महिला सशक्तीकरण की मंजिल अभी है काफी दूर
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च को: हर जगह स्त्री हिंसा का शिकार होती है, चाहे वह गर्भ में हो, घर में हो, दफ्तर में हो या बस में
भारतीय स्त्री की दशा और भी दयनीय है, जहां हर घंटे औसतन चार स्त्रियां बलात्कार का शिकार हो रही हैं। हालात चिंताजनक और शर्मनाक हैं।
आठ मार्च और महिला दिवस के इस प्रतीकात्मक युग्म के एक सौ बीस से अधिक वर्ष बीत जाने पर भी, हर साल यह दिन अपनी प्रासंगिकता को अधिक गहरा करता है। समान वेतन, समान काम के घंटे और मताधिकार की मांग से शुरू होने वाला यह प्रतीक दिवस हर साल महिला सशक्तीकरण के लिए नवीन और अतिरिक्त प्रयास के लिए प्रेरित करता है। साथ ही यह दिन दुनिया के बनने-बनाने के क्रम में महिलाओं के योगदान और भागीदारी को रेखांकित करते हुए उनके होने मात्र का उत्सव भी मनाता है।
हर धर्म, प्रजाति, जाति, नस्ल सभी के उद्भव की कहानियों में दोयम दर्जे पर आने वाली महिला पर ही इनके शुचितावादी संरक्षण और विस्तारण का भार भी है। सजातीय विवाह और संतानोत्पत्ति के जरिए इन संस्थाओं को बनाए रखने के अलावा अपनी देह पर नियंत्रण के अधिकार से महिला को दूर रखा गया। आधुनिकता के विमर्श में पगे यूरोप को भी यह समझने में एक सदी से अधिक का समय लगा कि महिलाओं को भी पुरुषों के समान समझा जाना चाहिए। भारत ने अपनी आजादी के साथ ही सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के साथ किसी भी गैर-बराबरी को कम से कम सैद्धांतिक रूप से खारिज कर दिया।
किसी भी लोकतांत्रिक समाज में निर्णय की मेज पर पहुंचने वाले लोगों का वैविध्य ही उस लोकतंत्र की परिपक्वता माना जाता है। भारतीय लोकतंत्र की उच्चतम संस्थाओं में, लोकसभा एवं राज्यसभा में क्रमश: चौदह और दस प्रतिशत महिला सदस्य हैं। देश में महिला प्रधानमंत्री रह चुकी हैं। वर्तमान में राष्ट्रपति पद पर महिला आसीन है। इसके बावजूद भारतीय संसद में महिलाओं की भागीदारी कभी 15 प्रतिशत से अधिक का आंकड़ा पार नहीं कर पाई।
भारत में कुल चार हजार एक सौ बीस विधायकों में मात्र नौ प्रतिशत महिलाएं हैं। पंचायत चुनावों में आरक्षण ने धीरे-धीरे ‘महिलापति पंच’ के रिमोट से बाहर निकलने की सफल यात्रा की है, परंतु संसद में महिला आरक्षण पर होने वाली बहसों और असहमति ने इसे पुरुषवादी वर्चस्व से ही देखा है। दलित, श्वेत, आधुनिक, बाल-कटी और बड़ी बिंदीवाली जैसे विशेषणों ने महिला की संज्ञा को गौण कर दिया है। विशेषण संज्ञा पर हावी हो चले हैं और स्त्री विमर्श को परिभाषित करने लगे हैं। ये तमाम विभाजनकारी और गैर-बराबरी के विशेषण पुरुषों द्वारा पुरुषों की दुनिया के लिए रचे गए, परंतु स्त्री और स्त्री जीवन की सीमाओं को गढ़ने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं। स्त्रियां इन दमनकारी पाटों में सबसे ज्यादा पिसती है। स्त्री सशक्तीकरण की मुहिम भी स्त्री के लिए न होकर राष्ट्र या समाज की प्रगति से जुड़ी ज्यादा नजर आती है।
ये तमाम विशेषण केवल सामाजिक विभेदों से ही नहीं, वरन पूर्वग्रहों से भी पनपते हैं और यह पूर्वग्रह धरातल पर महिलाओं के प्रति अपराध में तब्दील होते हैं। स्त्रियों के प्रति हिंसा अब सांख्यिकी के दस्तावेज बन कर रह गई है। हर क्षण कोई न कोई स्त्री हिंसा का शिकार होती है, चाहे वह गर्भ में हो, गोद में हो, घर में, दफ्तर में, अस्पताल में हो, वयोवृद्ध हो, कामगार हो या फिर गृहिणी। मानसिक, शारीरिक और यौन हिंसा से अभिशप्त स्त्री अब भी किसी आंबेडकर की बाट जोह रही है। आधे आसमान और आधी धरती की हकदार है महिला, लेकिन हकीकत यह है कि दुनिया भर में तीन में से एक स्त्री यौन हिंसा का शिकार है।
भारतीय स्त्री की दशा और भी दयनीय है, जहां हर घंटे औसतन चार स्त्रियां बलात्कार का शिकार हो रही हैं। गत वर्ष भारत में लगभग 4 लाख 28 हजार प्राथमिकी महिलाओं के विरुद्ध हुए अपराधों के बाबत दर्ज र्हुइं। इनमें से लगभग 32 प्रतिशत एफआइआर घरेलू हिंसा-प्रताड़ना की थीं। इस आंकड़े पर भी गौर करेें कि सिर पर मैला ढोने वाले लोगों में 75 प्रतिशत महिलाएं हैं। ये आंकड़े इस बात का अंदाजा लगाने में अक्षम है कि इन महिलाओं का ‘निर्णय’ की मेज पर पहुंचने में, अथवा सड़क या घरों से संसद तक पहुंचने में और कितनी क्लारा जेटकिन और कितने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस लगेंगे।