पढ़ाई बीच में छोड़ने के कारणों की अनदेखी ठीक नहीं
उच्च शिक्षा: भारतीय भाषाओं को बढ़ावा दिए जाने के बावजूद अभी संस्थानों का वातावरण अंग्रेजी की ओर ज्यादा झुका हुआ …
भारतीय संस्थाओं से निकलकर विदेशी विश्वविद्यालयों का रुख करने वाले ज्यादातर छात्रों का कहना है कि हम पाठ्यक्रम अपडेट के मामले में बहुत पीछे हैं और फैकल्टी भी ज्यादातर मामलों में छात्रों को रचनात्मकता की ओर मोड़ने में बहुत सक्षम नहीं है।
मौजूदा संसद सत्र में सरकार ने बताया है कि बीते पांच वर्षों के दौरान 8000 से अधिक अनुसूचित जाति, जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग व अल्पसंख्यक वर्ग के छात्रों ने आइआइटी, आइआइएम, एनआइटी जैसे उच्च शिक्षण संस्थानों में अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी है। सामान्य वर्ग के छात्रों की संख्या नहीं बताई गई पर ये आंकड़े हमारे सर्वश्रेष्ठ संस्थानों, पूरी शिक्षा व्यवस्था और पूरे देश-समाज के लिए आंखें खोलने वाले हैं। सरकार ने बताया है कि छोड़ने का कारण विषय का गलत चुनाव, व्यक्तिगत परफॉर्मेंस और स्वास्थ्य रहा है। अफसोसजनक पक्ष यह है कि बीते वर्षों में संस्थान छोड़ने वालों की संख्या लगातार बढ़ती गई है। सवाल है कि जो कारण सरकार ने बताए हैं क्या उनका निदान संभव नहीं?
पूरी दुनिया जानती है कि भारत के इन संस्थानों की प्रवेश परीक्षा दुनिया की सबसे कठिन परीक्षाओं में मानी जाती है। हर साल लगभग 15 लाख नौजवान रात-दिन मेहनत कर बड़ी-बड़ी फीस देकर सफलता के इस दरवाजे तक पहुंचते हैं। निश्चित ही वे पढ़ना चाहते हैं और आइआइटी में पढ़ने का सपना पढ़ाई छोड़ने के लिए तो नहीं ही देखते। दाखिला लेने के बाद संस्थान छोड़ने की बातें हालांकि बीते वर्षों में मीडिया के जरिए लगातार सामने आती रही हैं पर अक्सर इस मसले पर चर्चा तभी होती है जब किसी संस्थान में कोई मेधावी छात्र आत्महत्या कर लेता है। जब ऐसे किसी छात्र के दलित समुदाय से होने की बात सामने आती है, तो बात संसद तक भी पहुंच जाती है। आइआइटी मुंबई हो या मद्रास, मामले को जाति विमर्श से जोड़ कर इतिश्री भी कर ली जाती है। जातिगत उत्पीड़न के पक्ष से इनकार नहीं किया जा सकता पर यही पूरा सच नहीं है। वर्ष 2014 में रुड़की आइआइटी में प्रथम वर्ष के लगभग 70 छात्र फेल हुए थे। मामला कोर्ट तक भी पहुंचा और जो मुख्य कारण उभर कर आया वह था संस्थान, पाठ्यक्रम का अंग्रेजी माहौल। विशेषकर गरीब बच्चे जो अपनी-अपनी मातृभाषाओं में पढ़कर आते हैं, इन संस्थाओं के अंग्रेजी कुलीन माहौल में आसानी से फिट नहीं हो पाते। ऊपर से पाठ्यक्रम का दबाव। ऐसा नहीं कि ये संस्थान इस पक्ष से अनभिज्ञ हों, पर देश की शिक्षा व्यवस्था का ढांचा ऐसा बनाया गया है यदि आप उसके अनुरूप नहीं ढलते तो पढ़ाई छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता। कभी-कभी हताशा में और भी भयानक खबरें आती रहती हैं। 2012 में अनिल मीणा नाम के एक मेधावी डॉक्टर छात्र ने दिल्ली एम्स में आत्महत्या की थी और जो पत्र छोड़ा था उसमें लिखा था, ‘यहां का पाठ्यक्रम जिस अंग्रेजी में है वह मेरी समझ में नहीं आता।’ शिक्षक और सहपाठियों से भी मुझे कोई सहयोग नहीं मिल पा रहा। लगभग ऐसा ही पत्र 2015 में इंदौर इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्र ने अपने सुसाइड नोट में छोड़ा था। हमारे संस्थानों में अंग्रेजी का यह दबाव इतना भयानक है कि छात्र न केवल इन उच्च संस्थानों से, बल्कि पूरी शिक्षा व्यवस्था से ही बाहर हो जाते हैं। सरकार ने हाल के वर्षों में इन सभी परीक्षाओं को भारतीय भाषाओं में देने और पाठ्यक्रम भारतीय भाषाओं या द्विभाषा में पढ़ने के लिए कुछ शुरुआत जरूर की है पर अभी वातावरण अंग्रेजी की तरफ ही ज्यादा झुका हुआ है।
जाने-माने वैज्ञानिक प्रोफेसर यशपाल, जयंत नारलीकर बार-बार इन संस्थानों में भाषा और पद्धति की निर्दयता पर आवाज उठाते रहे हैं पर माहौल बहुत नहीं बदला। यही कारण है कि ये संस्थान पेटेंट, नई खोज और अनुसंधान के मामलों में अमरीका-यूरोप की तो छोड़ो एशिया के चीन, सिंगापुर, कोरिया जैसे देशों से भी बहुत पीछे हैं और इसमें दोष इन छात्रों का नहीं है। प्रोफेसर यशपाल जब अमरीका पढ़ने के लिए गए थे तो एंट्रेंस टेस्ट पास नहीं कर पाए थे। दूसरी बार में मिली सफलता की कहानी हम सबके सामने है। शिक्षा का अर्थ सबसे पीछे रहने वाले छात्रों की प्रतिभा को आगे लाना होता है, उनका आत्मविश्वास जगाना होता है, न कि उसे इस रूप में विवश करना कि वह संस्थान ही छोड़ कर चला जाए।
पाठ्यक्रम भी महत्त्वपूर्ण पक्ष है। इन संस्थाओं से निकलकर विदेशी विश्वविद्यालय की तरफ रुख करने वाले ज्यादातर छात्रों का कहना है कि हमारे संस्थान पाठ्यक्रम अपडेट के मामले में बहुत पीछे हैं और फैकल्टी भी ज्यादातर मामलों में छात्रों को रचनात्मकता की तरफ मोड़ने में बहुत सक्षम नहीं है। ज्यादातर केस स्टडी भी विदेशी पाठ्यक्रमों से ली हुई होती हैं जिनका भारत की समस्याओं से बहुत कम लेना-देना होता है। यह सब मिलकर एक ऐसी दुनिया का निर्माण करते हैं, जिसमें अपनी मातृभाषाओं में पढ़े हुए गरीब आदिवासी मेधावी छात्र अपने को अलग-थलग महसूस करते हैं। यह चिंता का विषय है। हमें ऐसे एक-एक छात्र की समस्या, चाहे स्वास्थ्य की हो या विषय के चुनाव की, पर ध्यान देना होगा। अच्छा हो शिक्षाविद वैज्ञानिकों की सक्षम कमेटी इस पर तुरंत विचार करे।