देश की सारी औरतों ने एक दिन छुट्‌टी ली और पूरा देश रुक गया !

देश की सारी औरतों ने एक दिन छुट्‌टी ली और पूरा देश रुक गया …

लेकिन उस घटना ने न सिर्फ आइसलैंड की महिलाओं की कहानी बदलकर रख दी, बल्कि पूरी दुनिया में वह अपनी तरह की अनूठी मिसाल बन गई।

हड़ताल का मकसद था वेतन में भेदभाव (जेंडर पे गैप) और लैंगिक हिंसा को पूरी तरह खत्म करना। उन्होंने अपने आंदोलन का नारा दिया- “क्या इसे ही आप बराबरी कहते हैं?”

हड़ताल सिर्फ दफ्तरी काम की नहीं थी। हर तरह के काम की थी। घर-बाहर हर जगह महिलाओं ने तय किया कि आज वो कोई काम नहीं करेंगी। प्रधानमंत्री ने कहा कि वो आज दफ्तर नहीं जाएंगी। घर बैठी महिलाओं ने कहा कि आज वो न खाना बनाएंगी, न सफाई करेंगी, न कपड़ा-बर्तन करेंगी, न बच्चों को संभालेंगी। वो कुछ नहीं करेंगी।

आपको लगेगा कि एक दिन काम न करने से क्या ही फर्क पड़ता है। आप शायद सुनकर इस बात की गंभीरता का अंदाजा भी न लगा पाएं। इसलिए आपको 48 साल पीछे ले चलते हैं।

24 अक्तूबर, 1975। पूरी दुनिया की तरह आइसलैंड में भी औरत और मर्द के बीच असमानता की खाई बहुत गहरी थी। घर से लेकर बाहर तक हर जगह मर्दों की सत्ता थी। वो ताकत की पोजीशन में थे। देश की 90 फीसदी से ज्यादा संपदा पर मालिकाना हक रखते थे। आज तक देश में एक भी महिला प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति नहीं हुई थी। हर सत्ता केंद्र में सिर्फ मर्दों का कब्जा था।

औरतों की न जिंदगी की कद्र थी, न उनके श्रम की। और तभी ये हुआ कि एक दिन पूरा का पूरा देश अचानक रुक गया।

आइसलैंड की सारी महिलाएं एक दिन अचानक छुट्‌टी पर चली गईं। तारीख थी 24 अक्तूबर, दिन शुक्रवार। आइसलैंड के इतिहास में वह दिन ‘द लॉन्ग फ्राइडे’ के नाम से जाना जाता है.

आप कल्पना कर सकते हैं कि एक देश की पूरी की पूरी आधी आबादी यानी औरतें अगर अचानक काम करने से इनकार कर दें तो क्या होगा। शायद आपको लगे कि कुछ भी नहीं होगा। औरतों के लिए तो मर्दों को वैसे भी लगता है कि आखिर वो करती क्या हैं। देश-दुनिया को चलाने वाले सारे महान और उत्पादक श्रम तो सिर्फ पुरुष करते हैं। फिर औरतों के छुट्‌टी पर जाने से क्या फर्क पड़ता है।

जब एक साथ पूरे देश की महिलाएं सड़कों पर उतर आईं। 24 अक्तूबर, 1975, आइसलैंड।

मर्दों के इसी शातिर मुगालते को दूर करने के लिए औरतों ने ये कदम उठाया था।

तो उस दिन हुआ ये कि किसी घर में खाना नहीं बना। रेस्त्राओं, होटलों और फूड जॉइंट में खाना खरीदने वालों की भयानक भीड़ लग गई। मांओं ने किसी बच्चे को सुबह उठकर स्कूल के लिए तैयार नहीं किया। किसी बच्चे की नैपी नहीं बदली, खाना नहीं खिलाया, उसके पोतड़े नहीं धोए। वो सब की सब घर से निकलकर सड़कों पर उतर आईं। अकेले आइसलैंड की राजधानी रेक्याविक में तीस हजार औरतें सड़कों पर थीं।

घरों का सारा कामकाज अचानक ठप पड़ गया। मर्द इस जिम्मेदारी के लिए तैयार नहीं थे, जो अचानक उनके सिर आ पड़ी। बहुत सारे पुरुष उस दिन दफ्तर जा ही नहीं पाए। अकेले, भूखे बच्चों को छोड़कर कैसे जाते। बहुतों को बच्चों को साथ लेकर ऑफिस जाना पड़ा। दफ्तरों में रोते-चिल्लाते, शोर मचाते बच्चों का रेला लग गया। होटलों-रेस्त्राओं में खाना खत्म हो गया। घर गंदे पड़े रहे। बच्चे भूखे, रोते, गंधाते हुए। और वो सारा केयरगिविंग का मुफ्त श्रम जो औरतें करती थीं, उसके अभाव में मर्द एक दिन में लाचार हो गए। लांड्री में कपड़ों का ढेर, घरों में कचरे का ढेर।

सिर्फ एक दिन।

सिर्फ एक दिन औरतों ने काम करने से इनकार किया और पूरा का पूरा देश मानो पटरी से उतर गया। मर्द सिर्फ एक दिन इस जिम्मेदारी को ढंग से निभा नहीं पाए, जिसे औरतें सदियों से निभाती आ रही थीं और उनके काम को कोई महत्व नहीं मिलता था। उसे दोयम दर्जे का समझा जाता, जिसकी उत्पादन और राष्ट्र के निर्माण में कोई भूमिका नहीं थी।

मर्दों को उनके श्रेष्ठता बोध से बाहर निकालने और सुनहरी नींद से जगाने के लिए ऐसे ही एक झटके की जरूरत थी, जो आइसलैंड की औरतों ने उन्हें दिया था।

1975 में यह ऐतिहासिक घटना घटी और उसके एक साल बाद 1976 में आइसलैंड में जेंडर इक्वैलिटी कानून लागू हुआ। संविधान में बदलाव हुआ। जीवन के हर क्षेत्र में जेंडर बराबरी को सुनिश्चित किया गया। इस कानून के आने के पांच साल बाद 1 अगस्त, 1980 को विग्दिस फिनबोदोतिर आइसलैंड की पहली महिला राष्ट्रपति बनीं और अगले 16 साल इस पद पर बनी रहीं।

मर्दों के शातिर मुगालते को दूर करने के लिए सड़कों पर उतरी औरतें
बराबरी की यह यात्रा यहीं समाप्त नहीं हुई। वो लगातार आगे बढ़ती और मजबूत होती रही। आज आइसलैंड की प्रधानमंत्री एक महिला हैं। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के जेंडर इक्वैलिटी इंडेक्स में दुनिया के 246 देशों में आइसलैंड सबसे ऊपर है। वहां की संसद में महिलाओं और पुरुषों की संख्या बराबर है। वहां महिलाओं को समान काम का समान वेतन मिलता है। उस देश में बच्चा पालना सिर्फ औरतों का काम नहीं है। मैटरनिटी और पैटरनिटी लीव बराबर है।

संसद में, दफ्तर में, सड़क पर, कामकाजी जगहों पर बड़ी संख्या में औरतों के दिखने का क्या असर होता है, इससे जुड़ा एक मजेदार वाकया है, जो डॉ. ब्रूस डी पैरी और माइया जॉलावित्ज ह्यूमन साइकॉलजी की अपनी किताब ‘बॉर्न फॉर लव’ में लिखते हैं। आइसलैंड में पैदा हुआ एक बच्चा एक दिन टेलीविजन पर देख रहा था कि बिल क्लिंटन नाम का कोई आदमी अमेरिका का प्रेसिडेंट बन गया है। वो आश्चर्य से अपनी मां की ओर पलटकर पूछता है, “लेकिन मम्मी, प्रेसिडेंट तो औरतें होती हैं न।”

बच्चे जो देखते हैं, उसी से सीखते हैं। हमारे देश के बच्चों को अगर हर ताकतवर जगह पर सिर्फ मर्दों को देखने की आदत है और औरतों को रसोई में तो वो यही सीखेगा कि औरतें रोटी बनाती हैं और मर्द देश चलाते हैं। जितने भोलेपन से उस बच्चे ने पूछा कि प्रेसिडेंट तो सिर्फ औरतें होती हैं।

फिलहाल लौटते हैं इस महीने की 24 तारीख को। 48 साल बाद एक बार फिर आइसलैंड की औरतों ने उसी पुराने इतिहास को दोहराने की कोशिश की है। हमें लग सकता है कि इतनी बराबरी तो आइसलैंड की महिलाओं ने हासिल कर ली। दुनिया में पहले नंबर पर हैं। यह सच है कि वहां दुनिया में सबसे ज्यादा जेंडर बराबरी है, लेकिन फिर भी पूरी तरह नहीं है। मर्दों का दर्जा और ओहदा अब भी ऊंचा है। जेंडर पे गैप पूरी तरह खत्म नहीं हुआ।

और इसकी वजह वही है, जिसे जॉर्डन पीटरसन जैसे तथाकथिक इंटेलेक्चुअल पूरी बेशर्मी के साथ डिफेंड करते हैं। पुरुषों को ज्यादा पैसे इसलिए मिलते हैं क्योंकि वो हाई रिस्क, हाई पेड जॉब्स में बड़ी संख्या में हैं। औरतें सॉफ्ट काम करती हैं, जो हाई पेड जॉब नहीं है। आइसलैंड की प्रधानमंत्री का इस पर तर्क है कि पुरुषों की प्रधानता वाले प्रोफेशंस की तरह उन प्रोफेशंस का भी महत्व बढ़ना चाहिए, जिसमें बड़ी संख्या में सिर्फ औरतें हैं। औरतों को उनकी बायलॉजिकल बनावट और चॉइस के लिए गैरबराबरी की सजा नहीं दी जा सकती।

24 अक्तूबर, 2023 को आइसलैंड में 48 साल पुराना इतिहास एक बार फिर दोहराया गया।

मर्दों को लगता है न कि वो हवाई जहाज बना रहे हैं, माइनिंग कर रहे हैं तो उन्हें किसी स्कूल में बच्चों को पढ़ा रही या अस्पताल में डॉक्टर और नर्स बनकर केयरगिविंग जॉब कर रही औरतों के मुकाबले ज्यादा पैसा मिलना चाहिए। उन्हें मिल भी रहा है।

लेकिन इसी गैरबराबरी पर तो आइसलैंड की औरतें सवाल उठा रही हैं। 48 साल पहले सब कामों से छुट्‌टी लेकर सड़कों पर उतरी औरतें यही कहना चाह रही थीं कि खाना बनाने, बच्चे की नैपी बदलने और उसे दूध पिलाने का काम देश चलाने से कम महत्वपूर्ण नहीं है। उनके श्रम को बेगार समझना बंद होना चाहिए। उसकी उत्पादक श्रम में गणना होनी चाहिए, उन्हें इस श्रम की कीमत मिलनी चाहिए।

उनके श्रम की कीमत कितनी है, ये हमें तब समझ में आएगा जब हमारे देश में 65 करोड़ एक दिन की छुट्‌टी ले लें। वो कोई भी काम करने से इनकार कर दें। सड़कों पर उतरकर जुलूस निकालें, नदी में पैर डालकर बैठें या पार्क की बेंच पर जाकर लेट जाएं। सिर्फ और सिर्फ एक दिन के लिए वो कोई भी काम करने से इनकार कर दें। एक दिन में यह देश मुंह के बल गिर पड़ेगा।

लेकिन शुक्र मनाइए कि अपने यहां औरतों की गुलामी की ट्रेनिंग इतनी मजबूत है कि आइसलैंड जैसा कुछ यहां दोहराने के लिए अभी दो सौ साल और लगेंगे।

तब तक इस देश के पुरुष औरतों के मुफ्त श्रम और सेवाओं का लाभ उठाएं और अपने श्रेष्ठताबोध में डूबे रहें।

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