हमारे इतिहासकार और शिक्षाविद् एक सच्चे नैरेटिव का निर्माण करने में नाकाम रहे हैं

क्या इतिहास की पुस्तकों में रद्दोबदल किया जाना चाहिए? क्या शहरों के नाम बदले जाने चाहिए? इन सवालों का जवाब इस पर निर्भर करता है कि क्या इतिहास की मूल पुस्तकों में ही तथ्यों को तोड़-मरोड़कर नहीं पेश किया गया था और क्या कुछ शहरों के नाम जनसंहार व लूट का महिमामंडन करने वाले नहीं प्रतीत होते हैं?

एनसीईआरटी एक स्वायत्त संस्था है, जो शिक्षा मंत्रालय के तहत काम करती है। इन दिनों इस बात के लिए उसकी आलोचना की जा रही है कि उसने 12वीं कक्षा के विद्यार्थियों की पाठ्यपुस्तकों से मुगल दरबार सम्बंधी अध्यायों को हटा दिया। पूर्व शिक्षा मंत्री कपिल सिब्बल इससे बहुत गुस्साए।

उन्होंने कहा कि भारत के इतिहास से मुगलों के ‘योगदान’ को काटा-छांटा जा रहा है। इसके प्रत्युत्तर में एनसीईआरटी के निदेशक दिनेश प्रसाद सकलानी ने कहा कि यह झूठ है। मुगलों से सम्बंधित कोई चैप्टर्स हटाए नहीं गए हैं। पाठ्यपुस्तकों को नई शिक्षा नीति के अनुसार 2024 में फिर से छापा जाना है।

देश में जनमत पहले ही बहुत विभाजित था, इस विवाद से वह और ध्रुवीकृत हुआ है। अलबत्ता शहरों के नाम बदलना हमारे यहां कोई नई बात नहीं है। चार मेट्रो शहरों में से तीन के पुराने नाम बदले गए हैं- मुम्बई, चेन्नई और कोलकाता। ऐसा उनके स्थानीय नामों को महत्व देने के लिए किया गया।

हाल में महाराष्ट्र के उस्मानाबाद का नाम बदलकर धराशिव और औरंगाबाद का नाम बदलकर छत्रपति सम्भाजीनगर किया गया। इन दोनों नामकरणों को बॉम्बे हाईकोर्ट में चुनौती दी गई है और आगामी 20 और 21 अप्रैल को इन पर सुनवाई होगी।

याचिकाकर्ताओं का कहना है कि नामकरण का विचार उद्धव ठाकरे सरकार का था और इसे एकनाथ शिंदे की सरकार द्वारा अमल में लाया गया। ऐसा हिंदुओं व मुसलमानों के बीच साम्प्रदायिक तनाव पैदा कर उसका राजनीतिक फायदा उठाने के लिए किया गया है।

इसके जवाब में शिंदे-फडणवीस सरकार ने बॉम्बे हाईकोर्ट में शपथ-पत्र दायर करते हुए कहा है कि अधिकतर नागरिकों ने बदलाव का स्वागत किया है। स्थानीय प्रशासन के द्वारा कराए एक सर्वेक्षण से पता चला कि 4 लाख लोगों ने नए नामकरण का स्वागत किया है, जबकि 2.7 लाख इसके विरोध में थे।

बीते वर्षों में अनेक छोटे शहरों के नाम बदले गए हैं, जिन पर इतना विवाद नहीं हुआ। इनमें इलाहाबाद (अब प्रयागराज), होशंगाबाद (अब नर्मदापुरम), खिजराबाद (अब प्रतापनगर) और मियां का बाड़ा (अब महेशनगर हॉल्ट) शामिल हैं।

मुगलसराय और हबीबगंज रेलवे स्टेशनों और दिल्ली के मुगल गार्डन के नाम भी बदले गए हैं। लेकिन भविष्य में यह इतना आसान नहीं होगा। जस्टिस जोसेफ और नागरत्न की एक सुप्रीम कोर्ट बेंच ने प्राचीन भारतीय ग्रंथों के आधार पर शहरों के नाम बदलने की एक याचिका को खारिज कर दिया है।

जस्टिस जोसेफ ने कहा कि हिंदू धर्म की आध्यात्मिक परम्परा महान है और कोई भी वेद, उपनिषदों, गीता की ऊंचाइयों को छू नहीं सकता। हम उसे छोटा न बनाएं और अपनी महानता को जानकर भी उदार बने रहें। संसार अतीत में भारत की ओर सम्मान से देखता था और आज भी देखता है। मैं ईसाई होने के बावजूद हिंदू धर्म का बड़ा प्रशंसक हूं।

इस पूरे विवाद से एक परिप्रेक्ष्य उभरकर सामने आता है। वो यह है कि भारतीय सेकुलरिज्म के वास्तविक अर्थों को वोट बैंक की राजनीति वाले अल्पसंख्यकवाद की संतुष्टि के लिए दशकों तक ताक पर रखा जाता रहा है। अब बहुसंख्यक समुदाय के द्वारा इसके विरोध में प्रतिक्रिया की जा रही है, जिससे ध्रुवीकरण की स्थिति निर्मित हुई है। इससे जो साम्प्रदायिक विघटन की स्थिति बनी है, उससे दोनों विचारधाराओं के नेताओं को लाभ मिलता है।

भारत दुनिया का इकलौता ऐसा देश होगा, जो सदियों तक अपने को गुलाम बनाकर लूटने वालों और अपने लोगों का कत्ल करने वालों का महिमामंडन करता है। क्या भारत के राष्ट्रीय-चरित्र में ही कोई गड़बड़ है, जिससे वह ऐसी आत्महीनता का प्रदर्शन करता है?

इतिहास विजेताओं द्वारा लिखा जाता है। लेकिन भारत में इतिहास-लेखन उन लोगों के द्वारा किया जाता रहा है, जो किन्हीं शासकों के विजय-अभियानों के नैरेटिव को सदियों बाद भी प्रश्रय देते हैं। यह एक बौद्धिक दोष है, क्योंकि हमारे इतिहासकार और शिक्षाविद् एक ऐसे सच्चे कथानक का निर्माण करने में नाकाम रहे हैं, जो हमें अपने विभाजित अतीत का एक सही-सही चित्र हमें दिखलाता हो।

सेकुलरिज्म का वोट बैंक की राजनीति के लिए दशकों तक दुरुपयोग किया जाता रहा है। अब बहुसंख्यक समुदाय द्वारा इसके विरोध में प्रतिक्रिया की जा रही है, जिससे ध्रुवीकरण की स्थिति बनी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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