सरकार के किसी मामले को लेकर हो या सरकार की रक्षा करने वाला हो।
2बोलने की आजादी को प्रतिबंधित करने के लिए अनुच्छेद 19 (2) में उल्लेखित आधार संपूर्ण हैं। अनुच्छेद 19(1) के तहत मौलिक अधिकार का प्रयोग राज्य के अलावा अन्य व्यवस्था के खिलाफ भी किया जा सकता है।
3कब किसके अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार पर किस हद तक अंकुश लगाना है, इस बारे में आम आदेश नहीं दिया जा सकता।
4तथ्यात्मक पृष्ठभूमि की जांच किए बिना केंद्रीय दिशा-निर्देश निर्धारित करना मुश्किल है। अलग-अलग मामलों की पृष्ठभूमि में अलग-अलग फैसले किए जा सकते हैं।
आत्मसंयम जरूरी
जस्टिस बी.वी. नागरत्ना ने एक अलग फैसला दिया। उन्होंने कहा कि नफरत फैलाने वाला भाषण असमान समाज का निर्माण करते हुए मूलभूत मूल्यों पर प्रहार करता है। यह विभिन्न पृष्ठभूमियों में देश के नागरिकों पर भी प्रहार करता है। उन्होंने कहा कि अगर कोई मंत्री अपमानजनक बयान देता है, तो इसके लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। अगर मंत्रियों के बयान छिटपुट टिप्पणियां हैं, जो सरकार के रुख के अनुरूप नहीं हैं, तो इसे व्यक्तिगत टिप्पणी माना जाएगा। उन्होंने कहा, ’किसी को तभी बोलना चाहिए, जब शब्द धागे में पिरोए गए मोतियों की तरह हों कि भगवान भी सुनें तो सही मानें। यह बात मैंने भाषण देने के अनुशासन के मुद्दे के लिए भगवत गीता के आधार पर कही है।’ उन्होंने घृणा फैलाने वाले भाषणों के बढ़ते मामलों पर चिंता व्यक्त की।
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में 15 नवंबर, 2022 को फैसला सुरक्षित रखते हुए कहा था कि अलिखित नियम है कि सार्वजनिक पद पर आसीन लोगों को आत्मसंयम रखना चाहिए। यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे अपमानजनक टिप्पणी न करें। इसे राजनीतिक और नागरिक जीवन में शामिल किया जाना चाहिए।
यह है मामला
उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में 2016 के गैंगरेप मामले को राज्य सरकार के तत्कालीन मंत्री आजम खां ने राजनीतिक साजिश करार दिया था। इसको लेकर काफी विवाद हुआ। आजम खां ने अपने बयान के लिए माफी मांग ली थी, लेकिन अक्टूबर 2017 में सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की पीठ ने ऐसे बयान के मुद्दे पर विचार के लिए मामला संविधान पीठ को सौंप दिया था। संविधान पीठ को तय करना था कि क्या सार्वजनिक पदाधिकारी या मंत्री संवेदनशील मामलों पर विचार व्यक्त करते हुए अभिव्यक्ति की आजादी का दावा कर सकते हैं?