27 साल और महिला आरक्षण बिल : सांसदों की शर्मनाक हरकत की गवाह बनी संसद !

संसद के विशेष सत्र (Parliament Special Session) के दूसरे दिन केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने लोकसभा में महिला आरक्षण बिल (Women Reservation Bill) पेश किया। इस पहल की शुरुआत 27 साल पहले तब हुई थी जब प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा सरकार ने सबसे पहले इसे 12 सितंबर 1996 को लोकसभा में पेश किया था।

 नई दिल्ली शायद ही किसी विधेयक ने कानून बनने के लिए इतना लंबा इंतजार झेला हो, जितना विधायिका में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण उपलब्ध कराने के लिए नए सिरे से लाए गए विधेयक को करना पड़ा है। राजनीतिक खेमेबाजी, आरक्षण के भीतर आरक्षण के सवाल और इसका लाभ किसे मिलेगा जैसी बातों के कारण 27 साल से यह विधेयक एक सदन से दूसरे सदन के बीच फंसा रहा।

अगर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मंगलवार को संसद के विशेष सत्र के दौरान नए भवन में पहली बार लोकसभा में शुरू हुई कार्यवाही के दौरान यह कहा कि ईश्वर ने इस पवित्र कार्य के लिए मुझे चुना है तो इसके खास मायने हैं। एक तो बिल दोनों सदनों से जरूरी बहुमत के साथ पारित होने के पूरे आसार हैं और दूसरे, मौजूदा माहौल में महिलाओं को उनका हक देने वाले इस कदम के विरोधियों की संख्या भी घट गई है।

पहली बार 1996 में पेश हुआ था महिला आरक्षण बिल

इस बिल की कहानी संसदीय कामकाज की जटिलता और राजनीतिक हानि-लाभ को अनुचित महत्व देने की बानगी है। इस पहल की शुरुआत 27 साल पहले तब हुई थी, जब एचडी देवगौड़ा के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा सरकार ने सबसे पहले इसे 12 सितंबर 1996 को लोकसभा में पेश किया था। इसके बाद प्रत्येक सरकार ने या तो इसके लिए प्रयास किया या फिर इसके पक्ष में खूब बातें कीं।

समिति के पास भेजा गया विधेयक

जब पहली बार इसे लाया गया था, तो यह चौंकाने वाला कदम था, क्योंकि सत्ताधारी गठबंधन में जनता दल और कुछ अन्य सहयोगी दल इसके पक्ष में नहीं थे। बिल को भाकपा नेता गीता मुखर्जी के नेतृत्व वाली संयुक्त समिति के हवाले कर दिया गया। इस समिति में 31 सदस्य थे, जिनमें ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, मीरा कुमार, सुमित्रा महाजन, शरद पवार, उमा भारती, गिरिजा व्यास, रामगोपाल यादव, सुशील कुमार शिंदे आदि शामिल थे। समिति ने सात बड़े सुधार बताए।

समिति ने क्या दिया था सुझाव?

इसी समिति ने यह सुझाव दिया कि यह आरक्षण शुरुआत में 15 साल के लिए होना चाहिए। समिति ने दिसंबर 1996 में अपनी रिपोर्ट दी, लेकिन कई सदस्यों ने अपनी असहमति के नोट भी दर्ज किए। 16 मई 1997 को विधेयक में लोकसभा के लिए चर्चा लिया गया, लेकिन सत्तारूढ़ गठबंधन के नेताओं ने ही इसका प्रबल विरोध किया। यही वह दिन था जब शरद यादव ने इस विधेयक से लाभान्वित होने वाली शिक्षित और अशिक्षित महिलाओं को लेकर विवादास्पद टिप्पणी की थी। संयुक्त मोर्चा सरकार इस विधेयक को पारित नहीं करा सकी और लोकसभा का कार्यकाल समाप्त होने के साथ बिल लैप्स हो गया।

भाजपा सरकार ने किए कई प्रयास

1998 से 2004 के बीच भाजपा के नेतृत्व वाली राजग सरकार ने महिला आरक्षण बिल को पारित कराने के लिए कई गंभीर प्रयास किए। पहली बार 13 जुलाई 1998 को इसे लोकसभा में लाने की कोशिश हुई। तब के कानून मंत्री एम. थंबीदुरई को सदन में तगड़ा विरोध झेलना पड़ा। राजद और सपा के सांसद इस विरोध में सबसे आगे थे। राजद के एक सांसद सुरेंद्र प्रसाद यादव ने बिल की कॉपी स्पीकर जीएमसी बालयोगी से छीन ली। बिल को अगले दिन विधिवत पेश किया जाना था, लेकिन स्पीकर ने कहा कि सहमति के अभाव में यह संभव नहीं है।

इसे आखिरकार 23 दिसंबर 1998 को पेश किया गया। हालांकि लोकसभा भंग हो जाने के साथ बिल भी लैप्स हो गया। जब वाजपेयी ने फिर से केंद्र में सरकार बनाई तो 22 दिसंबर 1999 को तत्कालीन कानून मंत्री राम जेठमलानी ने इसे फिर से लाने की कोशिश की। फिर इस पहल का सपा, बसपा और राजद ने जबरदस्त विरोध किया।

वाजपेयी सरकार ने तीन बार पेश किए बिल

वाजपेयी सरकार ने इसके बाद तीन बार 2000, 2002 और 2003 में इस विधेयक को आगे बढ़ाने की कोशिश की, लेकिन कांग्रेस और वाम दलों के समर्थन के बावजूद हर बार वही कहानी दोहराई जाती रही। जुलाई 2003 में तत्कालीन स्पीकर मनोहर जोशी ने सर्वदलीय बैठक बुलाई, लेकिन यह कवायद भी असफल रही। 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व में बनी संप्रग सरकार ने इस विषय को अपने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में शामिल किया। हालांकि इसे पारित करना आसान नहीं था, क्योंकि बिल का विरोधी राजद सरकार में शामिल था।

2008 में सदन में दर्ज हुआ काला अध्याय

छह मई 2008 को संप्रग सरकार महिला आरक्षण के बिल को लाई, लेकिन इसके बाद सदन में जो हुआ वह काले अध्याय के रूप में दर्ज है। कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज बिल पेश भी नहीं कर पाए थे कि सपा सांसद अबू आजमी उनकी ओर लपके। तमाम कांग्रेस सांसदों को भारद्वाज की रक्षा के लिए सुरक्षा घेरा बनाना पड़ा। इस बिल को संसद की स्थायी समिति को भेज दिया गया। समिति ने दिसंबर 2009 में अपनी रिपोर्ट दी।

2010 में राज्यसभा में पारित हुआ था विधेयक

इसके बाद मार्च 2010 में इसे राज्यसभा में लाया गया। नौ मार्च 2010 का दिन ऐतिहासिक है जब दो दिनों की बहस के बाद उच्च सदन ने इसे दो तिहाई बहुमत से पारित कर दिया। तब भाजपा और वाम दलों ने विपक्ष के रूप में बिल का साथ दिया। हालांकि संप्रग सरकार ने इसे लोकसभा में लाने की इच्छाशक्ति ही नहीं दिखाई। 2011 में स्पीकर मीरा कुमार ने सर्वदलीय बैठक तो बुलाई, लेकिन गतिरोध टूट नहीं सका।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *