हमारी विविधता को भेदभाव बताने की साजिश चल रही है
ब्रिटिश शासन के दिनों में भारत से सम्बंधित संवाद को ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से नियंत्रित किया जाता था। अब उपनिवेशीकरण की यह योजना अमेरिकियों के हाथ में चली गई है, जिसमें हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रमुख भूमिका निभा रही है। इन प्रयासों की तेजी और स्तर में अमेरिकीपन स्पष्ट झलकता है।
वस्तुतः ईस्ट इंडिया कम्पनी एक नए अवतार में वापस आ गई है, जिसमें ऑक्सफोर्ड की जगह हार्वर्ड ने ले ली है। हार्वर्ड के कई विचार भारतीय सरकारी संगठनों और व्यवसायों में प्रवेश कर चुके हैं। भारतीय अरबपतियों द्वारा इस कार्य का वित्त-पोषण किया जा रहा है।
अमेरिकन आईवी लीगों के अंदर की कार्यप्रणालियां भारतीय विद्वानों और विद्यार्थियों को सम्मेलनों और सेमिनारों में ला रही हैं और हार्वर्ड में विकसित किए गए सिद्धांतों का समर्थन करने के लिए अनुदान और निधि दे रही हैं।
तत्पश्चात इन विद्वानों को भारत वापस भेजा जाता है और इनके द्वारा एक पूर्णतः नए इकोसिस्टम का निर्माण किया जाता है। यह विडम्बना ही है कि भारत के ही विद्वानों, निधियों और संसाधनों का उपयोग करके भारत को खोखला करने की कोशिशें की जा रही हैं।
यह इकोसिस्टम क्रिटिकल रेस थ्योरी (सीआरटी)- जो कि मार्क्सवाद पर आधारित है- पर टिका हुआ है। क्रिटिकल रेस थ्योरी के जानकार अधिकतर व्यक्ति इसे अमरीकी नस्लवाद का सामना करने के एक तरीके के रूप में देखते हैं। परंतु हार्वर्ड के कतिपय विद्वानों ने भारत के समाज, प्राचीन इतिहास और आधुनिक राष्ट्र पर इसका निरूपण किया है और इस नए रूप को क्रिटिकल कास्ट थ्योरी का नाम दिया है।
अब संरचनात्मक जातिवाद को भारत के सामने आ रही सभी प्रकार की सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक चुनौतियों के लिए जिम्मेदार बुनियादी समस्या के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त सामाजिक दुर्व्यवहार को समाप्त करने के लिए जो कड़ा रुख अपनाने के लिए कहा जा रहा है, वह यह है कि हिंदू धर्म को ही समाप्त करना होगा।
मार्क्सवाद का मानना है कि उत्पीड़कों द्वारा पीड़ितों के उत्पीड़न के लिए पूरे समाज की जानबूझकर ढांचागत व्यवस्था बनाई जाती है और उत्पीड़कों के पक्ष में असमान परिणाम आने का केवल यही कारण है। मेरी पुस्तक ‘स्नेक्स इन द गंगा’ में स्पष्ट किया गया है कि किस प्रकार उत्पीड़कों और उत्पीड़ितों को देखने के मार्क्सवादी दृष्टिकोण को वोकीज्म नाम से प्रचलित इस नई सामाजिक थ्योरी को तैयार करने में लागू किया जा रहा है।
सीआरटी समूह पहचानों के लिए नस्ल को चिह्नक (मार्कर) के रूप में उपयोग करता है और उन्हें उत्पीड़क/उत्पीड़ित की श्रेणियों में रखता है। भारत के मामले में, जाति और धार्मिक अल्पसंख्यक उत्पीड़क/उत्पीड़ित पहचानों के मार्कर हो जाते हैं।
उत्पीड़क/उत्पीड़ित समस्या का मार्क्सवादी समाधान यह है कि सभी विद्यमान ढांचों और संस्थाओं को ढहा दिया जाए। भारत के सम्बंध में, इसके कारण एक वैश्विक आवाज उठी है कि हिंदू धर्म और उस पर आधारित सभी ढांचों और संस्थाओं को नष्ट कर दिया जाए।
क्रिटिकल कास्ट थ्योरी के द्वारा भारतीय योग्यता पर भी प्रहार किया जा रहा है कि यह एक मुखौटा है, जो विशेषाधिकार और ढांचागत उत्पीड़न को छिपाता है। योग्यता को ब्राह्मण पितृसत्ता का परिणाम माना जा रहा है, जो विभिन्न समूहों के लिए असमान परिणाम उत्पन्न करता है। हार्वर्ड स्काॅलर आईआईटी में प्रयुक्त योग्यता के आधार पर प्रहार कर रहे हैं और उसे संस्थागत तथा ढांचागत जातिवाद मानते हैं।
इन थ्योरियों में परिणाम को प्रभावित करने वाले अन्य कारक, जैसे कड़ी मेहनत तथा व्यक्तिगत प्रतिभा को पूरी तरह अनदेखा किया जाता है। उनका समाधान यह है कि आईआईटी को उनके विद्यमान स्वरूप में पूरी तरह समाप्त कर दिया जाए। भारत में नई संस्थाओं की स्थापना के साथ-साथ विद्यमान संस्थाओं में उनकी घुसपैठ के साथ भारतीयों की एक पूरी पीढ़ी को गुमराह करने की कई पहलों के पीछे पश्चिम की बड़ी ताकत प्रतीत हो रही है।
पश्चिम द्वारा भारत की विविधता का दुरुपयोग किया जा रहा है और हमारी हर प्रकार की भिन्नता को व्यवस्थागत उत्पीड़न का नाम दिया जा रहा है। यह वोकीज्म और क्रिटिकल रेस थ्योरी के माध्यम से किया जा रहा है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)