डाटा प्रोटेक्शन बिल असल में किसके हित में है?

डाटा प्रोटेक्शन बिल असल में किसके हित में है?

निजता के अधिकार को 2017 में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने पुनःपरिभाषित किया था। उस फैसले ने डिजिटल दौर में निजता के अधिकार के सामने आ रही नई चुनौतियों का भी खाका खींचा था। लोकसभा में कल पास हुआ डीपीडीपी 2023 बिल निजता के अधिकार के इर्द-गिर्द हो रही बहस का परिणाम है।

सूचना के अधिकार (आरटीआई) से सरकारी कामकाज में पारदर्शिता-जवाबदेही तय होती है। 2005 में आए इस कानून की लोकतंत्र की मजबूती में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। लेकिन डीपीडीपी बिल निजता के अधिकार को बचाने के बजाय आरटीआई कानून कमजोर करता है। कैसे?

आरटीआई सरकार के काम में पारदर्शिता के लिए है तो राइट टु प्राइवेसी हमारी जिंदगी में बढ़ती सरकारी (और निजी) घुसपैठ से बचाने के लिए होना चाहिए। फिर भी दोनों में खिंचाव है। उदाहरण के लिए मनरेगा कानून के तहत अिनवार्य रूप से चीजें सार्वजनिक करने के प्रावधान हैं, ताकि श्रमिक खर्च पर निगरानी रख सकें, लोगों की भी निगाह रहे।

इस कानून के तहत पंजीकृत हर व्यक्ति की जानकारी तक सबकी पहुंच है। इसमें ये ब्यौरा तक है कि हर श्रमिक को कब और कितना पैसा दिया गया। इसका दूसरा पक्ष भी है। देखा गया है कि बेईमान लोग इस पर नजरें गड़ाए रहते हैं, यहां तक कि वे मजदूरों को बचत या इंश्योरेंस जैसे लुभावने ऑफर देकर उनकी मेहनत की कमाई छीन सकते हैं। डीपीडीपी बिल 2023 इन जरूरी मसलों से निपटने की जरा-भी कोशिश नहीं है। इससे सरकार की पारदर्शिता तो कम होती है, लेकिन हम, सरकार और निजी एजेंसियों दोनों के लिए पारदर्शी हो जाते हैं।

बिल कहता है, ‘यह बिल डिजिटल व्यक्तिगत डाटा की इस तरह प्रोसेसिंग है, जिसमें दोनों के उद्देश्यों की पूर्ति हो, अपने निजी डाटा को सुरक्षित रखने का व्यक्तिगत अधिकार और ‘वैध उद्देश्यों’ के लिए एेसी जानकारी तक पहुंच। इसकी धारा 4 (2) में ‘वैध उद्देश्यों’ को व्यापक तरीके से परिभाषित किया गया है- ‘कोई भी उद्देश्य जो कानून द्वारा स्पष्ट रूप से निषिद्ध नहीं है।’

यानी मजदूरी, पेंशन या सरकारी पोर्टल से लाभार्थियों का मोबाइल नंबर हासिल करना ‘स्पष्ट रूप से निषिद्ध नहीं है’ मतलब डाटा माइनिंग जारी रह सकती है। साथ ही धारा 36 केंद्र को अधिकार देती है कि वह किसी बोर्ड, कोई संस्था या अन्य किसी को ‘ऐसी जानकारी तक पहुंच देती है, जो वह मांग सकती है’।

आरटीआई कानून की धारा 8 में सूचना प्रकट किए जाने से रोकने के कुछ प्रावधान हैं। इसकी धारा 8(1) (जे) इस आधार पर सूचना देने से छूट देती है कि ‘अगर इसका लोक क्रियाकलाप या जनहित से संबंध नहीं है और किसी की निजता का अनावश्यक संक्रमण है।’

इसमें छूट का बेंचमार्क भी बहुत ऊंचा है- ‘ऐसी सूचना के लिए, जिसको संसद या राज्य विधान-मंडल को देने से इंकार नहीं किया जा सकता, उससे किसी व्यक्ति को इंकार नहीं किया जा सकेगा।’ अब डीपीडीपी बिल 2023 में सुझाव है कि धारा 8 (1) (जे) को ‘व्यक्तिगत जानकारी से जुड़ी सूचना’ से बदल दिया जाए। इससे एक्ट कमजोर होगा।

जैसे लोक सेवकों को अचल संपत्ति सार्वजनिक करने की अनिवार्यता संभवतः अब नहीं होगी। डीपीडीपी में और भी खामियां हैं। जैसे डाटा प्रोटेक्शन बोर्ड सरकार के अधीन होगा क्योंकि इसका अध्यक्ष और सदस्य सरकार नियुक्त करेगी, जिससे नागरिकों के लिए शिकायत निवारण व्यवस्था कमजोर होगी।

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