शक्तिमान ही स्त्री की शक्ति …
शक्तिमान ही स्त्री की शक्ति ,,,
प्रकृति ने सबको पहचान दी, नाम-रूप दिया, वर्णाश्रम व्यवस्था दी, युगल सृष्टि दी, स्वतंत्र चिंतन-निर्णय क्षमता दी। वर्णानुरूप कर्म दिए, जीवनशैली और फल दिए। उसी के अनुसार योनियां दी, भोग-रोग-योग का त्रिक् दिया। विद्या के द्वारा अविद्या के आवरण हटाने का मार्ग दिया। यह तो मोक्ष-मार्ग सुलभ कराने की साधारण व्यवस्था थी। आज के विज्ञान की तकनीकी उपलब्धियों ने एक नया आसुरी रूप ग्रहण करना शुरू कर दिया। व्यक्ति प्रमुख हो गया, समाज खोता चला गया। वर्ण खोता चला गया। आश्रम व्यवस्था ध्वस्त होने लगी। मर्यादा स्वच्छन्दता में बदलती जा रही है। शाश्वत की चर्चा छूटने लगी, नश्वरता की हरियाली ने मानवता को स्तब्ध कर दिया।
समृद्ध-विकसित राष्ट्रों पर दृष्टिपात करें। नश्वरता की चकाचौंध ही तो ईर्ष्या का विषय बना हुआ है। हर विकासशील तथा अविकसित देश ग्लैमर में खो जाना चाहता है। व्यक्ति स्वयं तो भोग की वस्तु बन चुका है। उसका मूल्य भी निर्धारित है। यह परिवर्तन प्रत्येक घर-परिवार से शुरू हो चुका है। मोबाइल, इंटरनेट के कारण सब पीछे छूट रहा हैं। संतान भी मां-बाप के हाथ से छूट रही है। जीवन में अपेक्षाओं और महत्वाकांक्षाओं का बोलबाला है। पात्रता तो ‘लाठी’ से जुड़ गई। लाठी सत्ता से जुड़ गई। सत्ता भोग में फंस गई, द्वेष और शत्रुता में वर्तमान दायित्व भूलने लगी है। मानवता प्रकृति के मातृत्व को भूल बैठी। प्रकृति की जड़ें उखाड़ने को कृत संकल्प दिखाई दे रही है। कालिदास की तरह मूर्ख दिखाई पड़ रही है। जीवन के संसाधनों के दोहन और विकृतिकरण पर आमादा है। क्योंकि जीवन विज्ञान आधारित होता जा रहा है। विज्ञान में अधिदैव नहीं है, आत्मा नहीं है, प्राण नहीं है। उपकरण का आधार है जो स्वयं में निर्जीव होते हैं। अर्थ प्रधान होने से विज्ञान का प्रवाह अधोगामी रहता है। ईश्वर अंश को ढूंढकर पुन: ईश्वर तक पहुंचा देना किसी भी उपकरण की क्षमता के बाहर है।
आज का युवा भी तकनीक की चपेट में उपकरण बनता जा रहा है। शरीर ही उसका उपकरण है। जीवन, शरीर पर आश्रित है। आत्मा का भान ही नहीं है। सच तो यह है कि उसके मां-बाप को भी शरीर के आगे का पता नहीं है। शरीर-बुद्धि-मन ही उसके आत्मा रूप वाक्-प्राण-मन हैं। यह मन सदा सृष्टि की ओर ही गतिमान रहता है। मुक्तिसाक्षी मन भारत में कहीं-कहीं कार्यरत दिखाई दे सकता है। आज हमने भी मूल को छोड़कर नकल का दामन थाम लिया है। शिक्षा मानवता शून्य हो चुकी है। भिन्न-भिन्न देशों की सांस्कृतिक पहचान सिमट रही है। तकनीक के प्रवाह को नहीं रोक पा रहे। युवा स्वयं को इसमें प्रवाहित होने से भी नहीं रोक पा रहा। जीवन की दिव्यता इस अंधकार में डूबती जा रही है।
आज घर-घर की यही कहानी उभर कर सामने आ रही है। वसुधैव कुटुम्ब, टूटता-टूटता व्यक्ति पर आकर टिकने लगा है। विकसित देशों में समाज टूट चुके। कानून भी व्यक्तिवाचक बन रहे हैं। भारत का सांस्कृतिक धरातल अभी पूरी तरह लुप्त नहीं हुआ है। यहां तो विष्णु के दसवें अवतार-कल्की-की अभी प्रतीक्षा हो रही है। यही हमारे भविष्य की स्वर्णिम रेखा है। पेड़ पर पत्ते पीले नजर आने लगे हैं, किन्तु जड़ें अभी हरी हैं। क्योंकि यहां आज भी स्त्री पवित्र और दैविक सम्पदा मानी जाती है। विकसित-शिक्षित वर्ग की नारियों में स्वच्छन्दता के लिए अलग ही तड़प है। विदेशों में भी नारी ही परिवारों के विघटन का मूल रही है। यहां अभी उमाशंकर या लक्ष्मी नारायण में तलाक की संभावना नहीं है। जीवन आत्मा पर आधारित है, शरीर पर नहीं।
भारतीय दर्शन सृष्टि का उद्भव-पालन युगल तत्त्व से मानता है। पदार्थ और ऊर्जा के अभाव में सृष्टि असंभव है। युगल तत्त्व की अवधारणा के विच्छेद से ही ब्रह्म का विस्तार ठहर रहा है। नर-नारी नि:सन्तान रहना चाहते हैं, बन्धन मुक्त। दोनाें के मध्य पूरकता नहीं रही। अपनी-अपनी पहचान के लिए दोनों संघर्षरत हैं। आहार-निद्रा-भय-मैथुन के आगे सब कुछ शून्य, पशुवत, भयावह अंधकार! मानो शेरेंगेटी के जंगलों में जी रहे हों।
ब्रह्म निष्काम, निष्कर्म है। प्रकृति ही उसकी शक्तिरूप में कार्य करती है। ब्रह्म बीज है, नर है। माया नारी है, धरती है। यह सम्बन्ध उलट नहीं सकता। प्रकृति की व्यवस्था है, जिसमें ही हमारा भी जन्म होता है। पंचमहाभूतों से वही हमारा पोषण करती है। वही हमें नए शरीर में प्रतिष्ठित करती है। फिर हमारे दंभ का कारण? क्या हम जानते हैं कि स्थूल शरीर ग्रहण करने से पहले हमारे चार माता-पिता हो चुके होते हैं। सूर्य पर, अन्तरिक्ष (चन्द्रमा) पर, पृथ्वी पर और जठराग्नि में। कहीं भी हम स्वच्छन्द नहीं होते। प्रकृति की मर्यादा में रहते हैं।
हमारे ग्रन्थ हमें पुरुष-प्रकृति की सन्तान बताते हैं। हम ईश्वर अंश हैं, उसकी शक्तियों के साथ अवतरित होते हैं, ताकि आयुष्य पूरा होने पर पुन: उसी में जाकर समा सकें। नर-नारी दोनों समान आत्म रूप है। दोनों में बीज होने से पुरुष संस्था सत्य है। बीज में केन्द्र और परिधि रहते हैं। स्त्री सौम्या है, अग्नि में आहुत होती है। सोम ऋत है, निराकार। न केन्द्र, न परिधि। अत: उसे आधार रूप सत्य संस्था की आवश्यकता रहती है। स्वतंत्र सोम वायु की तरह रहता है। पात्र के अनुसार स्वरूप ग्रहण करता है। एक बार ही अग्नि में आहुत हो सकता है- सोम। वहीं उसका सम्पूर्ण अस्तित्व समा जाता है। यहां तक कि उसके प्राण (पिता से संयुक्त) भी पुरुष (अग्नि) में समा जाते हैं। नर-नारी दोनों ही शरीर नहीं हैं, आत्मा हैं। शरीरों में रहते हैं।
भौतिकवाद के साथ भौतिक देह भी आदान-प्रदान की मुद्रा बनते जा रहे हैं। दिव्यता समाप्त हो चुकी है। अब और कहां तक गिरने की संभावना है। भारत में तो नारी-शरीर को केक की तरह काटा जाने लगा है। विदेशों में नारी एक पुरुष के घर में प्रवेश करती है और कुछ काल के बाद ही बाहर भी आ जाती है। दूसरे- तीसरे घर में प्रवेश करती है, बाहर आती-जाती है। पुरुष घर नहीं छोड़ता। स्त्री बेघर की तरह या कामना की प्रधानता के कारण प्रवाहित रहती है। उसकी पहचान, जिसके लिए वह संघर्ष करती है, अन्त तक खो चुकी होती है। बूढ़ी-बीमारी की मारी-अकेली। अधिक से अधिक उसकी बेटी, जो स्वयं अकेली होती है, साथ आकर रहती है। नारी के सशक्तिकरण का विकसित उदाहरण है। पूर्णता ही मूल शक्ति है। शिक्षा ने यह ज्ञान छीन लिया। हमारी विवाह परम्परा इस पूर्णता का दस्तावेज है। कोई कानून, कोई सरकार स्वच्छन्द महिला को सुरक्षा नहीं दे सकते।