ताकतवर, अमीर, सफल कम्पनियों के साथ-साथ सरकारी नीति की भी सबसे बड़ी विफलता भारत की ब्रांड विहीन आर्थिक वृद्धि है

अदाणी विवाद भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था के कुछ संबंधित पहलुओं की ओर भी हमारा ध्यान खींच रहा है। इनमें सबसे पहला है- विपक्ष का सरकार पर यह आरोप कि वह ‘क्रोनिज़्म’ चला रही है यानी अपने दोस्तों को फायदा पहुंचा रही है। इसे विस्तार से देखें तो इसके दायरे में कॉर्पोरेट इंडिया के चार-पांच टॉप लीडर भी आ जाएंगे। आप इस सूची में अम्बानी, टाटा, बिरला, वेदांता को शामिल कर सकते हैं। इनमें तीन बातें समान हैं।

पहली यह कि ये सब विरासत वाले या परिवारों के नियंत्रण वाले उपक्रम हैं। रिलायंस और बिरला पिछली पीढ़ियों द्वारा निर्मित साम्राज्य हैं। वेदांता और अदाणी पहली पीढ़ी के संस्थापकों वाले और सीधे उनके नियंत्रण में चलने वाले उपक्रम हैं। उनके प्रमुख व्यवसायों पर परिवार के कितने सदस्यों का नियंत्रण है, यह संख्या अलग-अलग है, जिसमें एक सिरे पर अदाणी हैं तो दूसरे सिरे पर टाटा हैं।

दूसरी बात यह है कि इन सबके अधिकांश व्यवसाय उन क्षेत्रों में हैं, जिन पर सरकार का साया बड़ा और निर्णायक है। ये ऐसे क्षेत्र हैं, जो नियमन की कड़ी व्यवस्था के अधीन हैं और अक्सर (खासकर अदाणी के मामले में) पारिभाषिक रूप से एकाधिकार वाले क्षेत्र हैं- चाहे मुम्बई हवाई अड्डा हो या बिजली वितरण का व्यवसाय या मुंद्रा बंदरगाह या बिजली खरीद समझौते के साथ विशाल बिजली उत्पादन के संयंत्र हों।

यह बात तेल शोधन और टेलीकॉम, खनन, तेल के कुओं के मामले में रियायत पर भी लागू होती है। इन सबके मामले में सरकार से सीधा और विस्तृत संवाद निर्णायक होता है। तीसरी, इनमें से कोई भी वास्तव में ग्लोबल इंडियन ब्रांड का मालिक नहीं है।

टाटा इस पर आपत्ति कर सकते हैं क्योंकि उनके पास ताज होटल है और अब एअर इंडिया भी उनके पास आ गया है। लेकिन विनम्रता के साथ कहूंगा कि ताज अभी भी ऐसा ब्रांड नहीं है, जो दुनिया को चकित कर दे। एअर इंडिया को पुरानी शान लौटाने के लिए बहुत कुछ करना पड़ेगा।

अदाणी की जो आलोचना हो रही है, उसकी बड़ी वजह सरकार से नजदीकियां है, खासकर इसलिए कि उनके प्रमुख व्यवसायों के लिए सरकार के साथ मिलकर काम करना बेहद अहम है। अगर भारत के समुद्र तट पर बंदरगाह चलाना ऐसा व्यवसाय है, जो पूरी तरह सरकार द्वारा नियंत्रित है, तो आप विदेश में भी बंदरगाह की परिसम्पत्तियां तब तक नहीं खरीद सकते, जब तक सरकार आपकी समर्थक न हो।

अब सवाल यह नहीं है कि यह सही है या गलत। बहस जब दो खेमों में बंटी हो तब इसे प्रायः ‘क्रोनिज़्म’ बताया जा सकता है। उदाहरण के लिए, कांंग्रेस कहती है कि सरकार ऐसी विदेश नीति चला रही है, जिससे उसके अपने दोस्त अदाणी को फायदा पहुंचे।

दूसरा पक्ष कह सकता है कि जब चीन आक्रामक रूप से पैर फैला रहा है तब विदेश में प्रतियोगिता में टिके रहने के लिए जरूरी है कि सरकार भारत के ताकतवर व्यावसायिक समूहों के साथ मिलकर काम करे। इसी तरह हवाई अड्डों, हाईवे, रेलवे, सुरंगों, मेट्रो के साथ वे तमाम चीजें शामिल हैं, जिनका भारत निर्माण कर रहा है।

इन सारे इन्फ्रास्ट्रक्चर के निर्माण के लिए आपको बड़ी थैली और बड़ी बैलेंसशीट वाली कम्पनियों की जरूरत पड़ेगी ही। क्या इसके लिए आप ‘बेकटेल’ का इंतजार करते बैठे रहेंगे या भारत के कम्पनी समूहों से यह करवाएंगे? कोई भी कम्पनी सरकार के साथ मिलकर काम किए बिना यह सब नहीं कर सकेगी।

यह सरकार-कॉर्पोरेट ‘सहयोग’ मोदी सरकार के आने से ही नहीं शुरू हुआ है। अदाणी ग्रुप को कई बड़े लाइसेंस, ठेके और पर्यावरण सम्बंधी मंजूरियां यूपीए सरकार के जमाने में ही दी गई थीं। वे कह सकते हैं कि यह सब उन्होंने बड़ी निष्पक्षता से जरूरी पूछताछ करके और प्रतिस्पर्द्धियों को समान अवसर देकर किया। लेकिन तथ्य यह है कि विकासशील अर्थव्यवस्था में- जिसमें इन्फ्रास्ट्राकचर के लिए बड़ी मांग होती है- ऐसे कई क्षेत्र होते हैं जिनमें निजी पूंजी और सरकार को साथ मिलकर काम करना ही पड़ता है।

हमने अदाणी के मामले की विस्तार से चर्चा की है, क्योंकि आज यह तमाम बहसों का मुद्दा बना हुआ है। ये सारे कम्पनी समूह अपना अधिकांश व्यवसाय भारत में, और ऐसे क्षेत्रों में कर रहे हैं जिनमें वे सरकारी छाया से बच नहीं सकते। उनकी अधिकांश कमाई घरेलू ही है। कुछ अपवाद भी हैं, जैसे टाटा का सॉफ्टवेयर व्यवसाय।

इसे बेहतर तरीके से समझने के लिए भारत के कमजोर पूर्वी समुद्र तट ढामरा बंदरगाह का उदाहरण ले सकते हैं। टाटा ने इसे भारी अड़चनों के बीच बनाया, खासकर पर्यावरणवादियों के विरोध के बावजूद जिनकी आवाज यूपीए में ज्यादा सुनी जाती थी। लेकिन इसे कानूनी मंजूरी यूपीए के काल में ही दी गई।

इसमें देर हुई क्योंकि पर्यावरण के प्रति प्रेम के बावजूद सरकार के आला नेता इतने समझदार थे कि उन्होंने पूरब में एक और कारगर बंदरगाह की जरूरत को समझा। पर ग्लोबल ब्रांड बना पाने में सुपर शक्तिशाली भारतीय कॉर्पोरेटों की नाकामी निराशाजनक है। दूसरे देशों, खासकर कारोबार जगत में कई भारतीय कम्पनियां ताकतवर ब्रांड के रूप में विख्यात हैं- टाटा, रिलायंस, वेदांता। और कम्पनी समूहों की कुछ कम्पनियां भी- जैसे टीसीएस, इन्फोसिस, विप्रो, एचसीएल। लेकिन किसी ने ऐसा प्रोडक्ट ब्रांड नहीं दिया है, जो दुनिया पर छा गया हो।

भारत के पास पूरी तरह देश में बनी कार, दोपहिया, कोई सॉफ्टवेयर या ऑपरेटिंग सिस्टम, कोई परफ्यूम या पेय तक नहीं है। हम तमाम तरह के उत्पादों के लिए ‘जीआई’ टैग इकट्ठा कर रहे हैं, लेकिन ऐसा कोई ब्रांड नहीं है, जो पूरी दुनिया की दुकानों में नजर आता हो।

चीन और कोरिया ने आधा दर्जन ब्रांड बना दिए
कॉर्पोरेट इंडिया कोई गारमेंट ब्रांड नहीं दे पाया है, और हमारे कारखाने जो बना और निर्यात कर रहे हैं, वे अंतरराष्ट्रीय स्टोर चेन्स के लेबल से बिक रहे हैं। बेशक यह बड़ी बात है कि भारत अब निर्यात के लिए खूब मोबाइल फोन बना रहा है, लेकिन कोई भारतीय नाम वाला ब्रांड नहीं है। दूसरी ओर, चीन और कोरिया वालों ने आधा दर्जन ब्रांड फैला दिए हैं, जो दुनिया के बाजारों में छाए हैं।

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