तारीख पे तारीख’ की समस्या निचली अदालतों में ज्यादा !
तारीख पे तारीख’ की समस्या निचली अदालतों में ज्यादा
पिछले हफ्ते सीजेआई चंद्रचूड़ ने वही कहा जो लाखों भारतीय दशकों से दोहराते आ रहे हैं : सुप्रीम कोर्ट को तारीख पे तारीख कोर्ट में तब्दील न करें। दरअसल चीफ जस्टिस मुख्य मुद्दे से फिर भी चूक गए। तारीख पे तारीख की समस्या निचली अदालतों में कहीं अधिक है। लेकिन जब बीमारी उच्चतर न्यायालयों को संक्रमित करती है तभी उसका संज्ञान लिया जाता है।
सीजेआई ने 3 नवंबर को यही कहा था : ‘अधिवक्ताओं को तब तक स्थगन पर्ची दाखिल नहीं करनी चाहिए जब तक कि यह अत्यंत महत्वपूर्ण न हो। उच्च न्यायालयों में स्थगन पर्ची की अवधारणा नहीं है। मैं नहीं चाहता कि सुप्रीम कोर्ट को ‘तारीख पे तारीख कोर्ट’ बना दिया जाए। इससे जनता के बीच सर्वोच्च न्यायालय की अच्छी छवि नहीं बनती है।’
सीजेआई ने शिकायत की कि वकीलों ने 1 सितंबर से 3 नवंबर के बीच हर दिन औसतन 154 स्थगन पर्चियां भेजीं। इससे न्याय-प्रक्रिया में देरी होती है, और कभी-कभी तो यह उन लोगों के इशारे पर जानबूझकर किया जाता है, जो अपने कमजोर केस का बचाव कर रहे होते हैं। लेकिन सीजेआई ने इस समस्या का कोई इलाज नहीं सुझाया।
निचली अदालतों में तो यह बढ़-चढ़कर होता है। वकील अक्सर कई मुकदमे ले लेते हैं। विभिन्न मंजिलों पर मौजूद अदालत कक्षों के बीच दौड़ते हुए वे अपने जूनियर्स से स्थगन मांगने के लिए कहते हैं। इससे दूसरे शहरों से आए मुवक्किलों का पैसा और समय बर्बाद होता है क्योंकि अदालत अगली सुनवाई कई महीनों के बाद रखती है।
यही कारण है कि वर्तमान में अधीनस्थ अदालतों, उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में 5 करोड़ से ज्यादा मामले लंबित हैं। भर्तियां नहीं हो रही हैं। कर्मचारियों को कम वेतन दिया जाता है। वरिष्ठ वकीलों को अक्सर हाई-प्रोफाइल मामले मिलते हैं।
उनके मुवक्किलों की सुनवाई आधी रात को या यहां तक कि वरिष्ठ न्यायाधीश के आवास पर भी होती है। मामलों का लंबित होना आपराधिक न्याय प्रणाली में दोष का ही लक्षण है। इसका कारण पुलिस सुधारों का विरोध, न्यायिक जवाबदेही की कमी और वरिष्ठ वकीलों का गैरजिम्मेदाराना आचरण है।
पुलिस सुधारों के विरोध ने तो आपराधिक न्याय सुधारों का मजाक बना दिया है। अकेले मुंबई की आर्थर रोड जेल में 77 फीसदी कैदी विचाराधीन हैं। कई लोगों ने दोषी पाए जाने पर मिलने वाली अधिकतम सजा से भी अधिक साल जेल में पहले ही बिता लिए हैं। पुलिस-प्रबंधन राज्य का विषय है।
पुलिस सुधारों पर सितंबर 2006 में जारी सुप्रीम कोर्ट के सात-सूत्रीय निर्देश की अधिकांश राज्यों द्वारा बड़े पैमाने पर अवहेलना की गई है। शीर्ष अदालत ने इस घोर अवज्ञा को भी बख्श ही दिया है। बीसीसीआई में सुधार पर लोढ़ा समिति की रिपोर्ट के साथ भी ऐसा ही किया गया था।
यदि शीर्ष अदालत अपने ही फैसलों का सम्मान नहीं करती है, तो न्यायिक और कानून प्रवर्तन संस्थाओं में निचले स्तर के लोग इसका पालन कैसे करेंगे? राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) की स्थापना को खारिज करने से न्यायिक जवाबदेही भी अपारदर्शी बनी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)