मुख्य चुनाव आयुक्त की शक्तियाँ घटाने और नियुक्ति प्रक्रिया बदलने का उपक्रम !

मुख्य चुनाव आयुक्त की शक्तियाँ घटाने और नियुक्ति प्रक्रिया बदलने का उपक्रम …

सरकार जब बलशाली होती है तो उससे जुड़ा हुआ बहुत कुछ बौना होता जाता है। पता नहीं चलता लेकिन परोक्ष रूप से ही सही, संस्थाएँ, संस्थान और राजनीतिक नैतिकता कुछ हद तक दबती चली जाती हैं।

क़ानून बदले जाते हैं। फ़ैसले पलटे जाते हैं और धीरे- धीरे एक तरह की स्वायत्तशासी संस्थाएँ भी सरकार या सत्ता पक्ष के अधीन हो जाती हैं। हाल ही में सरकार की ओर से एक विधेयक लाया गया है जिसमें चुनाव आयुक्त और मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति वाली कमेटी से सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को बाहर करने का प्रावधान है।

पहले इस कमेटी में मुख्य न्यायाधीश, प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता हुआ करते थे। नए प्रस्ताव में चीफ़ जस्टिस को हटाकर एक केंद्रीय मंत्री को जोड़ने का प्रावधान है। कहने को नेता प्रतिपक्ष भी इसके सदस्य रहेंगे लेकिन, चूँकि तीन में से दो सदस्य सरकार के हैं यानी प्रधानमंत्री और केंद्रीय मंत्री, इसलिए बहुमत के आधार पर फ़ैसला वही होता रहेगा जो सरकार चाहेगी।

अगर यह विधेयक पारित होता है तो चुनाव आयोग भी एक तरह से सरकार द्वारा नियुक्त लोगों की संस्था बनकर रह जाएगा। वैसे भी पहले मुख्य चुनाव आयुक्त की शक्तियाँ सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस के बराबर हुआ करती थीं। नए विधेयक में इन शक्तियों को घटाकर केबिनेट सेक्रेटरी के बराबर करने का प्रावधान है। पहले मुख्य चुनाव आयुक्त केबिनेट सेक्रेटरी को तलब कर सकता था। आगे कर पाएगा या नहीं, इसमें शंका है।

इसके पहले भी सरकार ने दिल्ली सरकार के अधिकारों को लेकर दिया गया सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला एक अध्यादेश के ज़रिए पलट दिया था। जब इस अध्यादेश को क़ानून का रूप देने के लिए संसद में लाया गया तो सरकार ने तर्क दिया कि चूँकि दिल्ली अभी न पूरी तरह राज्य है, न केंद्र शासित प्रदेश और चूँकि केंद्र सरकार की संपत्ति बड़ी मात्रा में दिल्ली में अभी भी है इसलिए उसे दिल्ली के बारे में क़ानून बनाने का अधिकार है।

सरकार ने यह नहीं बताया कि सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला पलटने का अधिकार उसे कहाँ से मिला? हो सकता है क़ानूनी तौर पर यह सही भी हो, क्योंकि शाहबानो प्रकरण में राजीव गांधी सरकार भी यह कर चुकी है, लेकिन नैतिक आधार भी तो कुछ होना चाहिए? राजनीतिक नैतिकता आख़िर कहाँ गई?

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