दबंग सरकारें पत्रकारों को जेलों में डाल रही हैं ..?

दबंग सरकारें पत्रकारों को जेलों में डाल रही हैं। पिछले साल ही 363 पत्रकार कैद किए गए हैं …

बीस साल पहले, द वॉल स्ट्रीट जर्नल के लिए दक्षिण एशिया में पत्रकार रहे डेनियल पर्ल की पाकिस्तान में आतंकवादियों ने अपहरण करके हत्या कर दी थी। ऐसा लगा कि उनकी हत्या से एक नया चलन शुरू हो गया हो। कुछ महीनों बाद, ब्राजील में टीवी ग्लोबो के संवाददाता टिम लोप्स की भी इसी तरह अपहरण करके हत्या कर दी गई। ये मामले अपनी नृशंसता के कारण सुर्खियों में रहे, लेकिन दुनियाभर में पत्रकारों की हत्या कोई नई बात नहीं थी।

न्यूयॉर्क की संस्था कमेटी टु प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स (सीपीजे) के मुताबिक 1992 के बाद से मारे गए 832 पत्रकारों में से 72 फीसदी की हत्या हुई थी। यह आंकड़े 2010 के हैं। ज्यादातर मामलों में यह सवाल बना रहा कि हत्या किसने की।

साल 2009 में ओस्लो में, सीपीजे के तत्कालीन कार्यकारी निदेशक जोएल साइमन ने कहा कि प्रेस स्वतंत्रता समूहों को साथ मिलकर पत्रकारों के हत्यारों को दोष से मिल रही मुक्ति के खिलाफ लड़ना चाहिए, क्योंकि यह दुनियाभर में प्रेस की स्वतंत्रता के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गया है। लेकिन लगता है कि उसके बाद से प्रेस की स्वतंत्रता से जुड़े समूहों की प्राथमिकता बदल गई है और आज सीपीजे जैसी बड़ी संस्था भी पत्रकारों की हत्याओं पर कम ध्यान दे रही है।

सीपीजे ने अपनी 25वीं वर्षगांठ पर पत्रकारों की हत्या से जुड़ा एक डेटाबेस बनाया था। इससे यह तथ्य स्थापित हुआ कि किसी युद्ध या दूसरी खतरनाक स्थिति की तुलना में, पत्रकार हत्या के शिकार तीन गुना ज्यादा हुए। साथ ही 10 में से 9 मामलों में हत्यारे बच निकले। हत्या का शिकार हुए 90 फीसदी पत्रकार स्थानीय थे।

उनमें से कइयों को हत्या से पहले धमकियां भी मिली थीं। दुनियाभर में पत्रकारों की हत्याएं एक दर्जन से ज्यादा देशों में ही केंद्रित हैं। इनमें सत्तावादी और बहुलतावादी शासन दोनों शामिल हैं। सीपीजे के आंकड़ों से यह भी पता चला कि आतंकवादियों और अन्य विद्रोहियों की तुलना में सरकारी अधिकारियों या सम्बद्ध अर्धसैनिक समूहों ने पत्रकारों की हत्याएं ज्यादा करवाईं।

अभियान के हिस्से के तौर पर प्रेस की स्वतंत्रता के पैरोकारों ने यह मुद्दा विश्व बैंक जैसे बहुपक्षीय संस्थानों के सामने रखा और किसी देश को ऋण देने का फैसला करने से पहले, उस देश में पत्रकारों की हत्याओं के अनसुलझे मामलों पर भी विचार करने का निवेदन किया।

अभियान को असरदार बनाने के लिए सीपीजे ने 2008 में ग्लोबल इंप्यूनिटी इंडेक्स भी शुरू किया। साल 2014 में, एक आयोजन में मैंने कहा था, ‘पत्रकारों की सुरक्षा से जुड़ी पिछले साल की यूएन रिपोर्ट बेहद कायरतापूर्ण थी। रिपोर्ट ने ‘पत्रकारों के खिलाफ हमलों के मामले में दंड से मुक्ति’ का मुद्दा तो उठाया, लेकिन उसकी भाषा को कानूनी ही रखा और हत्या जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया।’

संयुक्त राष्ट्र द्वारा ऐसी भाषा के इस्तेमाल करने का कारण तब समझ आता है, जब आप देखते हैं कि लगभग आधे सदस्य देशों ने अपने-अपने देशों में पत्रकारों की हत्याओं के मामलों में न्यायिक पूछताछ की स्वैच्छिक जानकारी देने के अनुरोधों का जवाब नहीं दिया है।

पिछले 12 वर्षों में दुनियाभर में पत्रकारों की हत्या के मामलों में दंडमुक्ति की दर 87 फीसदी से गिरकर 79 फीसदी तक आई है। यानी करीब आठ फीसदी मामलों में कुछ न्याय तो मिला है। भले ही मुकदमा सिर्फ उसपर हुआ हो, जिसने हत्या की, न कि उसपर जिसने हत्या करने का आदेश दिया।

पिछले कुछ वर्षों में नई चुनौतियां सामने आई हैं। अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना के लौटने और 20 साल बाद तालिबान की सत्ता में वापसी से अफगानी पत्रकार जोखिम में होंगे। दूसरे वैश्विक संकटों में भी बहुत ऊर्जा खर्च हो रही है। दबंग सरकारें दुनियाभर में पत्रकारों को जेलों में डाल रही हैं।

सीपीजे के मुताबिक, पिछले साल दुनियाभर में 363 पत्रकार सलाखों के पीछे गए। यह पिछले 30 वर्षों में सबसे ज्यादा है। सबसे ज्यादा पत्रकार ईरान की जेल में हैं। इसके बाद चीन, म्यांमार, तुर्किये, बेलारूस आते हैं। पत्रकारों की हत्या करके उन्हें शांत कर देना तो और बदतर है। पत्रकारों की हत्या के मामलों में दोष मुक्त करने का सिलसिला तभी खत्म होगा जब अपराधियों को जिम्मेदार ठहराया जाएगा।

दुर्भाग्य है कि आज भी दुनियाभर में पांच में से चार पत्रकारों की हत्या के मामले में मुकदमे नहीं चल पा रहे। इससे अपराधियों को छूट मिल रही है और पत्रकारों के परिवार और सहकर्मी डरे हुए हैं।

(हार्वर्ड इंटरनेशनल रिव्यू से साभार)

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