सत्ता में लौटकर आने के लिए क्या कर रही हैं सरकारें ..!

सत्ता में लौटकर आने के लिए क्या कर रही हैं सरकारें ..!

चुनावी मौसम में सबसे दिलचस्प यह देखना होता है कि सत्तारूढ़ दल सरकार-विरोधी भावनाओं (एंटी-इनकम्बेंसी) का सामना करने के लिए किस तरह पेशबंदी कर रहा है। अंग्रेजी की डिक्शनरी में एंटी-इनकम्बेंसी शब्द नहीं मिलता है। यह खास तौर से भारतीय चुनावी लोकतंत्र की उपज है। यहां की पार्टियों और नेतागणों ने एंटी-इनकम्बेंसी का मुकाबला करने, उसकी धार कुंद करने और उसे पलटकर सत्ता में टिके रहने के हथकंडों में महारत हासिल कर ली है।

अपने गठजोड़ के 40-50 सांसदों के सामने प्रधानमंत्री का हालिया भाषण भारतीय राजनीति की इस अनूठी विशेषता का उदाहरण है। इसी तरह के उदाहरण राज्यों की राजनीति में भी हैं। मसलन, ममता बनर्जी ने पिछले विधानसभा चुनाव में अपने खिलाफ एंटी-इनकम्बेंसी को पलट देने में जो अभूतपूर्व कामयाबी हासिल की थी, उसके मुकाबले भाजपा के जबर्दस्त हमले भी बेअसर हो गए थे।

इसी तरह के नजारे इस समय कुछ छोटे स्तर पर राजस्थान में अशोक गहलोत, छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान द्वारा की जा रही सुनियोजित पेशबंदियों के रूप में देखे जा सकते हैं। नरेंद्र मोदी ने अपने सांसदों के एक समूह से जो कहा, उसे उनके खिलाफ पनप रही दस वर्षीय एंटी-इनकम्बेंसी को मंद और परास्त करने की शुरुआत मानना चाहिए।

मोदी ने सांसदों को नसीहत दी कि राम मंदिर, धारा 370, पांच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनाने या विदेश नीति से संबंधित ‘उपल​ब्धियों’ का बखान करने में वक्त खराब न करें। बल्कि जनता की समस्याओं के साथ जुड़ें, उनके साथ समय बिताएं और उनके बीच काम करें।

मोदी की यह सलाह दो पहलुओं की तरफ इशारा करती है। पहला, मोदी को लगता है कि सांसदों के खिलाफ स्थानीय स्तर पर नाराजगी है, जिसे समझकर, निजी स्पर्श देकर और जनता का हितैषी बनकर दुरुस्त किया जा सकता है। स्थानीय स्तर की नाराजगी बड़ी-बड़ी हवाई लगने वाली बातों से दूर होने वाली नहीं है।

दूसरा, मोदी को पता है कि 2014 और 2019 में वे किस वजह से जीते थे। 2014 में कांग्रेस के दस वर्षीय शासन से पैदा हुई थकान और ऊब के साथ भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की धार जुड़ गई थी। मोदी तब नए थे। उनकी हर बात नई थी। लोगों ने उनकी चुनौती पर यकीन करके उन्हें जिता दिया था।

इसके बावजूद वह जीत केवल 31 फीसदी वोटों से हासिल की गई थी। 2019 में बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक और मोदी द्वारा बनाए गए सब्सिडी-तंत्र के मेल ने जीत दिलाई थी। मुसलमान-विरोधी साम्प्रदायिक मुद्दों और विदेश नीति की बातों का इन दोनों जीतों में कोई योगदान नहीं था।

फिर यह जीत भी 37 फीसदी वोटों पर आकर रुक गई थी। मोदी को साफ तौर पर लग रहा है कि अगर भाजपा की चुनावी मुहिम हवाई बातों में फंस गई तो इस बार 31 से 37 फीसदी वोट भी नहीं मिलेंगे। तीन फीसदी से पांच फीसदी का स्विंग अगर भाजपा के खिलाफ हुआ तो दस साल की राजनीति सिफर में बदल जाएगी।

राजस्थान में एक बार भाजपा जीतती है तो दूसरी बार कांग्रेस। यानी 5 साल में यहां काफी एंटी-इनकम्बेंसी तैयार हो जाती है। इस लिहाज से इस दफा भाजपा का नम्बर आना चाहिए। लेकिन अगर वोटरों से बात करें तो कोई भाजपा की जीत की गारंटी देने के लिए तैयार नहीं है। अभी मैं बीकानेर गया।

दो दिन तक मैंने बहुत-से पत्रकारों और गैर-राजनीतिक लोगों से बात की। सब यही कह रहे थे कि अशोक गहलोत ने चुनाव को नजदीकी बना दिया है। कुछ टिप्पणीकारों की मान्यता है कि गहलोत ने स्वयं को एक ब्रांड के रूप में पेश करके, राज्य स्तर पर अपना सब्सिडी-तंत्र तैयार करके, जनता से जुड़ाव को बड़े पैमाने पर बढ़ाकर और अपनी ओबीसी नेता की छवि चमकाकर ऐसे हालात पैदा किए हैं।

गहलोत की राजनीतिक कुशलता में शायद ही किसी को शक हो। वे भाजपा के भीतर मौजूद गुटबाजी का भी फायदा उठा रहे हैं। अभी साल-डेढ़ साल पहले सभी लोग कहते थे कि इस बार राजस्थान में भाजपा का आना तय है। पर अब यह कहने से पहले सभी कुछ सोच में पड़ जाते हैं। एमपी में शिवराज भी ऐसी ही कोशिशों में लगे दिख रहे हैं।

उन्होंने अपनी ‘मामाजी’ वाली छवि को जोरदारी से अपने प्रचार के केंद्र में स्थापित किया है। इससे महिलाओं-लड़कियों में अपनेपन का संदेश जाता है। शिवराज की चुनौती कड़ी है पर वे जमे हुए हैं और पूरी कोशिश कर रहे हैं कि कांग्रेस कमलनाथ और दिग्विजय की एकता के बावजूद बाजी न मार सके। छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल आश्वस्तकारी स्थिति में हैं। पर वे भी विज्ञापनों और अन्य प्रचार के जरिए जबर्दस्त धूम मचाए हुए हैं।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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