समलैंगिक शादियों पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला !
कहां से शुरू हुई समलैंगिक विवाह की मांग, इसे कानूनी मान्यता मिलती है तो उनकी जिंदगी में क्या कुछ बदल जाएगा?
समलैंगिक विवाह पर फैसला सुनाते हुए चीफ जस्टिस ने कहा कि स्पेशल मैरिज एक्ट को सिर्फ इसलिए असंवैधानिक नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि वह समलैंगिक विवाह को मान्यता नहीं देता है.
इस फैसले के दौरान चीफ जस्टिस ने ये भी कहा कि स्पेशल मैरिज एक्ट को सिर्फ इसलिए असंवैधानिक नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि वह समलैंगिक विवाह को मान्यता नहीं देता है. लेकिन समलैंगिकों को पार्टनर चुनने का पूरा हक और अधिकार है.
सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने इसी साल मई महीने में इस मामले पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था. इन पांच जजों की पीठ में मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ के अलावा जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस एस रवींद्र भट्ट, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस हिमा कोहली शामिल हैं.
ऐसे में इस रिपोर्ट में हम आपको बताएंगे कि इस पूरे मामले की शुरुआत कब और कैसे हुई, स्पेशल मैरिज एक्ट को चुनौती क्यों दी गई और अगर समलैंगिक विवाह को मान्यता मिलती है और इस समुदाय के लोगों की जिंदगी में क्या बदल जाएगा.
कब हुई थी सुनवाई की शुरुआत
समलैंगिक विवाह यानी सेम सेक्स मैरिज मामले की सुनवाई 18 अप्रैल से शुरू हुई है और सुनवाई के पहले दिन ही कोर्ट ने ये साफ कर दिया था कि वे इसे पर्सनल लॉ के क्षेत्र में जाए बिना देखेंगे कि क्या साल 1954 के विशेष विवाह कानून के जरिए समलैंगिकों को शादी के अधिकार दिए जा सकते हैं.
किसने दायर की याचिका
भारत में साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटाने का फैसला किया. इस फैसले के बाद लोगों ने समलैंगिक विवाह को कानूनी आधार देने की मांग उठानी शुरू कर दी. इस मांग को लेकर देश के अलग-अलग कोर्ट में लगभग 20 याचिकाएं दायर की गईं थी लेकिन हैदराबाद के रहने वाले गे कपल सुप्रिया चक्रवर्ती और अभय डांग की याचिका प्रमुख याचिकाओं में शामिल है.
सुप्रिया चक्रवर्ती और अभय डांग दोनों ही पिछले 10 सालों से प्रेम-संबंध में हैं और इस रिश्ते को शादी के बंधन में तब्दील करने के लिए गे मैरिज को कानूनी मान्यता दिलाना चाहते हैं. इसी कपल ने साल साल 2022 में अपनी मांग को लेकर सुप्रीम कोर्ट का रुख किया और याचिका दर्ज करते हुए मांग की कि देश के LGBTQIA+ नागरिकों को भी अपनी पसंद के व्यक्ति से शादी करने का अधिकार मिलना चाहिए.
दायर याचिका में स्पेशल मैरिज एक्ट और हिंदू मैरिज एक्ट के प्रावधानों को भी चुनौती दी गई है. जिस पर केंद्र सरकार ने कहा कि यह मामला संसद के पाले में रहना चाहिए. जबकि याचिकाकर्ता का कहना था कि यह मामला मौलिक अधिकार से जुड़ा हुआ है और ऐसे में सुप्रीम कोर्ट को मौलिक अधिकार को बचाना चाहिए.
सुप्रिया चक्रवर्ती और अभय डांग के याचिका दायर करने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर जवाब मांगा. सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक विवाह को लेकर देश के अलग-अलग कोर्ट से जुड़ी याचिकाओं को एक साथ जोड़ते हुए स्थानांतरित कर लिया और केंद्र सरकार से 15 फरवरी 2023 इन सभी दायर याचिकाओं पर संयुक्त जवाब दाखिल करने का आदेश दिया. इसके साथ ही कोर्ट ने कहा कि 13 मार्च तक इन सभी याचिकाओं को सूचीबद्ध कर दिया जाना चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने इन याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए इसे ‘मौलिक मुद्दा’ बताते हुए इसे पांच जजों की संविधान पीठ को भेजने की सिफारिश की. जिसके बाद यह मामले मुख्य न्यायाधीश डॉ डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पांच जजों की संविधान पीठ के पास पहुंचा और इसी पीठ ने आज सुनवाई करते हुए ऐतिहासिक फैसला ले लिया है.
क्या है स्पेशल मैरिज एक्ट
स्पेशल मैरिज एक्ट की धारा 5 के अनुसार किसी भी कपल को विवाह करने से पहले सूचना देनी होती है और विवाह अधिकारी के कार्यालय के बाहर एक विशिष्ट स्थान पर शादी के संबंध में नोटिस लगाना होता है. इस नोटिस के 30 दिनों के अंदर अगर कोई किसी तरह की आपत्ति नहीं जताता है तो वह व्यक्ति विवाह कर सकता है या उनका विवाह करवा दिया जाता है.
वकील प्रतीक श्रीवास्तव ने एबीपी से बात करते हुए कहा कि स्पेशल मैरिज एक्ट जेंडर न्यूट्रल नहीं है. इस अधिनियम के धारा 4 C के अनुसार विवाह करने के लिए लड़के की उम्र 21 साल और लड़की की उम्र 18 साल होनी चाहिए. इसके अलावा इसी अधिनियम की धारा 24 और 25 के अनुसार अगर सेक्शन 4 के तहत शादी नहीं होती, तो वो शादी अमान्य हो जाती है.
स्पेशल मैरिज एक्ट को दी गई चुनौती कितना सही
बीबीसी की एक रिपोर्ट में ‘हमसफर ट्रस्ट’ के संस्थापक कहते हैं, ”स्पेशल मैरिज एक्ट में केवल दो बालिग भारतीय नागरिकों की शादी को सहमति देने की बात होनी चाहिए. जो एक दूसरे से शादी करने के लिए तैयार हैं मानसिक और शारीरिक तौर पर तैयार हों .”
वहीं समलैंगिकों के अधिकारों के लिए काम करने वाली एक संस्था की सह संस्थापक मीनाक्षी कहती हैं, ‘ एक LGBTQ+ समुदाय के लोगों को अपनी जिंदगी में कई तरह के कड़वे अनुभवों से गुजरना पड़ता है. इसकी शुरुआत उनके अपने घर से ही हो जाती है. उन्हें घर के अंदर ही अपनी पहचान को लेकर हिंसा और दुर्व्यवहार झेलना पड़ता है. ऐसे में अगर वह 30 दिनों की नोटिस देते हैं तो उनके परिवार वाले ही इस शादी पर आपत्ति जता सकते हैं. इस समुदाय के लोग विवाह करना चाहते हैं तो उन्हें ये हक मिलना ही चाहिए.’
अधिकार मिलने से क्या बदलेगा उनके जीवन में
‘सेफो फ़ार इक्ववेलिटी’ समलैंगिकों के अधिकारों के लिए काम करने वाली एक संस्था की सह संस्थापक मीनाक्षी सान्याल ने बीबीसी की एक रिपोर्ट में बताया कि भारत में अगर विवाह के अधिकार हैं, तो ये सबके लिए होना चाहिए. उन्होंने कहा कि मैं पिछले 20 सालों से एक्टिविस्ट रही हूं और हमने बहुत कुछ अनुभव किया है. अब चाहे किसी का जेंडर और सेक्शुअल ओरिेएंटेशन कुछ भी हो, हमें ये अधिकार मिलना चाहिए.”
मीनाक्षी आगे कहती हैं, ‘ एक LGBTQ+ समुदाय के लोगों को अपनी जिंदगी में कई तरह के कड़वे अनुभवों से गुजरना पड़ता है. इसकी शुरुआत उनके अपने घर से ही हो जाती है. उन्हें घर के अंदर ही अपनी पहचान को लेकर हिंसा और दुर्व्यवहार झेलना पड़ता है. ऐसे में अगर इस समुदाय के लोग विवाह करना चाहते हैं तो उन्हें ये हक मिलना ही चाहिए.’
स्पेशल मैरिज एक्ट को खत्म करने पर आज की सुनवाई में सीजेआई ने क्या कहा
अदालत ने स्पेशल मैरिज एक्ट को खत्म करने पर कहा कि अगर स्पेशल मैरिज एक्ट को खत्म कर दिया जाता है तो यह देश को आजादी से पहले के युग में ले जाएगा. अगर कोर्ट दूसरा दृष्टिकोण अपनाते हुए स्पेशल मैरिज एक्ट में शब्द जोड़ती है तो यह संभवतः विधायिका की भूमिका होगी.
सीजेआई ने कहा कि शादी के अधिकार में संशोधन का अधिकार विधायिका के पास है लेकिन एलजीबीटीक्यू प्लस लोगों के पास पार्टनर चुनने और साथ रहने का अधिकार है और सरकार को उन्हें दिए जाने वाले अधिकारों की पहचान करनी ही चाहिए, ताकि ये कपल एक साथ बिना परेशानी के रह सकें.
समलैंगिक शादी को मान्यता मिलती है तो किस तरह के अधिकार मिलेंगे
वकील राजेश सिंह का मानना है कि समलैंगिक शादी को मान्यता मिलती है तो शादी के बाद जोड़े को परिवार कई तरह के अधिकारों का लाभार्थी बनाता है, उदाहरण के तौर पर पेंशन, इंश्योरेंस, ग्रेच्युटी, मेडिकल क्लेम आदि. इसके अलावा इंश्योरेंस, ग्रेच्युटी में नॉमिनी में स्पाउस का ऑप्शन दिया जाता है.
इसके अलावा अगर समलैंगिक शादी को मान्यता दे दी जाती है तो उन्हें पेंशन का भी हर मिलेगा, क्योंकि ऐसे डॉक्यूमेंट में नॉमिनी का ऑप्शन दिया गया है.
भारत में सबसे पहले किसने की थी सेम सेक्स शादी
उर्मिला श्रीवास्तव और लीला नामदेव मध्य प्रदेश पुलिस फोर्स की दो महिला पुलिसकर्मी थीं, जिन्होंने साल 1987 में एक-दूसरे से शादी की थी. उनकी शादी भारत में पहला डॉक्यूमेंटेड समलैंगिक विवाह था. दोनों महिलाओं ने गंधर्व अनुष्ठान का पालन करते हुए एक छोटे से समारोह में कुछ करीबी दोस्तों और परिवार की उपस्थिति में एक-दूसरे से शादी की थी.
24 फरवरी, 1988 को देश के सभी अखबारों में उनकी शादी की तस्वीरें “लेस्बियन पुलिस” शीर्षक से पहले पन्ने पर छपी थी. इन महिलाओं के एक साथी कैडेट ने उनकी शादी की तस्वीरें अपने सुपरवाईजिंग ऑफिसर को दिखाई और उस ऑफिसर ने इस शादी के खिलाफ कार्रवाई करने की ठानी. उन्होंने इन दोनों को नौकरी से निकाल दिया. जिसके कारण उर्मिला और लीला को भूखे रहने तक की नौबत का सामना करना पड़ा.
इस घटना ने ही भारत में LGBTQIA+ आंदोलन को जोड़ दिया. हालांकि, उस वक्त कई लोगों का मानना था कि “पश्चिमीकरण” होने के कारण दोनों “समलैंगिक” बन गई थीं. जिसके बाद यह जोड़ा कोर्ट तो पहुंचा लेकिन लेजबियन होने का मुद्दा छोड़कर उन्होंने खुद को बर्खास्त किए जाने का मामला उठाया. उन्हें डर था कि भविष्य में उनकी आय पर खतरा मंडरा सकता है.
इन देशों में लीगल है सेम सेक्स मैरिज
भारत में भले ही समलैंगिक विवाह को लेकर बहस छिड़ी हो लेकिन अमेरिका सहित दुनिया के 32 देशों में इस तरह की शादी लीगल है.
इन देशों में पहला नाम है नीदरलैंड का जहां 2000 में ही सेम सेक्स मैरिज पर कानून लाया गया था. इसके बाद साल 2003 बेल्जियम में, साल 2005 में कनाडा, इसी साल स्पेन, साल 2006 में साउथ अफ्रीका, 2008 में नार्वे, स्वीडन में 2009, अर्जेंटीना में 2010, पुर्तगाल में 2010, आइसलैंड में 2010, डेनमार्क में साल 2012, उरुग्वे में साल 2013, ब्राजील में 2012, न्यूजीलैंड में साल 2013, इंग्लैंड और वेल्स में 2013, फ्रांस में 2013, लक्जमबर्ग में 2014, स्कॉटलैंड में 2014, अमेरिका में 2015, आयरलैंड में 2015, फिनलैंड-2015, ग्रीनलैंड-2015, कोलंबिया-2016, माल्टा-2017, ऑस्ट्रेलिया-2017, जर्मनी-2017, ऑस्ट्रिया-2019 ताइवान-2019, इक्वाडोर-2019, नार्दन आयरलैंड-2019, कोस्टा रिका में साल 2020 में कानून लाया गया था.
‘जेंडर आइडेंटिफिकेशन’ जैसे शब्दों को सबसे पहले किसने किया था मशहूर
यह बात है 1950 और 60 के दशक की. उस वक्त सेक्सोलॉजिस्ट जॉन मनी ने बड़े पैमाने पर एलजीबीटीक्यू की समस्या को उठाया गया. साल 1955 में वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने शारीरिक रूप से बनाए गए फर्क के अलावा पुरुषों और महिलाओं में व्यवहारिक रूप से जो अंतर होता है उसे उजागर किया था.
आसान भाषा में समझे तो जन्म के साथ ही एक लड़का और लड़की जैविक रूप से निर्धारित यौन विशेषताओं के साथ पैदा होते हैं लेकिन ये जरूरी नहीं कि वह अपने लिंग के अनुसार ही मानसिक तौर पर पुरुष या महिला जैसा महसूस कर.
बाद में उन्होंने ही ‘जेंडर आइडेंटिफिकेशन’ जैसे शब्दों को लोकप्रिय बनाया था और साल 1966 में अमेरिका के बाल्टीमोर में जॉन हॉपकिंस विश्वविद्यालय में दुनिया का पहला जेंडर आइडेंटिफिकेशन क्लिनिक भी स्थापित किया, जो ट्रांसजेंडर रोगियों के मनोवैज्ञानिक और चिकित्सा उपचार में विशेषज्ञता रखता था.
भारत में केवल 3% लोग ही खुद को मानते हैं गे या लेज्बियन
साल 2021 में LGBT+ Pride 2021 ग्लोबल सर्वे के आंकड़ों के की मानें तो हमारे देश में कुल आबादी का केवल 3 प्रतिशत ही खुद को गे या लेज्बियन मानता है. वहीं 9 प्रतिशत आबादी ऐसी है जो अपने आप को बाय-सेक्सुअल कहती है और 2 प्रतिशत लोग खुद को असेक्सुअल समझते हैं.
इंग्लैंड के अख़बार डेली मेल के एक खबर के अनुसार पिछले कुछ सालों में इंग्लैंड में स्ट्र्रेट लोगों की संख्या में कमी आई है. यहां स्ट्रेट एडल्ट की संख्या में 1% से ज्यादा की गिरावट पाई गई. इसी खबर के मुताबिक इंग्लैंड में अब पहले से कहीं ज्यादा लोग अपनी पहचान लेस्बियन, गे और बाईसेक्सुअल लोगों के तौर पर कर रहे हैं. यहां 16 से 24 साल के उम्र वर्ग में अब हर बारहवां व्यस्क LGB समूह का हिस्सा है.