आरोपमुक्त होने के बाद भी बैल बॉन्ड भरना होता है जरूरी ?

आरोपों से बरी हुए शख्स को बेल बॉण्ड या सिक्योरिटी भरना क्यों है जरूरी?
सुप्रीम कोर्ट में एक अपराधिक कानून को संवैधानिक मान्यता देने के मामले के बाद आरोपों से बरी हुए आरोपी को बेल बॉन्ड और सिक्योरिटी देने की आवश्यकता पर सवाल खड़े हो गए हैं.
उच्चतम न्यायालय ने सोमवार को एक आपराधिक कानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर केंद्र से जवाब मांगा है, जिसमें बरी किए गए व्यक्ति को भी जेल से रिहा होने से पहले  बॉण्ड भरने और जमानत देने की आवश्यकता की बात कही गई है. इस मामले में मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने याचिका पर केंद्र और राज्यों को नोटिस जारी किया और मामले में अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी से सहायता मांगी है.

दरअसल आपराधिक प्रक्रिया की संहिता (सीआरपीसी) की धारा 437ए के तहत बरी किए गए व्यक्ति को भी जेल से रिहा होने के लिए 6 महीने की अवधि के लिए वैध बॉण्ड और जमानत जमा करना जरूरी होता है और यदि वो व्यक्ति जमानत देने में असमर्थ होता है तो उसे जेल में ही रहना होता है. ये मामला उस वक्त चर्चाओं में आ गया जब वकील अजय वर्मा द्वारा दायर याचिका के अनुसार, एक बरी किया गया व्यक्ति, जो बरी होने के बावजूद जमानत बॉण्ड हासिल करने की स्थिति में नहीं है, लगातार कारावास की सजा भुगत रहा है.

आरोपों से बरी शख्स को क्यों देनी होती है जमानत?
सीआरपीसी की धारा 437ए के अनुसार बरी किए गए व्यक्ति को हिरासत से रिहा होने के लिए छह महीने की अवधि के लिए वैध जमानत बॉण्ड और जमानत जमा करने का आदेश देती है. ऐसा ये सुनिश्चित करने के लिए किया जाता है कि यदि राज्य व्यक्ति को बरी किए जाने के खिलाफ अपील करना चाहता है तो वो उपलब्ध रहे. 

मामले में याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि इस नियम के चलते गरीब और आर्थिक रूप से वंचित आरोपी के खिलाफ भेदभाव होता है. जिनके पास वित्तीय साधन हैं वो आसानी से आवश्यक जमानत राशि प्राप्त कर सकते हैं, जबकि जिनके पास साधन नहीं हैं वे बरी होने के बावजूद जेल में रह रहे हैं. याचिकाकर्ता ने इस प्रावधान को कानूनी प्रक्रिया में लगातार हो रही देरी से जोड़ा है.

क्या होता है बेल बांड
जमानत बांड या बेल बांड एक कानूनी दस्तावेज होता है, जो एक व्यक्ति को जेल से रिहा करने के लिए जरूरी होता है. यदि किसी व्यक्ति पर किसी अपराध का आरोप है और वो न्यायालय में उपस्थित होता है, तो उसे जमानत दी जा सकती है. जमानत बांड एक तरह का सुरक्षा प्रमाणपत्र होता है जिसका उपयोग उस व्यक्ति की जमानत के रूप में किया जाता है.

जब एक व्यक्ति को जमानत दी जाती है, तो वो नियमित रूप से न्यायिक प्रक्रिया में शामिल होने के लिए वापस आ सकता है, लेकिन उसे नियमित रूप से न्यायिक स्थान पर जैसे पुलिस स्टेशन या न्यायालय में हाजिर होना जरूरी होता है. जब जमानत बांड जमा किया जाता है, तो उसमें लिखित राशी की धनराशि, संबंधित नियमों और शर्तों का पालन करने का वादा और अन्य संबंधित जानकारी दी होती है. यदि व्यक्ति नियमित रूप से न्यायिक प्रक्रिया में शामिल नहीं होता है, तो जमानत बांड खत्म हो जाता है और व्यक्ति को फिर जेल भेजा जा सकता है.

जमानत में देरी पर संज्ञान ले चुका है सुप्रीम कोर्ट
वहीं इसी साल संविधान दिवस पर राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मु ने जमानत में देरी को लेकर भी अपील की थी. सुप्रीम कोर्ट के समारोह में भाषण के दौरान राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने अपने भावुक अपील में कहा था कि देश के जेलों में बंद हजारों कैदियों के पास जमानत पर रिहाई का कोर्ट का ऑर्डर तो है, लेकिन उनके पास जमानत राशि के पैसे नहीं है और इस कारण वो जेल में ही बंद हैं. राष्ट्रपति ने कहा था कि इस मामले में कोर्ट और सरकार को कुछ करना चाहिए. जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने इस मामले में स्वत: संज्ञान लेते हुए रिपोर्ट तलब की थी और जमानत दिए जाने के बाद हिरासत में रहने वाले कैदियों के लिए 7 निर्देश जारी किए थे.

जिसके तहत अदालत जो एक अंडर ट्रायल कैदी या दोषी को जमानत देती है, उसे उसी दिन या अगले दिन जेल अधीक्षक के माध्यम से कैदी को ई-मेल द्वारा जमानत आदेश की सॉफ्ट कॉपी देनी होगी. इसके अलावा जेल अधीक्षक को ई-जेल सॉफ्टवेयर या कोई अन्य सॉफ्टवेयर जो जेल विभाग द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा हो, उसमें जमानत देने की तारीख दर्ज करनी होगी.

वहीं यदि जमानत मिलने के 7 दिनों के अंदर कोई आरोपी रिहा नहीं हुआ है तो जेल अधीक्षक का ये कर्तव्य होगा कि इसकी सूचना  DLSA (जिला विधिक सेवा प्राधिकरण) के सचिव को दें. जो हर संभव तरीके से कैदी की रिहाई के लिए उसकी सहायता करे. इसके लिए वो पैरा लीगल वालंटियर या जेल विजिटिंग एडवोकेट को नियुक्त कर सकता है.

वहीं एनआईसी ई-जेल सॉफ्टवेयर में आवश्यक फील्ड बनाने की कोशिश करेगा ताकि जेल विभाग द्वारा जमानत देने की तारीख और रिहाई की तारीख दर्ज की जा सके. इस दौरान यदि कैदी 7 दिनों के अंदर रिहा नहीं होता है तो एक स्वचालित ईमेल सचिव DLSA को भेज सकता है.

इसके अलावा सचिव DLSA अभियुक्तों की आर्थिक स्थिति का पता लगाने की दृष्टि से परिवीक्षा अधिकारियों या पैरा लीगल वालंटियर्स की मदद ले सकता है. ताकि कैदी की सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर एक रिपोर्ट तैयार हो सके. जिसे संबंधित न्यायालय को जमानत की शर्तों में ढील देने में अनुरोध करने में मदद मिल सके.

वहीं ऐसे मामलों में जहां अंडरट्रायल या दोषी अनुरोध करता है कि वो एक बार रिहा होने के बाद जमानत बांड या अपनी जमानत दे सकता है तो उस मामले में अदालत अभियुक्त को एक विशिष्ट अवधि के लिए अस्थायी जमानत देने पर विचार कर सकती है. ताकि वो जमानत बांड या जमानत अदालत के सामने प्रस्तुत कर सके.

यदि जमानत देने की तारीख से एक महीने के भीतर जमानत बांड प्रस्तुत नहीं किया जाता है, तो संबंधित न्यायालय इस मामले को स्वतः संज्ञान में ले सकता है और विचार कर सकता है कि क्या जमानत की शर्तों में संशोधन या छूट की आवश्यकता है.

अभियुक्त या दोषी की रिहाई में देरी का एक कारण स्थानीय जमानत पर जोर देना है. निर्देश ये भी था कि ऐसे मामलों में अदालतें स्थानीय जमानत की शर्त नहीं लगा सकती हैं.

क्या है जमानत का इतिहास?
अमेरिकी कानून में जमानत का एक लंबा इतिहास रहा है. इंग्लैंड में मध्यकाल के दौरान जमानत या बेल देने जैसी चीजें सामने आई थीं. जिसके चलते जेल में बंद कैदियों के लिए किसी तीसरे पक्षकार द्वारा उसकी रिहाई और अदालत में उसकी पेशी की जिम्मेदारी ली जाती थी. 

इसके चलते मध्ययुग में कई सारे कैदियों को इसी तर्ज पर जेलों से छोड़ा जाने लगा था. लेकिन अभियुक्त उस समय अदालत में पेश नहीं होता था तो उसकी जगह जमानत दिलवाने वाले को उस जगह पर उपस्थित रहना होता था. बाद में इसे आधुनिक काल में प्रक्रियात्मक विधि का अंग बना लिया गया. ऐसे ही प्रावधान हमारे दंड प्रक्रिया संहिता के अध्याय 33 में भी हैं.

आपको ये जानकर आश्चर्य होगा कि जमानत शब्द आईपीसी में कहीं भी नहीं लिखा गया है. इसके स्थान पर मामलों को सिर्फ जमानतीय और अजमानतीय जैसे दो भागों में बांटा गया है. कानूनी किताब में इसकी वास्तविक परिभाषा कुछ नहीं है. बल्कि सिर्फ जमानत देने की सही प्रक्रिया लिखी गई है.

हैल्सबरी लॉस ऑफ इंग्लैंड के अनुसार, जमानत अभियुक्त की अंतरिम रिहाई को दर्शाती है. जिन मामलों में अदालत अपने अंतिम फैसला नहीं सुनाती उन्हें जमानत देनी होती है. वहीं आसान शब्दों में कहा जाए तो जमानत का मतलब अभियुक्त को कोर्ट के समक्ष अपनी उपस्थिति के लिए सिक्योरिटी जमा करवानी होती है.

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