आजादी के 76 साल पूरे हो जाएंगे ! अंग्रेजों की महालूट की…

15 अगस्त को भारत की आजादी के 76 साल पूरे हो जाएंगे ..

बात 1874 की है। किसान साहूकारों के कर्ज में दबे थे। लगान नहीं वसूलने पर अंग्रेज उनकी जमीनें नीलाम कर रहे थे। एक दिन पुणे का एक किसान कालूराम कपास लेकर साहूकार के पास गया। उसे उम्मीद थी कि इस बार फसल बेचकर वह अपना कर्ज चुका देगा, लेकिन साहूकार ने फसल नहीं खरीदी। कालूराम एक-एक करके कई साहूकारों के पास गया, लेकिन सभी साहूकारों ने कपास खरीदने से इनकार कर दिया।

 देश के हजारों किसानों के साथ ऐसा ही छल हुआ। ये अंग्रेजों की भारत को लूटने की सोची-समझी चालाकी थी। 200 सालों में अंग्रेजों ने भारत से करीब 369 लाख करोड़ रुपए लूट लिए। यानी आज हम भारत और ब्रिटेन की GDP को मिला दें, तो उससे भी 17 गुना ज्यादा। तब दुनिया की GDP में भारत की हिस्सेदारी 25% थी, जो आज महज 3% है।

साल था 1757, भारत में मुगल साम्राज्य की धमक कमजोर पड़ रही थी। ईस्ट इंडिया कंपनी, फ्रेंच और पुर्तगाली अपनी कॉलोनियां बसा रहे थे। सैनिक जमा कर रहे थे। बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला इस बात से खफा थे।

23 जून 1757, प्लासी में राबर्ट क्लाइव की अगुआई में ईस्ट इंडिया कंपनी और सिराजुद्दौला के बीच जंग हुई। करीब 50 हजार सैनिक, 500 हाथी और 50 तोपों से लैस उनकी सेना, ईस्ट इंडिया कंपनी के 3,000 सैनिकों से हार गई।

इसके बाद बंगाल प्रांत के टैक्स कलेक्शन की कमान ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों में आ गई। तब बंगाल में आज का पश्चिम बंगाल, बिहार और ओडिशा शामिल थे। इसकी राजधानी मुर्शिदाबाद थी। जिसकी चकाचौंध लंदन से भी ज्यादा थी।

इस शहर के बारे में ईस्ट इंडिया कंपनी के रॉबर्ट क्लाइव ने लिखा, ‘मुर्शिदाबाद लंदन जितना बड़ा, आबाद और समृद्ध शहर है। अंतर सिर्फ इतना ही है कि लंदन में जितनी दौलत एक अमीर आदमी के पास है उससे कहीं ज्यादा दौलत यहां अनेकों लोगों के पास है।’

दुनिया की जानी-मानीं इकोनॉमिस्ट उत्सा पटनायक ने 2018 में कोलंबिया यूनिवर्सिटी में एक रिसर्च पब्लिश की। इसमें उन्होंने बताया कि कैसे अंग्रेजों ने 200 सालों के राज में भारत से करीब 369 लाख करोड़ रुपए, यानी 45 ट्रिलियन डॉलर की लूट की।

2015 में राज्यसभा सांसद शशि थरूर ने ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में एक लेक्चर दौरान UK को भारत की लूट की भरपाई करने के लिए कहा था। शशि थरूर का यह लेक्चर खूब वायरल हुआ था। जिसके बाद उन्होंने अंग्रेजों की लूट पर ‘इनग्लोरियस एम्पायर: ह्वाट द ब्रिटिश डिड टु इंडिया’ नाम से किताब ही लिख दी।

भारत से 369 लाख करोड़ लूट ले गए अंग्रेज !

किसानों को साहूकारों से लड़ाया, ताकि सस्ते दाम पर कपास खरीद सकें

बक्सर की लड़ाई ने दुनिया की सबसे बड़ी लूट का रास्ता खोला

प्लासी की लड़ाई को 6 साल बीत चुके थे। साल बदलकर 1764 हो चुका था। वो 22 अक्टूबर का दिन था। अंग्रेजी फौज की रेजिमेंटल ड्रम की आवाजें उस दिन गंगा किनारे गूंज रही थीं।

फर्स्ट बटालियन के सैनिक लाल कोट पहने लंबी कतारों में गंगा किनारे आगे बढ़ रहे थे। बीच-बीच में आम के पेड़ों के बगीचे और छोटे-छोटे गांव थे। जगह थी आज के बिहार का बक्सर।

इस मोर्चे के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी ने कलकत्ता (कोलकाता) से फ्रेश रेजिमेंट बुलाई थी। पूरी टुकड़ी को लीड कर रहा था 38 साल का एक यंग ब्रिटिश ऑफिसर। नाम था मेजर हेक्टर मुनरो।

दूसरी ओर थे बंगाल के नवाब मीर कासिम, अवध के नवाब शुजा-उद-दौला और मुगल बादशाह शाह-आलम द्वितीय। इस लड़ाई में भी ईस्ट इंडिया कंपनी की जीत हुई। इसके बाद अवध के नवाब, बंगाल के नवाब और मुगल बादशाह को इलाहाबाद की संधि पर साइन करना पड़ा। संधि के मुताबिक मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय अंग्रेजों के पेंशन के भरोसे हो गए।

ब्रिटेन के इतिहासकार विलियम डेलरिम्पल की किताब ‘द एनार्की’ में इस संधि के बाद शाह आलम के दरबार की चर्चा है। दरबार में अंग्रेजों का जिक्र आता है, तब नारायण सिंह नाम के मुगल अधिकारी खड़े होकर कहते हैं, ‘आखिर क्या इज्जत बची रह गई है हमारी? जिन्हें धोने तक नहीं आता ऐसे अंग्रेज व्यापारियों से ऑर्डर लेना पड़ रहा है।’

बक्सर की लड़ाई में हार के बाद इलाहाबाद की संधि हुई। संधि के मुताबिक अब ईस्ट इंडिया कंपनी सीधे बंगाल, बिहार और उड़ीसा के लोगों से टैक्स इकट्ठा करने लगी। इसके पहले यह काम मुगल साम्राज्य और नवाब करते थे। और उससे टैक्स का एक हिस्सा ईस्ट इंडिया कंपनी को जाता था।

सीधे टैक्स वसूलने के अधिकार ने ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल से लेकर उड़ीसा तक की इकोनॉमी का कंट्रोल दे दिया। बंगाल, अवध के नवाब और मुगल बादशाह को सेना रखने की अनुमति तो दी। लेकिन संधि पर हस्ताक्षर कराया कि जब भी जरूरत पड़े वो कंपनी की मदद करेंगे।

कंपनी के सैनिकों के रखरखाव की जिम्मेदारी भी नवाबों और मुगल सम्राट पर डाली गई। यानी अंग्रेज सेना का खर्च भारत के लोग उठाने को मजबूर हुए।

कपास की खेती को लेकर किसान अपने साहूकारों के खिलाफ ही खड़े हो गए

1861 की बात है। इंग्लैंड में तब खूब कपड़ा मिलें थीं। इन मिलों में अमेरिका से कपास आता था, लेकिन 1861 में अमेरिका में सिविल वॉर छिड़ गया, कपास की सप्लाई बंद हो गई। तब इस मांग को भारत के किसानों ने पूरा किया। जिस कपास के उन्हें प्रति किलो 3 आने मिलते थे, अब उन्हें 12 आने मिलने लगे। अंग्रेजों ने इससे मोटी कमाई की।

भारत से अंग्रेज कपास सस्ते दामों पर इंग्लैंड ले जाते, इंग्लैंड की फैक्ट्रियों में उससे कपड़े बनाते और फिर वापस भारत लाकर मोटे मुनाफे पर बेचते। (स्केचः गौतम चक्रवर्ती)

शशि थरूर अपनी किताब में बताते हैं कि अंग्रेज गुजरात और महाराष्ट्र के किसानों से अनाज की जगह कपास की खेती करने को मजबूर करने लगे। किसान भी कपास के अच्छे दाम देखकर कपास उगाने लगे। कपास उगाने में लागत ज्यादा आती थी। तो इसके लिए किसान साहूकारों से कर्ज लेने लगे।

1865 में जैसे ही अमेरिका में सिविल वॉर खत्म हुआ। वहां से इंग्लैंड में कपास की सप्लाई शुरू हो गई। नतीजा, अंग्रेजों ने भारत से कपास खरीदना कम कर दिया। इससे किसानों की फसल बिकनी बंद हो गई। साहूकार कपास खरीदने से मना करने लगे। लिहाजा किसान बुरी तरह कर्ज में डूब गए। ऊपर से धान, गेहूं जैसी अनाजों की पैदावार भी उनके पास नहीं बची।

तब साहूकार, किसानों का बहीखाता अपने पास रखते थे। इसमें वे छल से ज्यादा रकम भी कर्ज के रूप में दर्ज कर देते थे। इस वजह से किसान कर्ज चुका ही नहीं पाता था। जिससे उनके जमीन की नीलामी हो जाती थी।

एकलव्य पब्लिकेशन की सामाजिक अध्ययन की किताब में एक मराठा किसान के दर्द का जिक्र है। वह अपनी परेशानी बयां करते हुए कहता है, जब देखो तब ये साहूकार कचहरी से कुर्की यानी नीलामी का नोटिस लेकर आ जाते हैं। हम कर्ज नहीं चुका पाए तो हमारी घर-जमीन सब नीलाम करा देते हैं।

पुश्तों से ये लोग हमें अपना कर्जदार बनाए हैं। जितना भी पैसा दो, कर्ज नहीं चुकता। बहीखातों में हमारे नाम झूठा कर्ज चढ़ा देते हैं। इनके बहीखाते जलकर राख हो जाएं तभी हमारी आफत हटेगी।

1875 में आखिरकार पुणे और अहमदनगर के किसानों ने अपने गांव के साहूकारों के खिलाफ ही विद्रोह कर दिया। किसान साहूकारों के घरों को घेरकर उनसे बहीखाते की मांग करने लगे। साहूकार मना करते तो किसान उनका घर जला देते। गांव के बाकी लोगों ने भी किसानों का साथ दिया।

ये अंग्रेजों की सोची-समझी साजिश थी। इससे पहले अंग्रेज साहूकारों से कपास खरीदते थे। उन्हें ज्यादा रकम देनी पड़ती थी, लेकिन अब वे सीधे किसानों से औने-पौने दामों पर कपास खरीदने लगे। यानी वे एक तरह से मुफ्त में भारत से कच्चा माल ले जाते और फिर कपड़े बनाकर महंगे दामों पर भारत के लोगों को ही बेचते।

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