सबको स्वास्थ्य का सपना और हकीकत

सवाल है कि जनस्वास्थ्य की इतनी महत्ता और जरूरत के बावजूद भारत में इसकी उपेक्षा के मुख्य कारण क्या हैं? सरकार किसी भी दल की हो, जनस्वास्थ्य की हालत एक जैसी ही है ..

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) की 30वीं विश्व स्वास्थ्य सभा ने सन् 1977 में सत्रह दिनों की (2-19 मई 1977) मैराथन बैठक के बाद ‘सन् 2000 तक सबको स्वास्थ्य’ का संकल्प स्वीकार किया था। दुनिया भर में इस घोषणा और पहल की सराहना हुई थी। इस बैठक में 194 सदस्य देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। लक्ष्य के 23 वर्षों के बावजूद ‘सन् 2000 तक सब को स्वास्थ्य’ का नारा जुमला सिद्ध हुआ। इस दौरान सरकारों की पहल और स्वास्थ्य संबंधी कार्यक्रमों को देख कर जन स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं ने स्थिति का अंदाजा लगा लिया था और ‘लोगों के स्वास्थ्य के अधिकार’ की गारंटी की मांग उठने लगी थी। ‘सबके लिए स्वास्थ्य’ के संकल्प के प्रति तब सरकारें कितनी गंभीर थीं, इसका अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि तब सरकार स्वास्थ्य पर कुल बजट का 1% भी खर्च नहीं कर पा रही थी। स्पष्ट है कि संकल्प था, घोषणा थी, पर स्वास्थ्य प्राथमिकता में नहीं था। फिर सन् 2000 से 2015 तक ‘मिलेनियम डवलपमेंट गोल’ की घोषणा कर दी गई। यह समय भी बीत गया। कुछ खास नहीं हुआ। फिर सन् 2015 से 2030 तक के लिए ‘सस्टेनेबल डवलपमेंट गोल’ का लक्ष्य तय कर दिया गया।

वर्ष 2023 के विश्व स्वास्थ्य दिवस (7 अप्रेल) की थीम डब्ल्यूएचओ ने एक बार फिर ‘सब के लिए स्वास्थ्य’ तय की है। व्यवहार में थीम तय करने की कवायद लोगों को नाउम्मीद न होने देने के लिए जरूरी है। भारत सरकार के नीति आयोग ने 27 दिसंबर 2021 को राज्य स्वास्थ्य सूचकांक का जो चौथा संस्करण जारी किया था, उसके अनुसार सर्वाधिक आबादी वाला उत्तरप्रदेश (30.57 अंक के साथ) सबसे निचले पायदान पर है, जबकि केरल (82.2 अंक के साथ) सबसे ऊपर। उत्तर व मध्य भारत के कई राज्यों का इंडेक्स स्कोर 50 से कम ही है। यह तथ्य बड़ा सवाल छोड़ता है कि स्वास्थ्य सूचकांक की यह दशा ‘सबके लिए स्वास्थ्य’ के नारे को यथार्थ में कैसे बदल पाएगी। बिना मजबूत स्वास्थ्य प्रणाली के जन-जन तक स्वास्थ्य को पहुंचाना भला कैसे संभव होगा? हमारे देश में स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दे कभी आर्थिक सुधारों के केन्द्र में नहीं रहे, जबकि विभिन्न संक्रामक रोगों के कारकों में आर्थिक स्थिति की भूमिका और आर्थिक नीति का जनस्वास्थ्य पर असर स्पष्ट है। भारत ने 1978 में ‘अल्मा-अता घोषणा पत्र’ पर हस्ताक्षर कर ‘वर्ष 2000 तक सबके लिए स्वास्थ्य’ लक्ष्य पाने की प्रतिबद्धता जताई थी। (कजाकिस्तान के सबसे बड़े शहर अल्माटी का नाम ही पहले अल्मा-अता था।) 1981 में इंडियन काउंसिल फॉर सोशल साइंस रिसर्च तथा इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च के संयुक्त पैनल ने ‘सबके लिए स्वास्थ्य — एक वैकल्पिक राजनीति’ शीर्षक से एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की थी।

1983 में भारतीय संसद ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति को पारित कर इस लक्ष्य को प्राप्त करने का संकल्प लिया था, पर आज तक इस नीति पर न तो अमल हुआ है और न ही किसी भी राजनीतिक दल के मुख्य एजेंडे में यह मुद्दा शामिल हुआ। यह वैश्विक आपदा का दौर है। एक ओर नागरिक सरकारों से व्यापक पहल की उम्मीद रखते हैं तो सरकारें सम्पन्न और बाजार को अहमियत देने वाले देशों की मात्र नकल कर रही हैं। 1990 के बाद से स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण की प्रक्रिया तेज होने के कारण आम लोगों के लिए सर्वसुलभ व सस्ती स्वास्थ्य सेवाओं का सपना अधूरा ही है। जब स्वास्थ्य सेवाएं कंपनियों के मुनाफे का जरिया हों तब यह कैसे भरोसा करें कि ‘सब को स्वास्थ्य’ का सपना साकार हो पाएगा? बीते वर्ष जब कोरोना महामारी जानलेवा तांडव मचा रही थी तब कौन क्या कर रहा था इसे लोग भूले नहीं हैं।

सवाल है कि जनस्वास्थ्य की इतनी महत्ता और जरूरत के बावजूद भारत में इसकी उपेक्षा के मुख्य कारण क्या हैं? सरकार चाहे किसी भी राजनीतिक दल की हो, जनस्वास्थ्य की हालत एक जैसी ही है। देश में ‘सबको स्वास्थ्य’ के संकल्प के बावजूद गत दो दशक में हम देश में स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे को भी खड़ा नहीं कर पाए हैं।

आम आदमी की सेहत को प्रभावित करने वाले रोग टीबी, मलेरिया, कालाजार, मस्तिष्क ज्वर, हैजा, दमा, कैंसर आदि को रोक पाना तो दूर, हम इसे नियंत्रित भी नहीं कर पाए। उल्टे जीवनशैली के बिगाड़ और अनुशासनहीनता से उपजे रोगों को महामारी बनने तक पनपने दिया। अब स्थिति यह है कि अमीरों और गरीबों के लिए रोगों की दो अलग-अलग श्रेणियां बना दी गई हैं। हम क्यों यह भूल गए हैं कि जनस्वास्थ्य की पहली शर्त ही है रोग से बचाव? इसमें जाति, धर्म और नस्ल तलाशने की बजाय यदि समाज और सरकारें व्यापक बचाव की राह पर बढ़ते और इसके समग्र पहलुओं पर विचार करते तो स्थितियां आज कुछ और होतीं।

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