बालश्रम से जुड़ी देश की गंभीर समस्या ,,?
कड़े कानून तो हैं, लेकिन चाहिए पालना कराने की इच्छाशक्ति
बालश्रम अभिशाप बताने वाले नारों से ही काम नहीं चलने वाला
विडंबना यह है कि आजादी के बाद किसी भी राजनीतिक दल ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में बालश्रम से जुड़ी देश की गंभीर समस्या के समाधान की दिशा में ठोस कदम उठाने की बात तक नहीं की।
क्याहमें इस बात का अहसास है कि होटलों व ढाबों में चाय पिलाने वाला ‘छोटू’ सुबह से रात तक कितने घंटे काम में खटता है? महिलाओं की कलाइयों में खनखने वाली चूड़ियाें को आकार देने में किसका योगदान रहता है? और यह भी कि अपने घरों, दुकानों व कार्यालयों के दरवाजों पर सुरक्षा के लिए टंगे तालों में किसका बचपन कैद हुआ है? तम्बाकूजनित उत्पाद तैयार करने हों या फिर आतिशबाजी में काम आने वाले खतरनाक पटाखे, इन सबमें जलता बचपन ही है। जी हां, ये वे ही बच्चे हैं, जो अपने सपनों की बलि चढ़ाने के बावजूद दो जून की रोटी के लिए सदैव संघर्ष करते यहां-वहां दिखते हैं। हमारे जूतों को चमकाते-चमकाते इन्हीं बच्चों के चेहरों पर कालिख पुती नजर आती है।
ये तमाम उदाहरण इसे बताने के लिए काफी हैं कि आजादी के पिचहत्तर साल पूरे करने के बाद भी आर्थिक, सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़ेपन के शिकार बच्चे आज भी बाल श्रमिक का बदनुमा तमगा झेलने को विवश हैं। और, हमारे नीति नियंता ‘बालश्रम अपराध है, अभिशाप है’ का नारा लगाने से आगे कुछ करते नहीं दिखते। यह तो तब है जब 1986 में बने बालश्रम (प्रतिषेध और विनिमयन) संशोधन अधिनियम में 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों से बालश्रम कराने को अपराध बताया गया है। कानून-कायदे बनाना अपनी जगह है और उसकी पालना करना अपनी जगह। शायद यही वजह है कि राजनीतिक ही नहीं, बल्कि सामाजिक रूप से भी इच्छाशक्ति की कमी के कारण बालश्रम उन्मूलन के प्रयासों के अपेक्षाकृत परिणाम नजर नहीं आ रहे। हमने यह भी देखा है कि किसी भी राजनीतिक दल ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में देश की इस गंभीर समस्या के समाधान की दिशा में ठोस कदम उठाने की बात तक नहीं की। शायद इसलिए कि बच्चे उनका वोट बैंक नहीं हैं। बालश्रम पर दुनिया अपना ध्यान केन्द्रित करे इसे देखते हुए अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आइएलओ ) ने वर्ष 2002 में हर साल 12 जून को बालश्रम निषेध दिवस मनाने की घोषणा की थी।
बालश्रम की यह समस्या कितनी विकट है, इसका अंदाज संयुक्त राष्ट्र की एक रिर्पोट से लगाया जा सकता है। रिपोर्ट के अनुसार विश्व में 152 मिलियन से ज्यादा बच्चे बालश्रम से जुड़े हुए हैं। भारत की बात करें, तो वर्ष 2011 की जनगणना अनुसार 10.1 मिलियन बच्चे विभिन्न व्यवसायों में बालश्रम से जुड़े पाए गए हैं। गैर सरकारी आंकड़ाें को मानें तो भारत मेें लगभग 5 करोड़ बच्चे प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से बालश्रम से जुड़े है। बालश्रम (प्रतिषेध और विनिमयन) संशोधन अधिनियम के अनुच्छेद 24 व 39 ई में बालश्रम का जिक्र करते हुए और अनुुच्छेद 21 अ में 6-14 वर्ष के बच्चों को मुफ्त अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया गया है। सभी व्यवसायों या उद्योगों में 14 साल से कम उम्र के बच्चों से काम कराने पर कानूनी रोक है। इसे शिक्षा का अधिकार कानून 2009 से भी जोड़ा गया है। चौदह वर्ष से कम उम्र के बच्चों से काम कराना संज्ञेय अपराध है और इसके लिए नियोक्ता के साथ-साथ बच्चे के माता-पिता को भी दण्डित किया जा सकता है। बालश्रम करवाने पर कारावास की अवधि छह महीने से लेकर दो साल तक है। संशोधित कानून में जुर्माना बढ़ाकर बीस हजार रुपए से पचास हजार रुपए तक कर दिया गया है। वहीं दूसरी बार अपराध करने पर एक साल से तीन साल तक के कारावास का प्रावधान है।
जब तक समाज के ही अंग ये बच्चे बाल श्रमिक के रूप में नजर आएंगे, सामाजिक व्यवस्था भी दोषमुक्त नहीं कही जा सकती। तय है कि बालश्रम को अभिशाप व अपराध बताने के नारों से ही काम नहीं चलने वाला। इस समस्या का समाधान तब ही होगा जब कानून की क्रियान्विति दृढ़ता से हो और न्याय प्रक्रिया भी तत्परता से पूरी की जाए। वयस्कों को रोजगार भी देना होगा, ताकि उनके बच्चे बालश्रम का हिस्सा बनने को मजबूर नहीं किए जाएं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि जिन उद्योगों, कारखानों और होटल-ढाबों में बच्चों को मजदूरी करने के लिए रखा जा रहा है उन पर सख्ती की जाए। एक बड़ी चिंता की बात यह है कि बच्चों का स्कूल में नामांकन तो हो जाता है, लेकिन बच्चे स्कूल की बजाय माता-पिता के साथ मजदूरी करने को मजबूर होते हैं। ऐसे माता-पिता को भी समझाना होगा कि वे बच्चों की शिक्षा में बाधक न बनें। उन वस्तुओं और उत्पादों का बहिष्कार कारगर तरीका हो सकता है, जिनमें बच्चों से काम कराया गया हो। ये प्रयास तब ही अंजाम तक पहुंच सकते हैं, जब मजबूत इच्छाशक्ति हो। यह इच्छाशक्ति सरकार की भी हो और समाज की भी।