सत्ता की चाह बना गठबंधन का मकसद …!
हो सकता है मैं आपके विचारों से सहमत न हो पाऊं फिर भी विचार प्रकट करने के आपके अधिकारों की रक्षा करूंगा।
बात चाहे एनडीए की हो या फिर यूपीए की, दोनों खेमों में शामिल हो रहे राजनीतिक दलों के इतिहास पर नजर डालें तो भाजपा और कांग्रेस को छोड़कर शेष दल कभी न कभी दोनों मोर्चों में भागीदारी करके सत्ता का सुख लूट चुके हैं। हालत यह है कि पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा गठबंधन में शामिल रहे उद्धव ठाकरे और नीतीश कुमार इस बार विपक्षी एकता को मजबूत करने में जुटे हैं, वहीं एनसीपी का एक धड़ा भाजपा के साथ जुड़ गया है। तेलुगुदेशम और जनता दल (एस) सरीखे दल भी इस बार भाजपा के साथ जुड़कर राजनीतिक संभावनाएं तलाश कर रहे हैं। इसका सीधा और साफ मतलब है। ऐसे दलों की प्राथमिकता सिर्फ और सिर्फ अपने अस्तित्व को बचाए रखते हुए सत्ता से जुड़े रहना है। हर चुनाव से पहले एकता के नाम पर बनने वाले ऐसे गठजोड़ों का चुनाव के बाद क्या हश्र होता है, यह किसी से छिपा नहीं है। आपातकाल के बाद 1977 में शुरू हुई विपक्षी एकता की कवायद कई बार हुई, लेकिन यह कभी स्थायी नहीं रही। सत्ता पाने या बचाने के लिए किए गए इन गठजोड़ों को जनता ने कभी स्थायी समर्थन नहीं दिया। आज जरूरत गठजोड़ की हो सकती है, लेकिन ऐसे गठजोड़ ईमानदारी से हों, तब ही इनकी सार्थकता साबित हो पाएगी। एक बात यह भी है कि एकता की जुगलबंदी को हवा देने वाले अधिसंख्य दलों का प्रभाव सीमित है और इनकी प्राथमिकता अपने वर्चस्व को बचाए रखने से अधिक कुछ नहीं जान पड़ती है। बेहतर हो कि राजनीतिक दलों में न्यूनतम साझा कार्यक्रम के तहत एकता भी हो और चुनाव से पहले नेता भी तय हो।
देखा गया है कि चुनाव पूर्व के गठबंधन भी परिणाम आने के बाद टूट जाते हैं। एक दूसरे के विरोधी दल भी मिलकर सरकार बना लेते हैं। इस तरह जनता ठगी जाती है। यह प्रवृत्ति किसी भी लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं मानी जा सकती। राजनीतिक दलों को अपने कुछ सिद्धांत तो रखने ही चाहिए।