भारत के लोग लोकतंत्र के अभ्यस्त हो चुके हैं और वे प्रेस की आजादी को महत्व देते हैं
एक बात तो साफ है, भारत के लोग बीते सात दशकों में लोकतंत्र के अभ्यस्त हो चुके हैं और वे प्रेस की आजादी को महत्व देते हैं। वे सरकारी प्रोपगंडा और तटस्थ समाचार के बीच के भेद को भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जानते हैं। यह कोई आज की बात नहीं है।
1975-77 में आपातकाल के दौरान जब सरकार के नियंत्रण वाला दूरदर्शन उसके गुण गाता था, तब भी ग्रामीण क्षेत्रों तक के लोग वास्तविकता जानने के लिए बीबीसी रेडियो लगा लिया करते थे। सरकारें चाहे जिस विचारधारा की हों, वे ऐसे ‘सहयोगी’ मीडिया को महत्व देती हैं, जो उनकी प्राथमिकताओं को सामने रखे, नीतियों का प्रचार करे और उनकी कम से कम आलोचना करे।
चूंकि मैं भारत के दो राष्ट्रपतियों के प्रेस सेक्रेटरी की भूमिका निभा चुका हूं और विदेश मंत्रालय के अधिकृत प्रवक्ता के रूप में भी सेवाएं दे चुका हूं, इसलिए मैं इस बात को व्यक्तिगत तौर पर जानता हूं। सरकार अनेक तरीकों से लक्ष्यों को अर्जित कर सकती है : वे मीडिया बना सकती हैं, विचारकों को प्रभावित कर सकती हैं, मीडिया आउटलेट्स पर स्वामित्व रखने वाले कॉर्पोरेट्स से मैत्री बना सकती हैं इत्यादि। लेकिन मीडिया प्लेटफॉर्मों को धमकाने, उन पर दबाव बनाने, उन्हें दंडित करने- जिसमें उन्हें विज्ञापन नहीं देना भी शामिल है- लोकतंत्र की सीमारेखा को लांघने वाली गतिविधि कहलाएगी।
क्या सरकार ने यह सीमारेखा लांघी है? हां और ना दोनों। यह तो कोई भी नहीं कह सकता कि भारत में स्वतंत्र मीडिया नहीं है। लेकिन यह भी नहीं कहा जा सकता कि उस पर अंकुश लगाने की कोशिशें नहीं हुई हैं। विश्व प्रेस स्वतंत्रता इंडेक्स में भारत 2022 में दुनिया के 180 देशों में 150वें स्थान पर था।
यह अब तक की सबसे निचली रैंकिंग थी। उसकी पोजिशन 2017 के बाद से ही निरंतर गिरती रही है। यह इंडेक्स रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स नामक एक अंतरराष्ट्रीय एनजीओ बनाता है। वे अपनी रैंकिंग के लिए अनेक महत्वपूर्ण सूचकांकों का उपयोग करते हैं। इनमें मीडया की स्वायत्तता, उस पर राजनीतिक दबाव, नेताओं और सरकार को जवाबदेह ठहराने की आजादी, पत्रकारों की निजी और पेशेवर सुरक्षा आदि शामिल हैं।
सरकार ने इस रिपोर्ट से असहमति जताई है। लेकिन हाल के समय में कुछ परेशान कर देने वाले ट्रेंड्स उभरे हैं, जिनकी अनेदखी नहीं की जा सकती। पहला यह है कि सरकार की किसी भी तरह की आलोचना को राष्ट्रविरोधी या राष्ट्रीय सुरक्षा के विरुद्ध करार दे दिया जाता है।
संविधान ने अनुच्छेद 19(2) में राज्यसत्ता को अधिकार दिए हैं कि वह भारत की सम्प्रभुता व एकता की रक्षा, राज्य की सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था कायम रखने, अदालत की अवमानना या लोगों को उकसाने वाली किसी भी कार्रवाई पर रोक लगाने के लिए अभिव्यक्ति की आजादी पर ‘समुचित प्रतिबंध’ लगा सकती है। लेकिन वर्ष 2020 में जब एक मलयाली चैनल मीडिया वन टीवी को सरकार द्वारा ब्लॉक कर दिया गया था तो सर्वोच्च अदालत ने इस आदेश को उलटते हुए स्पष्ट कहा था कि सरकारी नीतियों की आलोचना को अनुच्छेद 19(2) में निर्धारित मानकों के अनुरूप नहीं माना जा सकता है।
वर्ष 2021 में जब दिवंगत पत्रकार विनोद दुआ पर राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया था तो सर्वोच्च अदालत ने एफआईआर को खारिज करते हुए मीडिया पर मनमानी कार्रवाई की प्रवृत्ति को आड़े हाथों लिया था। सर्वोच्च अदालत ने कहा है कि प्रेस की जिम्मेदारी है सत्ता को सच बताना और सरकार इसे नीतियों की आलोचना करार देते हुए उस पर अंकुश नहीं लगा सकती।
2015 में श्रेया सिंघल बनाम भारत सरकार मामले में सर्वोच्च अदालत ने आईटी एक्ट के अनुच्छेद 66(ए) को भी समाप्त कर दिया था, क्योंकि यह ‘आपत्तिजनक’ समझी जाने वाली सोशल मीडिया पोस्ट्स के आधार पर लोगों को गिरफ्तार करने की अनियंत्रित शक्तियां पुलिस को देता था।
मीडिया को अपने धर्म का पालन करना चाहिए। स्वयं को सरकार का प्रवक्ता बना लेना उसके पवित्र दायित्व की अवहेलना कहलाएगी। यह उस लोकतंत्र की भी अवमानना होगी, जिस पर हमें इतना गर्व है।