क्यों खोती जा रही है ख्यातनाम विश्वविद्यालयों की पहचान ..!
क्यों खोती जा रही है ख्यातनाम विश्वविद्यालयों की पहचान …
शिक्षण संस्थानों की संख्या बढ़ाने के साथ गुणवत्ता भी जरूरी …
गत कुछ दशकों से भारत में केन्द्र तथा राज्य सरकारों ने उच्च शिक्षा के विस्तार पर काफी जोर दिया है। इसी कड़ी में वर्ष 2023-24 के लिए केन्द्र सरकार ने विश्वविद्यालयों तथा उच्च शिक्षा के संस्थानों के विकास तथा रख-रखाव के लिए 1.61 लाख करोड़ रुपए का प्रावधान किया है। देश में महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों की संख्या जिस तेजी से बढ़ रही है, उससे ऐसा लगता है कि बारहवीं के बाद जितने युवा आगे पढ़ना चाहते हैं, वे सभी अभियांत्रिकी, कम्प्यूटर शिक्षा, विज्ञान, कॉमर्स, समाज विज्ञान का अध्ययन करने में सक्षम हैं। देश में लाखों युवा आज विभिन्न विश्वविद्यालयों से डिग्री प्राप्त कर रहे हैं। सितम्बर 2022 तक विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के पास देश भर में हजारों विश्वविद्यालय पंजीकृत हो चुके थे। निजी विश्वविद्यालयों को मिलाकर इस समय भारत में 1860 विश्वविद्यालय थे। मुश्किल यह है कि विश्वविद्यालयों की संख्या पर ही जोर नजर आता है, गुणवत्ता पर नहीं। भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम ने एक बार कहा भी था कि भारत के महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय डिग्री तो बांटते हैं, लेकिन युवाओं को अपेक्षा के अनुसार ज्ञान नहीं दे पाते।
उच्च शिक्षा में संलग्न संस्थानों की गुणवत्ता परखने के लिए कई घटकों की आवश्यकता है। जैसे पढ़ाए जाने वाले विषय के लिए पर्याप्त सुविधाएं जैसे प्रयोगशाला, पुस्तकें, अध्यापन कक्ष, छात्रावास, कैंटीन उपलब्ध हैं या नहीं? विषयवार योग्य शिक्षक हैं या नहीं? नियमित रूप से कक्षाएं होती हैं या नहीं? प्रयोगशालाओं की क्षमता का पर्याप्त उपयोग हो रहा है या नहीं? किस प्रकार की तथा कितनी सुविधा शोध के लिए विद्यमान है? शोध के परिणामों का प्रकाशन किस स्तर की शोध पत्रिका में होता है? अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शोध-लेखों का किस रूप में उल्लेख किया जा रहा है? व्यवसाय व उद्योग जगत में संस्था के डिग्रीधारियों की कितनी ख्याति है? कुल मिलाकर संस्थाओं के विषय में विश्वभर में क्या सोचा जा रहा है? संस्था से डिग्री प्राप्त करने वाले युवा व्यवसाय-उद्योग जगत में कितने महत्त्वपूर्ण साबित हो रहे हैं? विडंबना यह भी है कि इतनी बड़ी संख्या में निजी तथा सरकारी विश्वविद्यालय होने पर भी लाखों विद्यार्थी इनमें प्रवेश नहीं ले पाते तथा विवश होकर अन्यत्र समय बिताते हैं। ऐसे भी महाविद्यालय भारत में हैं, जो जुगाड़ करके किसी विश्वविद्यालय से सम्बद्ध तो हो जाते हैं, लेकिन इनमें न शिक्षा देने के लिए कमरे हैं और न ही योग्य फैकल्टी। ऐसे में उच्च गुणवत्ता वाले शोध के लिए कोई संभावना भी नहीं होती। इसी संदर्भ में यह बताना भी प्रासंगिक होगा कि ‘शोध-पत्रों’ के प्रकाशन के लिए पूरे देश में जर्नलों की बाढ़ आ गई है, जिनमें प्रकाशित शोध-पत्रों की गुणवत्ता भी संदेहास्पद रहती है। इसी कारण अधिकांश शोध-पत्रों के अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उद्धरण की बात करना भी निरर्थक है। सबसे बड़ी बात यह है कि हमारी नवीन शिक्षा नीति में उच्च शिक्षा से सम्बद्ध विश्वविद्यालयों, संस्थानों तथा महाविद्यालयों की गुणवत्ता के लिए अपेक्षित मापदण्ड ही नहीं दिए गए।
इन सबके बावजूद भारतीय विज्ञान केन्द्र बेंगलूरु, आइआइएम, आइआइटी तथा कुछ अन्य संस्थानों ने उच्च शिक्षा के विशिष्ट क्षेत्रों में भारत भर में ही नहीं, अपितु एशिया में भी अपनी पहचान बनाई है। यह सही है कि एम.आइ टी. (अमरीका) के स्तर तक ये संस्थाएं नहीं पहुंच पाई हैं, फिर भी भारत के व्यवसाय तथा उद्योग जगत में इनकी ख्याति बहुत अधिक है। इसके बावजूद इन संस्थाओं को अपनी शोध गुणवत्ता अन्तरराष्ट्रीय स्तर तक बढ़ानी होगी। वाणिज्य, सामाजिक विज्ञान, प्रबन्ध, मानव-शास्त्र तथा प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्रों में कार्यरत उच्च-शिक्षण संस्थाओं तथा विश्वविद्यालयों को वैश्विक स्तर तक लाने के लिए काफी प्रयास करने होंगे। यह देखना जरूरी है कि जो विश्वविद्यालय तथा महाविद्यालय कुछ दशकों पूर्व देश-विदेश में काफी ख्याति प्राप्त थे, आज क्यों पिछड़ गए हैं? अब हमें उच्च शिक्षा से सम्बद्ध विश्वविद्यालयों, संस्थानों तथा महाविद्यालयों की संख्या में वृद्धि करने के साथ ही अध्यापन की गुणवत्ता तथा सार्थक शोध पर ध्यान देना होगा।