आनंद मोहन : DM को मरवाया; नीतीश सरकार में जेल और उसी सरकार में रिहा
आनंद मोहन, पहला नेता जिसे मौत की सजा मिली थी ..!
बिहार के बाहुबली नेता और पूर्व सांसद आनंद मोहन जेल से आज रिहा हो गए। वो गोपालगंज के DM रहे जी कृष्णैया की हत्या में उम्रकैद की सजा काट रहे थे। 10 दिन पहले ही बिहार की नीतीश सरकार ने जेल रूल्स में एक बदलाव किया, जिसके बाद आनंद मोहन की रिहाई का रास्ता साफ हो सका।
कौन है आनंद मोहन सिंह, जिसे रिहा कराने के लिए नीतीश सरकार ने जेल रूल्स में बदलाव तक कर डाला। BJP भी इस फैसले का समर्थन करती क्यों दिख रही है?
जाति और दबंगई के सहारे राजनीति में एंट्री
बिहार के सहरसा जिले में एक गांव पड़ता है। नाम है पनगछिया। इस गांव में 26 जनवरी 1956 को आनंद मोहन का जन्म हुआ। उसके दादा राम बहादुर सिंह स्वतंत्रता सेनानी थे। 17 साल का था, तब बिहार में जेपी आंदोलन शुरू हुआ और यहीं से उसके राजनीतिक करियर की शुरुआत भी। कहते हैं कि बिहार की राजनीति दो चीजों पर चलती है- जाति और दबंगई। उसने इन दोनों का ही सहारा लेकर राजनीति में कदम रखा।
1978 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के एक भाषण के दौरान आनंद मोहन ने काले झंडे दिखाए थे। साल 1979-80 में कोसी रीजन में यादवों के खिलाफ मोर्चा खोलकर वो लाइमलाइट में आ गया। इसके साथ ही पहली बार उनका नाम गैर कानूनी गतिविधियों में पुलिस रिकॉर्ड में दर्ज हुआ।
अपनी जातिगत राजनीति को आगे ले जाने के लिए साल 1980 में आनंद मोहन सिंह ने समाजवादी क्रांति सेना का गठन किया। इसका मकसद था निचली जातियों के उत्थान का विरोध करना। उस समय आनंद अगड़ी जातियों के नेता बनता जा रहा था।
इस दौरान उसकी राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव की गैंग के साथ भी काफी अनबन चल रही थी। कहा जाता है कि उस वक्त कोसी के इलाके में गृह युद्ध जैसे हालात हुआ करते थे। 1990 के विधानसभा चुनाव में आनंद मोहन जनता दल के टिकट पर महिषी से चुनाव लड़ा और कांग्रेस के लहतान चौधरी को 62 हजार से ज्यादा वोट से हराया।
लालू आरक्षण समर्थक थे, आनंद मोहन विरोधी
ये वो समय था जब देश में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू की गई थीं। इन सिफारिशों में सबसे अहम बात थी सरकारी नौकरियों में OBC को 27% का आरक्षण देना। जनता दल ने भी इसका समर्थन किया, लेकिन आनंद मोहन ठहरे आरक्षण विरोधी। उसने 1993 में जनता दल से अलग होकर अपनी पार्टी बनाई, जिसका नाम ‘बिहार पीपुल्स पार्टी’ यानी BPP रखा। बाद में समता पार्टी से हाथ मिला लिया।
पहले नेता जिसे मौत की सजा मिली थी
जिस समय आनंद मोहन ने अपनी चुनावी राजनीति शुरू की, उसी समय बिहार के मुजफ्फरपुर में एक नेता हुआ करते थे छोटन शुक्ला। आनंद मोहन और छोटन शुक्ला की दोस्ती काफी गहरी थी।
1994 में छोटन शुक्ला की हत्या हो गई। छोटन शुक्ला की अंतिम यात्रा के बीच से एक लालबत्ती की गाड़ी गुजर रही थी, जिसमें उस समय के गोपालगंज के DM जी कृष्णैया सवार थे।
लालबत्ती की गाड़ी देख आनंद मोहन ने भीड़ को बरगलाया और भड़की भीड़ ने जी कृष्णैया को पीट-पीटकर मार डाला। जी कृष्णैया की हत्या का आरोप आनंद मोहन पर लगा। इसके बावजूद आनंद मोहन का कद बढ़ता रहा।
2005 में BJP से गठबंधन करके नीतीश कुमार दूसरी बार बिहार के CM बने। उन्होंने आनंद मोहन मामले पर फोकस किया और 2007 में निचली अदालत ने उन्हें मौत की सजा सुना दी। आनंद मोहन देश के पहले पूर्व सांसद और पूर्व विधायक हैं, जिन्हें मौत की सजा मिली थी।
हालांकि, पटना हाईकोर्ट ने दिसंबर 2008 में मौत की सजा को उम्रकैद में बदल दिया। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी जुलाई 2012 में पटना हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा। तब से आनंद मोहन जेल में ही था।
जेल से चुनाव जीतता रहा
1996 में लोकसभा चुनाव हुए। उस वक्त आनंद मोहन जेल में था। जेल से ही उसने समता पार्टी के टिकट पर शिवहर से चुनाव लड़ा और जनता दल के रामचंद्र पूर्वे को 40 हजार से ज्यादा वोटों से हराया। 1998 में फिर शिवहर से लोकसभा चुनाव लड़ा, लेकिन इस बार राष्ट्रीय जनता पार्टी के टिकट पर। ये चुनाव भी जीत लिया। 1999 और 2004 के लोकसभा चुनाव में भी आनंद मोहन खड़ा हुआ, लेकिन हार गया। इसके बाद दोषी साबित हो गया और चुनाव लड़ने पर रोक लग गई।
खुद तो राजनीति में था, पत्नी-बेटे भी आ गए
आनंद मोहन ने 13 मार्च 1991 को लवली सिंह से शादी की। लवली स्वतंत्रता सेनानी माणिक प्रसाद सिंह की बेटी हैं। शादी के तीन साल बाद 1994 में लवली आनंद की राजनीति में एंट्री उपचुनाव से हुई। 1994 में वैशाली लोकसभा सीट पर उपचुनाव हुए, जिसमें लवली आनंद यहां से जीतकर पहली बार संसद पहुंचीं।
बिहार में लवली आनंद को लोग भाभीजी कहकर बुलाते हैं। लोग बताते हैं कि जब भाभीजी रैली करने आती थीं, तो लाखों की भीड़ इकट्ठा होती थी। इतनी भीड़ तो आनंद मोहन की रैलियों में भी नहीं आती थी।
बिहार की राजनीति को करीब से देखने वालों का कहना है कि लवली आनंद की रैलियों में भीड़ देखकर उस समय लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार सरीखे नेता भी दंग रह जाते थे। हालांकि, लवली आनंद की रैलियों में आने वाली भीड़ वोटों में तब्दील नहीं हो पाती थी। जब वोटिंग होती थी, तो लवली आनंद की हार ही होती थी।
आनंद मोहन सिंह के बेटे चेतन आनंद ने 2015 में अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत की। वो जीतन राम मांझी की पार्टी हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा के स्टूडेंट विंग के अध्यक्ष बने। 2020 में उन्होंने आरजेडी ज्वॉइन कर ली और शिवहर से विधानसभा चुनाव लड़ा। चेतन ने अपना पहला ही चुनाव जीत लिया और विधायक बन गए।
आनंद मोहन को जेल से निकालने के लिए नियमों में बदलाव
जनवरी में नीतीश कुमार ने एक पार्टी इवेंट में मंच से कहा था कि वो आनंद मोहन को बाहर लाने की कोशिश कर रहे हैं। जिसके बाद आनंद का नाम फिर से अखबारों की सुर्खियां बना। हालांकि, उसकी रिहाई में कानून आड़े आ रहा था। बिहार सरकार ने 10 अप्रैल को कानून में संशोधन कर उस अड़चन को भी दूर कर दिया।
नीतीश सरकार ने बिहार जेल मैनुअल, 2012 के नियम 484 (1) में बदलाव किया। इस नियम में लिखा है कि कुछ खास क्राइम वाले कैदियों की समय से पहले रिहाई नहीं हो सकती।
सरकार ने इसमें से सिर्फ 5 शब्द हटाए- a civil servant on duty यानी ऑन ड्यूटी सरकारी कर्मचारी की हत्या वाली धारा हटा दी, क्योंकि आनंद मोहन इसी के तहत दोषी थे। नियमों में इस बदलाव की वजह से आनंद मोहन के अलावा 26 अन्य कैदी भी समय से पहले रिहा हो सकते हैं।
2024 चुनाव से पहले नीतीश कुमार का आनंद मोहन दांव
बिहार में राजपूत एक प्रभावशाली जाति है। राजपूतों की आबादी बिहार में करीब 8% है। राज्य की करीब 30 विधानसभा सीटों और 8 लोकसभा सीटों पर राजपूत हार या जीत में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में BJP ने 5 राजपूतों को टिकट दिया था और ये सभी जीतकर लोकसभा पहुंचे थे।
JDU और RJD सवर्ण जातियों तक पहुंच बनाकर अपने OBC केंद्रित वोटर बेस को बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। आनंद मोहन सिंह इसका जरिया हैं।
बिहार में राजपूत वोटों के समीकरण की वजह से आनंद मोहन की रिहाई पर BJP ने खामोशी अख्तियार कर ली है उनके पक्ष में खड़ी है। देखना दिलचस्प होगा कि 2024 चुनाव से पहले नीतीश सरकार का ये दांव कितना कारगर साबित होगा।