बच्चों की हार या जीत से ही हमें उनको नहीं तौलना चाहिए … ?

बच्चों की हार या जीत से ही हमें उनको नहीं तौलना चाहिए …

आज जिस माहौल में हम रहते हैं, वहां जीतना ही सबकुछ हो गया है। किसी भी युवा या बच्चे के लिए मानो हार शब्द बना ही नहीं है। उसकी हार को न उसके माता पिता स्वीकार कर पाते हैं और न ही समाज। ऐसे में परिणाम गम्भीर होते हैं- निराशा, तनाव और आत्महत्या। जीवन और मृत्यु के बीच इंसान ने हमेशा जीवन को चुना है।

लेकिन अगर युवाओं का देश अपने युवाओं को किसी भी कारण से आत्महत्या करते पाता है तो सभी के लिए यह दु:ख का विषय है। अगर हम एक सरकारी आंकड़े पर गौर करें तो पाएंगे कि पिछले पांच वर्षों में आईआईटी में 33 छात्रों ने आत्महत्या की है। अगर हम एनआईटी और आईआईएम को भी इसमें शामिल कर लें तो यह संख्या इस अवधि में 61 तक पहुंच गई है।

एक आरटीआई के जवाब से पता चला है कि पिछले 5 वर्षों में 64 एमबीबीएस और 55 स्नातकोत्तर छात्रों ने आत्महत्या कर ली है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट 2021 ने भी यह दिखाया है कि 2016 से 2021 तक पिछले पांच वर्षों में भारत में छात्र-आत्महत्याओं की संख्या में 27% की वृद्धि हुई है। अगर दुनिया के स्तर पर डब्ल्यूएचओ के आंकड़े देखें तो आत्महत्या के कारण हर साल सात लाख से अधिक लोग मर जाते हैं और इसमें 15-29 वर्ष के बच्चों में मृत्यु का चौथा प्रमुख कारण आत्महत्या ही है।

मौजूदा समय में देश की जनसंख्या की औसत आयु करीब 28.2 वर्ष है। वहीं अगर हम चीन की बात करें तो वहां औसतन आयु 39 साल है। चीन के मुकाबले भारतीय युवा 10 साल छोटे हैं। लेकिन इतनी बड़ी जनसंख्या वाले देश में युवाओं के लिए दिनों-दिन प्रतियोगिता बढ़ती जाएगी, जो उनके लिए बहुत मुश्किलें खड़ी करेगी। कुछ सफल होंगे तो बहुत बड़ी संख्या असफल जनता की भी होगी। सरकार इंजीनियरिंग की सीटें बढ़ाए या मेडिकल कॉलेज की संख्या, बढ़ती जनसंख्या के बीच अपनी गुणवत्ता को बनाते हुए जीवन में सफलता पाना एक चुनौती होगी। तो फिर किया क्या जाए?

इसके पहले यह भी जानना जरूरी है कि निराशा सभी को घेरती है। बड़े से बड़े चैंपियंस को भी। इनमे से कुछ आत्महत्या के बारे में भी सोच लेते हैं; जैसा कि तैराक माइकल फेल्प्स ने शिकागो में हुए एक मानसिक स्वास्थ्य सम्मेलन में अवसाद के साथ व्यक्तिगत मुठभेड़ की कहानी साझा करते हुए बताया था, ‘सबसे कठिन वक्त 2012 ओलिम्पिक के बाद का था। मैं अब खेल में नहीं रहना चाहता था… मैं अब जीवित नहीं रहना चाहता था!’ निराशा और मेंटल हेल्थ को लेकर भारत में भी सेलिब्रेटीज़ ने अपनी बात रखी है।

यानी निराश कोई भी कभी भी हो सकता है। ऐसे में इंसान को अंदर से मजबूत होने की जरूरत तो है ही, सबसे बड़ा साथ परिवार का भी होना चाहिए। बच्चों को हम सिर्फ प्रतियोगी ही न देखें, बल्कि भावपूर्ण इंसान भी समझें। उनकी हार या जीत से ही हमें उनको नहीं तौलना चाहिए। उनको सुनने और समझने की कोशिश जारी रखें और उनको मजबूत बनाने से पहले खुद मजबूत बनें।

हमारे बच्चे जीतते हैं तो दुनिया ताली बजाती नजर आती है लेकिन जब वो हारते हैं तो मां-बाप को एक पेड़ की भांति अपने बच्चों को छाया देनी चाहिए। उनकी अनकही बातों को पढ़ना और सुनना चाहिए।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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