क्यों हुआ संविधान पर साइन के लिए 2 महीने इंतजार …!

क्यों हुआ संविधान पर साइन के लिए 2 महीने इंतजार:अंबेडकर की ड्राफ्टिंग कमेटी पर संविधान सभा ने ही जताई थी आपत्ति

भारतीय गणतंत्र में संविधान ही सर्वोच्च है। इसके बावजूद संविधान पर उंगली उठाने वाले भी कम नहीं हैं। सबसे ताजा वाकया जुलाई, 2022 का है। केरल के एक मंत्री ने संविधान को लोकतंत्र विरोधी बता दिया तो बवाल मच गया।

लेकिन संविधान पर इस तरह के सवाल और विवाद कोई नए नहीं हैं, बल्कि संविधान बनते समय भी ड्राफ्टिंग कमेटी (जिसके चेयरमैन डॉ. भीमराव अंबेडकर थे) के काम और उनकी सोच पर खुद इसे बनाने वाली कॉन्स्टिट्युएंट असैंबली के मेंबर्स भी सवाल उठा चुके हैं।

क्या आप जानते हैं कि संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू क्यों माना जाता है, जबकि इसकी प्रस्तावना के मुताबिक ही कॉन्स्टिट्युएंट असैंबली ने इसे 26 नवंबर, 1949 को पारित कर दिया था?

क्या आप जानते हैं क्यों कॉन्स्टिट्युएंट असैंबली के ही सदस्य ने कहा था कि ये संविधान लोकतंत्र और संघीय ढांचे को बढ़ावा देने के बजाय इसे खत्म करता है।

क्या आप जानते हैं कि कॉन्स्टिट्युएंट असैंबली को आखिर चुना किसने था? उनके चुनाव में वोट देने वाले कौन थे?

पढ़िए, संविधान से जुड़े सबसे बड़े सवालों और उनके जवाबों पर हमारी खास रिपोर्ट…

पहला विवाद…

गणतंत्र दिवस की तारीख 26 जनवरी क्यों…जब संविधान 2 महीने पहले बन चुका था

तस्वीर 26 जनवरी, 1930 की है। कांग्रेस के नेताओं ने इसी दिन पहली बार पूर्ण स्वराज की शपथ ली थी।
तस्वीर 26 जनवरी, 1930 की है। कांग्रेस के नेताओं ने इसी दिन पहली बार पूर्ण स्वराज की शपथ ली थी।

संविधान की प्रस्तावना की आखिरी लाइन में लिखा है कि कॉन्स्टिट्युएंट असैंबली ने 26 नवंबर, 1949 को संविधान का ड्राफ्ट पारित कर दिया था।

पारित होने का मतलब ये कि संविधान बनकर तैयार था और असैंबली के सभी सदस्यों को स्वीकार था। अब सिर्फ हस्ताक्षर होने बाकी थे।

सिर्फ हस्ताक्षर के लिए दो महीने बाद की तारीख 24 जनवरी, 1950 तय की गई। 24 जनवरी को ही हस्ताक्षर भी हो गए, मगर संविधान के अमल में आने की तारीख 26 जनवरी, 1950 तय की गई।

दरअसल, 19 दिसंबर, 1929 को कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में पहली बार पूर्ण स्वराज की मांग की गई थी। इसके बाद 26 जनवरी, 1930 को जनता के सामने इसकी घोषणा की गई थी।

लोगों से अपील की गई थी कि हर साल 26 जनवरी, को बतौर स्वतंत्रता दिवस मनाया जाए। इसके बाद हर साल देश में कई जगह 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस मनाया भी जाता था।

कुछ लोगों का मानना है कि इस तारीख को यादगार बनाए रखने के लिए ही संविधान पारित हो जाने के बावजूद इसे लागू करने के लिए दो महीने का इंतजार किया गया।

दो महीने के इस इंतजार का सच जानने के लिए हमने कॉन्स्टिट्युएंट असैंबली के सत्रों के दौरान हुई मेंबर्स के बीच हुई बहस को खंगाला। तथ्य वाकई चौंकाने वाले हैं…

22 जनवरी, 1947 को पहली बार कॉन्स्टिट्युएंट असेंबली में हुआ था 26 जनवरी की तारीख का जिक्र

9 दिसंबर, 1946 से देश का अपना संविधान बनाने के लिए गठित कॉन्स्टिट्युएंट असैंबली का पहला सेशन शुरू हुआ था। दिसंबर, 1946 के सेशन में ही सभा के लक्ष्य और उद्देश्य को लेकर पंडित जवाहर लाल नेहरू एक प्रस्ताव लाए थे। इस प्रस्ताव में भारत को स्वतंत्र किए जाने का भी जिक्र था।

इसके बाद देश का घटनाक्रम भी तेजी से बदला और ब्रिटिश पार्लियामेंट में 18 जुलाई, 1947 को इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट के पारित होने के बाद 15 अगस्त को भारत की आजादी की घोषणा कर दी गई।

26 जनवरी की तारीख को लेकर चर्चा कई बार हुई…कोई आधिकारिक प्रस्ताव नहीं लाया गया

कॉन्स्टिट्युएंट असैंबली के सत्रों में कई बार इस बात का जिक्र आया कि भले ही स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त हो, लेकिन संविधान को पारित करने की तारीख 26 जनवरी रखी जाए और इसे बतौर गणतंत्र दिवस मनाया जाए।

जुलाई 1949 के बाद से होने वाले सत्रों में इस बात पर ज्यादा जोर दिया जाने लगा कि संविधान के अमल लाए जाने की तारीख तय की जाए और ये 26 जनवरी हो।

आर्टिकल 314 पर में एक वाक्यांश का इस्तेमाल किया गया था ‘…the date of the commencement of this constitution…’ इसी में इस तारीख के तौर पर 26 जनवरी, 1950 का जिक्र किया गया था।

हालांकि इस बात पर कोई आधिकारिक प्रस्ताव नहीं लाया गया। बाद के सत्रों में हुई चर्चाओं में यह बात आम सहमति में आ गई कि 26 जनवरी को ही संविधान के अमल में आने की घोषणा की जाएगी।

26 जनवरी की तारीख पर सभा में नहीं था कोई विवाद…हिंदी अनुवाद के लिए भी समय चाहिए था

संविधान के अमल में आने की घोषणा 26 जनवरी, 1950 को ही की जाए, इस बात पर कॉन्स्टिट्युएंट असैंबली में कोई विवाद नहीं था।

शुरुआती सत्रों से ही सभी सदस्यों ने ये इच्छा जताई थी कि जब भी संविधान बनकर तैयार हो, इसे 26 जनवरी को ही लागू किया जाए।

एक सदस्य ने तो संविधान की प्रस्तावना में भी इसे पारित करने की तारीख के तौर पर 26 जनवरी का जिक्र किए जाने का प्रस्ताव दिया था। हालांकि इसे स्वीकार नहीं किया गया।

इस वजह से भी 26 नवंबर, 1949 को पारित होने के बाद हस्ताक्षर और राष्ट्रपति के चुनाव के लिए 24 जनवरी, 1950 की तारीख तय की गई।

दूसरा विवाद…

संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के काम पर उठे थे कई बार सवाल…‘ड्रिफ्टिंग कमेटी’ तक कहा गया

जुलाई, 2022 में केरल के एक मंत्री ने संविधान की आलोचना करते हुए बयान दिया था, जिस पर काफी विवाद भी खड़ा हो गया था।

लेकिन इस संविधान पर सबसे ज्यादा सवाल इसे बनाने वाली कॉन्स्टिट्युएंट असैंबली ने ही उठाए थे। संविधान की ड्राफ्टिंग के दौरान इसमें संशोधन के कुल 7635 प्रस्ताव लाए गए थे। इसमें से 2473 संशोधन स्वीकार भी किए गए।

असैंबली के सदस्य नजीरुद्दीन अहमद ने ड्राफ्टिंग कमेटी के कामकाज पर इतने सवाल उठाए थे कि 25 नवंबर, 1949 को संविधान का ड्राफ्ट पेश करते समय ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन डॉ. भीमराव अंबेडकर ने खासतौर पर उनका जिक्र किया था।

सदस्य के. हनुमंतिया ने 17 नवंबर, 1949 को कहा था कि वे संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के काम की तारीफ नहीं कर सकते क्योंकि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जो भावना संविधान को लेकर थी, वो इसमें नहीं दिखती।

गांधी जी का कहना था कि लोकतंत्र की असली ताकत सत्ता के विकेंद्रीकरण में है। यानी पंचायत स्तर पर ज्यादा से ज्यादा ताकत दी जानी चाहिए। लेकिन ये संविधान ज्यादा ताकत दिल्ली को देता है।

के. हनुमंतिया ने ड्राफ्टिंग कमेटी के सदस्यों की भी आलोचना की थी। उनका कहना था कि ड्राफ्टिंग कमेटी के सदस्यों में कई लोग बहुत काबिल हैं। लेकिन फिर भी स्वतंत्रता संग्राम के बारे में उनके विचार, आंदोलन के नेताओं से मेल नहीं खाते हैं।

उनका कहना था कि ड्राफ्टिंग कमेटी के सदस्य कानूनी मामलों के जानकार हैं, लेकिन ये उन्हीं कानूनों के जानकार हैं जो आजादी से पहले अंग्रेजों ने बनाए थे। हमारा संविधान बनाने के लिए सिर्फ ये काबिलियत काफी नहीं है।

तीसरा विवाद…

कॉन्स्टिट्युएंट असेंबली के चुनाव पर ही लोगों ने उठाए सवाल…ये जनता की चुनी हुई सभा नहीं थी

संविधान बनाने के लिए कॉन्स्टिट्युएंट असैंबली के गठन की प्रक्रिया लॉर्ड माउंटबेटेन के समय में शुरू हुई थी। इसका चुनाव 1946 में हुआ था।

इस प्रक्रिया में भारत की जनता की भागीदारी नहीं थी। उस समय कॉन्स्टिट्युएंट असैंबली में 389 सीटें तय की गई थीं। इनमें से 292 राज्यों के प्रतिनिधि थे, 93 प्रतिनिधि रियासतों के थे और 4 सदस्य दिल्ली, अजमेर-मेरवाड़ा, कुर्ग और ब्रिटिश बलूचिस्तान के चीफ कमिश्नर की ओर से थे।

इनका चुनाव राज्यों की प्रोविंशियल असैंबली के सदस्यों को करना था। राज्यों की प्रोविंशियल असैंबली के सदस्य भी जनता के चुने हुए प्रतिनिधि नहीं थे। बल्कि इन्हें भी सरकार ने नियुक्त किया था।

यही नहीं, संविधान के निर्माण में भी आम जनता से कोई राय नहीं ली गई थी। आज संसद में कोई बिल लाने से पहले सरकार उसे सार्वजनिक मंच पर रख जनता और स्टेक होल्डर्स से उनकी राय मांगती है।

संविधान निर्माण के दौरान जनता से राय लेने का कोई प्रावधान था ही नहीं। राजीव धवन कहते हैं कि कॉन्स्टिट्युएंट असैंबली ने जैसा भी संविधान बनाया, जनता के सामने उसे स्वीकार करने के अलावा कोई और ऑप्शन ही नहीं था।

आज भी कई जानकार ये जरूर मानते हैं कि संविधान के ड्राफ्ट में उन लोगों का प्रभाव ज्यादा रहा था जो मुख्य रूप से ब्रिटिशकाल के कानूनों की बारीकियों को ही समझते थे। यही वजह है कि हमारे संविधान ने कई देशों के संविधान से चीजें ली जरूर हैं, मगर उस पर सबसे ज्यादा प्रभाव ब्रिटिश कॉन्स्टिट्यूशन का ही दिखता है।

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