किसी को भी तो रास नहीं आती स्थानीय सरकार
73वें और 74वें संविधान संशोधन के 30 साल: लोकतंत्र के प्रति गंभीरता की कमी से हो रही इन संशोधनों की अनदेखी …..
इन संशोधनों की 30वीं वर्षगांठ पर अर्जित वास्तविक उपलब्धियां सर्वाधिक निर्वाचित प्रतिनिधि, सर्वाधिक राजनीतिक स्वीकारोक्ति कार्यक्रम, सर्वाधिक ग्रामीण सभाएं हैं, जो लोकतंत्र के प्रति हमारा रुख ही बताती हैं।
सं विधान में 73वां व 74वां संशोधन पारित हुए तीस वर्ष हो गए हैं। भारतीय शासन व्यवस्था हमेशा जरूरत से ज्यादा केंद्रीकृत रही है। इसलिए इन संशोधनों के तहत विकेंद्रीकरण के लिए उठाए गए कदम किसी बाहरी दुनिया के लगते हैं। दरअसल, अधिनायकवादी केंद्रीकरण के दौर में समावेशी सरकारों के ढांचे बनाकर लोकतंत्र मजबूत बनाने का विचार कोरी कल्पना लगता है।
स्वतंत्रता के बाद से ही भारतीय लोकतंत्र में विकेंद्रीकरण को लेकर कभी कोई प्रतिबद्धता नहीं थी। राज्यों की सहमति के बावजूद विकेंद्रीकरण पर विरोधाभास जारी रहा। शुरुआत में माना गया कि स्थानीय शासकों की ताकत पर अंकुश के लिए केंद्रीकृत सत्ता की जरूरत पड़ेगी। यह तथ्य नकारा नहीं जा सकता कि हमने अंतत: जो हासिल किया, विकेंद्रीकरण के परिणाम उससे बदतर होते इसके साक्ष्य मुश्किल ही मिलते हैं। केंद्र व राज्य, दोनों सरकारों ने ज्यादा से ज्यादा संसाधन अपने पास रखने चाहे। नतीजा, संसाधनों का अनुपात देखें तो भारत में स्थानीय सरकारों पर होने वाला खर्च सबसे कम है।
गांधीवादी विकेंद्रीकरण की विचारधारा हमारे लिए पर्याप्त थी। इस परिकल्पना के तहत, विकेंद्रीकरण का तात्पर्य सत्ता और संसाधनों का हस्तांतरण नहीं था। इसका अर्थ ऐसी आदर्शवादी अवधारणा से है जो राजनीति से परे हो, सामान्य आदान-प्रदान व राजनीतिक स्पर्धा से मुक्त हो, जिसके तहत स्थानीय सरकारों के मानदंड अन्य सरकारों के मुकाबले उच्चतर हों। अन्यत्र हम पक्षवाद और स्पर्धा को राजनीति का केंद्र मान सकते हैं, पर कहीं न कहीं पंचायतों से हमने सर्वसम्मति का मंच बनने की उम्मीद की थी (कुछ राज्य सर्वसम्मति से चुनाव को प्रोत्साहन देते हैं)। कहना होगा कि इन वर्षों में विकेंद्रीकरण के लिए गंभीर मांग नदारद ही रही।
73वें व 74वें संशोधनों से काफी कुछ हासिल भी हुआ है। कुछ क्षेत्रों में राज्यों ने जमीनी स्तर पर विशिष्ट उपस्थिति दर्ज की, लाखों नागरिकों को प्रतिनिधियों के रूप में पहचान मिली, सत्ता में साझेदारी का रास्ता मिला, विचारशीलता को गुंजाइश मिली, जिससे नए मानक बने; खास तौर पर स्थानीय सरकारों में महिलाओं को भागीदारी मिली। धीरे-धीरे स्थानीय क्षमताएं बढ़ीं और कई तरह के कार्यकलापों की जिम्मेदारी स्थानीय सरकारों को मिली।
स्थानीय सरकार अक्सर रियायत की वस्तु रही: हम अब तक यही कहते-सुनते आए कि सरकार का निचला स्तर अक्षम है जबकि उच्च स्तर बेहतर। होता अक्सर विपरीत है: स्थानीय स्तर पर सरकार सक्षम होती है, बस इन्हें शीर्ष स्तर से पूरा सहयोग और निवेश नहीं मिलता। स्थानीय सरकारों ने जिन राजकोषीय संसाधनों का प्रबंधन किया, वे बड़े पैमाने पर सफल रहे।
कई राज्यों में स्थानीय राजनीतिक प्रतिस्पर्धा बढ़ती जा रही है और कुछ मामलों में स्थानीय चुनावों में राजनीतिक खर्च घृणित स्तर तक पहुंचा है, इसी तथ्य को जाहिर करता है कि स्थानीय शासन में क्या कुछ दांव पर लगा होता है। राज्यवार स्थानीय सरकारों के अनुभव अलग-अलग रहे हैं और केरल में यह अधिक कुशलता से चलाई जाने वाली संस्थागत इकाई है। पर विकेंद्रीकरण को लेकर उम्मीदें अभी आधी ही पूरी हो पाई हैं। स्थानीय सरकारों को राजनीतिक कारक न मानकर मात्र प्रशासनिक माध्यम मान लेने, नौकरशाही नियंत्रण एवं कम निवेश का दबाव, पंचायत में उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वालों को सही राजनीतिक मार्ग न मिलना जैसे कई कारण हैं, जो इनका महत्त्व कम करते हैं।
तकनीक दुधारी तलवार है। एक ओर यह स्थानीय क्षमता बढ़ा सकती है तो दूसरी ओर राजनीतिक नियंत्रण के लिए इसका व्यापक तौर पर इस्तेमाल हुआ है। नगरीय शासन पर स्पष्टता का अभाव व ठेकेदारी की राजनीतिक अर्थव्यवस्था द्वारा शहरों को हथिया लेने के कारण ‘शहरी सरकार’ उपहास बन कर रह गई है। स्थानीय सरकारों में कई तकनीकी, प्रशासनिक और वित्तीय सुधारों की जरूरत है। 73वें व 74वें संशोधन के बीच अंतर अब खत्म-सा हो गया है। जिस समय जयललिता मुख्यमंत्री थीं उन्होंने एकीकृत जिला स्तरीय स्थानीय सरकार की वकालत की, बजाय शहरी व ग्रामीण सरकार में अंतर करने के। ऐसे कई मसले हैं जिन पर चर्चा होनी चाहिए। लेकिन अब ऐसे मसले किसी और समय, किसी और देश के प्रतीत होते हैं।
विकेंद्रीकरण के पैरोकारों के समक्ष अब तीन असहज तथ्य हैं। पहला, उक्त संशोधन के बाद आए बदलावों के बावजूद क्या विकेंद्रीकरण की मांग ने जोर पकड़ा? कौन-सा ऐसा निर्वाचन क्षेत्र या अभियान है जो स्थानीय सरकार का समर्थन करता है, या कोई और अतिरिक्त सुधार लाने होंगे, जैसे कि 1993 में लाए गए और जरा से विरोध से हवा हो गए? और, अगर स्थानीय सरकारों के पास अधिकार हैं भी तो क्या वे इनका इस्तेमाल करने की इच्छुक हैं? दूसरा, विकेंद्रीकरण के पीछे मार्गदर्शक दर्शन था संस्थाओं में आस्था। ये संस्थाएं समावेशी विकास व सक्रिय नागरिकता का माध्यम मानी गई थीं। समावेशी शासन के बिना समावेशी विकास असंभव है, इसलिए यह मंत्र विफल रहा। सरकारें विकेंद्रीकरण, पारदर्शिता (आरटीआइ कानून), जनहित निर्णयों, स्थानीय इकाई व सक्रिय साझेदारी के साथ बेहतर सेवाएं दे सकती हैं। अंतत: उक्त संशोधनों की 30वीं वर्षगांठ पर अर्जित उपलब्धियां हैं — सर्वाधिक निर्वाचित प्रतिनिधि, सर्वाधिक राजनीतिक स्वीकारोक्ति कार्यक्रम, सर्वाधिक ग्रामीण सभाएं आदि। दरअसल, इन संशोधनों के प्रति गंभीरता का अभाव लोकतंत्र के प्रति गंभीरता का अभाव है।