हैदराबाद के मजबूत किला को इस बार बचा पाएंगे ओवैसी बंधु?

तेलंगाना चुनाव: हैदराबाद के मजबूत किला को इस बार बचा पाएंगे ओवैसी बंधु?
एनजीओ हेल्पिंग हैंड के एक सर्वे के मुताबिक हैदराबाद के 63 प्रतिशत मुसलमान गरीब रेखा के नीचे हैं, जो सरकारी खैरात, अल्प दैनिक कमाई और दान के भरोसे अपना जीवनयापन कर रहे हैं.

भाग्यनगर के गूंजते नारे और सड़कों पर पड़े पतंग और पंजे के बेहिसाब पट्टों ने हैदराबाद के चुनाव को रोचक बना दिया है. हिंदुत्व के रथ पर सवार भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) हैदराबाद पर अधिक फोकस कर रही है. वही हैदराबाद,जो पिछले 50 सालों से ओवैसी परिवार का गढ़ बना हुआ है.

हैदराबाद के इस गढ़ को बचाने के लिए ओवैसी बंधु भी मजबूती से मैदान में डटे हुए हैं. हालांकि, मुकाबला चतुष्कोणीय होने की वजह से एआईएमआईएम के लिए राह आसान नहीं है. हैदराबाद में विधानसभा की कुल 8 सीटें हैं.

2018 के चुनाव में ओवैसी की पार्टी ने इनमें से 7 सीटों पर जीत हासिल की थी. एक सीट पर बीजेपी के टी राजा सिंह को जीत मिली थी. टी राजा सिंह विवादित बयानों की वजह से सुर्खियों में रहते हैं.

कांग्रेस ने भी इस बार हैदराबाद फतह के लिए पूरी ताकत झोंक दी है. चुनाव प्रचार के आखिरी दिन प्रियंका गांधी हैदराबाद के गलियों की खाक छानती नजर आएंगी. 

निजाम का शहर हैदराबाद और उसकी सियासत
हर शहर की तरह हैदराबाद का भी अपना इतिहास है, लेकिन यह वर्तमान में विवादित है. संघ से जुड़े इतिहासकार लंबे वक्त से इसे भाग्यनगर बता रहे हैं. उनका तर्क शहर में भाग्यलक्ष्मी मंदिर होने से जुड़ा है. 

हालांकि, कुछ इतिहासकारों का दावा इससे अलग है. इन इतिहासकारों के मुताबिक सुल्तान मुहम्मद कुली कुतुब शाह ने अपनी प्रेमिका के नाम पर इस शहर को बसाया है. कुली कुतुब शाह की प्रेमिका का नाम भाग्यमती था, जो बाद में हैदर महल बनीं.

आजादी के वक्त हैदराबाद की सत्ता निजामों के हाथ में थी. जब विलय की बात आई, तो निजामों ने ना-नुकुर कर दिया, लेकिन सेना के ऑपरेशन और बढ़ते दबाव ने निजाम को संधि पत्र पर हस्ताक्षर करने को मजबूर कर दिया. 

हैदराबाद भारत का हिस्सा तो बन गया, लेकिन इसकी सियासत निजाम के इर्द-गिर्द ही घूमती रही. आजादी से पहले निजाम का खुलकर समर्थन करने वाली एआईएमआईएम पिछले 60 सालों से यहां की सत्ता केंद्र बना हुआ है. 

हैदराबाद में विधानसभा की कुल 8 सीटें हैं, जिनमें मालकपेट, कारवां, गोशामहल, चारमीनार, चंद्रयानगुट्टा, यकुतपुरा और बहादुरपुरा सीट शामिल हैं. गोशामहल को छोड़कर सभी सीटों पर ओवैसी की पार्टी का वर्तमान में कब्जा है.

हैदराबाद कैसे बना ओवैसी परिवार का गढ़?
असदुद्दीन और अकबरुद्दीन ओवैसी को सियासत विरासत में मिली है. असदुद्दीन के पिता सुल्तान सलाहुद्दीन हैदराबाद के सांसद रह चुके हैं. असदुद्दीन के दादा अब्दुल वाहिद ओवैसी एआईएमआईएम के संस्थापक सदस्य थे. 

1957 में उन्होंने मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एमआईएम) को ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) में बदला. वाहिद को एमआईएम संगठन कमर रजवी से मिला था, जो विभाजन के वक्त पाकिस्तान चले गए थे. 

एआईएमआईएम को पहली बड़ी सफलता 1984 के लोकसभा चुनाव में मिली. इस चुनाव में निर्दलीय लड़े सुल्तान सलाहुद्दीन ओवैसी ने टीडीपी के प्रभाकर रेड्डी को करीब 3500 वोटों से हरा दिया. 

इसके बाद ओवैसी परिवार को यहां से कभी हार का सामना नहीं करना पड़ा. लोकसभा चुनाव जीतने के बाद ओवैसी परिवार हैदराबाद को अपना गढ़ बनाना शुरू कर दिया. इसके लिए विकास के साथ-साथ जातीय राजनीति को भी साधा गया.

1986 में पहली बार सलाहुद्दीन ओवैसी ने हैदराबाद नगर निकाय के चुनाव में दलित मेयर उम्मीदवार उतार कर सबको चौंका दिया. दलित और मुस्लिम समीकरण होने की वजह से उनके उम्मीदवार जीत भी गए. 

हैदराबाद के इतिहास में पहली बार कोई दलित मेयर बना था. सलाहुद्दीन की इस रणनीति को उनके दोनों बेटों ने भी आगे बढ़ाया. दलित, मुस्लिम और पिछड़े समीकरण के सहारे ओवैसी बंधु हैदराबाद सियासत के सुल्तान बने हुए हैं. 

हैदराबाद में 43.45 प्रतिशत मुस्लमान हैं, जबकि दलितों की संख्या यहां करीब 7 प्रतिशत है.

ओवैसी परिवार के लिए इस बार राह क्यों है मुश्किल?
2018 में मालकपेट, बहादुरपुरा समेत 4 सीटों पर कांग्रेस मैदान में नहीं थी, लेकिन इस बार पार्टी ने इन सीटों पर युवा चेहरे को उतार रखा है. 2018 के मुकाबले बीजेपी भी यहां मजबूत हुई है. 

2020 के नगर निगम चुनाव में बीजेपी के 48 पार्षद यहां से जीते थे, जो एक रिकॉर्ड है. वर्तमान में हैदराबाद नगर निगम में बीजेपी दूसरे नंबर की पार्टी है. पार्टी को निकाय चुनाव की तरह ही विधानसभा चुनाव में भी बेहतरीन परफॉर्मेंस की उम्मीद है. 

हैदराबाद में बीजेपी के भीतर जान फूंकने के लिए खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रोड-शो कर चुके हैं. कांग्रेस की कमान यहां प्रियंका गांधी ने संभाल रखी है. हालांकि, असदुद्दीन ओवैसी के लिए राहत की बात यहां बीआरएस का वॉकओवर देना है. 

सियासी गलियारों में इस बात की चर्चा है कि सत्तारूढ़ बीआरएस ने एक अघोषित समझौते के तहत एआईएमआईएम के उम्मीदवारों के सामने कमजोर उम्मीदवार उतारे हैं. बदले में राज्य के मुसलमानों से ओवैसी बीआरएस को वोट देने की अपील कर रहे हैं.

गरीबी, स्वच्छता और सत्ताविरोधी लहर भी ओवैसी की पार्टी की राह में रोड़े से कम नहीं है. एनजीओ हेल्पिंग हैंड के एक सर्वे के मुताबिक हैदराबाद के 63 प्रतिशत मुसलमान गरीब रेखा के नीचे हैं, जो सरकारी खैरात, अल्प दैनिक कमाई और दान के भरोसे अपना जीवनयापन कर रहे हैं.

हैदराबाद के 15 प्रतिशत मुसलमान निम्न मध्यमवर्गीय हैं, जिनकी सलाना कमाई 2 लाख के आसपास है.

क्या हैदराबाद का गढ़ बचा पाएंगे ओवैसी?
119 सीटों वाली तेलंगाना विधानसभा के चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ने सिर्फ 9 सीटों पर प्रत्याशी खड़े किए हैं. इनमें से 7 सीटें हैदराबाद की है. ऐसे में जानकारों का मानना है कि एआईएमआईएम का सियासी भविष्य हैदराबाद के ही 7 सीटों के परफॉर्मेंस पर टिका हुआ है. 

2018 के चुनाव में ओवैसी के सभी 7 उम्मीदवार 60 हजार से ज्यादा वोटों के अंतर से जीतकर सदन पहुंचे थे. ऐसे में एआईएमआईएम के नेता इस बार भी सभी सीटों पर जीत को लेकर आश्वस्त हैं.

खुद अकबरुद्दीन ओवैसी सभी सीटों पर जीत का दावा कर रहे हैं. हाल ही में एक रैली में उन्होंने कहा था कि हम सभी 9 सीट जीत रहे हैं और राज्य की सत्ता में बीआरएस फिर से आ रही है. 

जानकारों का कहना है कि ओवैसी को हैदराबाद की सीटों पर अपने कोर वोटर्स के साथ-साथ बीआरएस के भी वोटबैंक ट्रांसफर होने की उम्मीद है. 

हालांकि, आखिरी समय में कांग्रेस की हैदराबाद के अलग-अलग समूहों को साधने की रणनीति ओवैसी की पार्टी के लिए टेंशन बढ़ाने वाली है. पहले छात्रों से मुलाकात के बाद राहुल गांधी ने मंगलवार को राजधानी के ग्रीग वर्करों से मुलाकात की. 

तेलंगाना में 4.4 लाख ग्रीग वर्कर हैं, जिसमें से अधिकांश हैदराबाद और उसके आसपास काम करते हैं. ऐसे में युवा और ग्रीग वर्कर्स अगर जाति और धर्म के आधार पर वोट नहीं करते हैं, तो हैदराबाद में ओवैसी की पार्टी को नुकसान हो सकता है.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *