तीन राज्यों के चुनावी मैदान में !
राजनीतिक माहौल:तीन राज्यों के चुनावी मैदान में अब आवाजाही का मौसम
मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनाव मैदान में अब आवाजाही का मौसम है। जिन्हें टिकटें नहीं मिलीं वे या तो दूसरे प्रमुख दल की शरण में जा रहे हैं या वहाँ भी जगह न मिलने पर छोटे दलों का रुख़ कर रहे हैं। तीनों ही राज्यों में छोटे दल टिकट घोषणा में इसीलिए देरी कर रहे हैं। वे जानते हैं कि बड़े दलों के नाराज़ नेता कहीं शरण न मिलने पर आख़िर उनकी ही झोली में गिरने वाले हैं।
राजस्थान में तो हाल यह है कि दोनों ही प्रमुख पार्टियाँ अपने प्रत्याशियों की अगली सूचियाँ जारी नहीं कर पा रही हैं। ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि उन्हें विरोध की आंधी चलने का डर है। दरअसल ये पार्टियाँ अब नामांकन के एक दिन पहले ही प्रत्याशियों के नाम जारी करने वाली हैं ताकि विरोध पनपे तब तक नामांकन की तारीख़ निकल जाए और छोटे- मोटे विरोध भी जयकारों में खो जाएँ।
पार्टियों के भीतर भी गुटीय झगड़े हैं और वे साफ़ दिखाई दे रहे हैं। किसी को मनाया जाता है तो किसी को कहीं भी जाने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया जाता है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल इस वक्त ये है कि टिकट न मिलने पर या और किसी कारण से दल बदलने वाले नेताओं पर भरोसा क्यों किया जाए? एक राजनीतिक दल के रूप में या उसके नेता के रूप में आप सरकार में बैठकर या विपक्ष में रहकर जो भी निर्णय लेते हैं उनमें तो यह माना जा सकता है कि कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में इसमें जनता का हित होता होगा लेकिन दल बदलने में तो जनता का कोई हित नहीं होता।
यह तो पूरी तरह नेताओं के निजी स्वार्थ का मामला है। इसमें किसी दूसरे का क्या हित? फिर हम इन दल बदलुओं को वोट क्यों देते हैं? जो कल तक किसी पार्टी को अपना सबकुछ समझता रहा, उसकी क़समें खाता रहा। आज वही नेता, उसी पार्टी की अचानक निंदा करने लगे तो इसे आप क्या कहेंगे? जो नेता अपनी आस्था ही बदल लें, उन पर हम आम लोग विश्वास क्यों और कैसे करें?
देखा यह जाता है कि सत्ता और कुर्सी के लिए जब- तब पार्टी बदलने वाले नेताओं को हम बार- बार जिताते रहते हैं। इसी से इनका हौसला बढ़ता जाता है। हम यह कभी नहीं सोचते कि जो अपनी पार्टी का नहीं हुआ, वो हमारे बारे में क्यों सोचेगा? हमारे हित के निर्णय लेने की बात तो बड़ी दूर की कौड़ी है। कुल मिलाकर, बात यह है कि हम चुनाव जैसे महत्वपूर्ण विषय में रुचि ही नहीं लेते। जबकि हक़ीक़त यह है कि हमारा एक वोट भी इतनी ताक़त रखता है कि किसी भी पार्टी या नेता को सत्ता में ला सके या सत्ता से दूर कर सके। इसके बावजूद हम अपनी ही ताक़त को पहचान नहीं पा रहे हैं। हमें अपनी यह आदत, अपना यह रुख़ अब बदलना चाहिए। उद्देश्य यही होना चाहिए कि जीत हमेशा सच की हो।