मप्र विधानसभा चुनाव के इतिहास में नेताओं के सात चौंकाने वाले फैसले ?

एक चुनाव ने बदली नेताओं की किस्मत ….
मप्र विधानसभा चुनाव के इतिहास में नेताओं के सात चौंकाने वाले फैसले …

पूर्व सीएम सुंदरलाल पटवा से लेकर कैलाश जोशी और उमा भारती तक ऐसे कई नाम हैं, जो चुनावी उलट-फेर का शिकार हुए। कई ऐसे चेहरे भी हैं, जिन्हें इस उलट-फेर ने राजनीति में स्थापित होने का मौका दिया।

लगातार सात बार जीते कैलाश जोशी 8वां चुनाव हारे
राजनीति के संत कहे जाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी अपनी परंपरागत सीट बागली से सिर्फ एक चुनाव हारे थे। इसके बाद उन्होंने कभी विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ा। जिस नेता ने उन्हें हराया उसे रातों-रात पहचान मिल गई थी। ये 1998 का चुनाव था। कैलाश जोशी के सामने कांग्रेस ने श्याम होलानी को मैदान में उतारा था। होलानी ने जोशी को 6665 वोटों से हरा दिया था। इस हार से पहले जोशी (जून 1977 से जनवरी 1978 तक) छह महीने तक मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके थे। वे 1962 से 1998 तक लगातार सात बार चुनाव जीते थे।

वरिष्ठ पत्रकार अरुण पटेल बताते हैं कि कैलाश जोशी उस स्थिति में आ चुके थे कि उनसे हारने वाले को भी पहचान मिल जाती थी। जोशी को हराने के बाद दिग्विजय सिंह ने होलानी को भंडार गृह निगम का अध्यक्ष बना दिया था।

श्याम होलानी पांच चुनाव लड़े, एक चुनाव ने किस्मत बदली
श्याम होलानी बागली से पांच चुनाव लड़े थे। 1990 के चुनाव में भी उनका मुकाबला कैलाश जोशी से ही हुआ था। इस चुनाव में वो जोशी से 13 हजार 396 वोटों से हार गए थे। 1992 में अयोध्या स्थित बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे को गिराए जाने के बाद मध्यप्रदेश समेत चार राज्यों की सरकारें बर्खास्त कर दी गई थीं। 1993 में एक बार फिर मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए। सात बार विधानसभा चुनाव जीत चुके पूर्व सीएम कैलाश जोशी और श्याम होलानी के बीच फिर मुकाबला हुआ। कैलाश जोशी चुनाव जीत गए, लेकिन जीत का अंतर केवल 401 वोटों का ही था।

लगातार हार के बाद श्याम होलानी ने जीत का स्वाद 1998 के चुनाव में चखा। उनकी इस एक जीत का करिश्मा उन्हें ताउम्र पहचान दे गया। इसके बाद देवास जिले में वह कांग्रेस का बड़ा चेहरा बने हालांकि, 2003 में श्याम होलानी और कैलाश जोशी के बेटे दीपक जोशी के बीच चुनावी भिड़ंत हुई। इस चुनाव में दीपक ने अपने पिता की हार का बदला ब्याज के साथ चुकाया। उन्होंने होलानी को 17,574 वोट से हराया।

2019 में पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी के निधन के दो साल बाद 2021 में श्याम होलानी का निधन हुआ।
2019 में पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी के निधन के दो साल बाद 2021 में श्याम होलानी का निधन हुआ।

नरेंद्र नाहटा ने पहले ही चुनाव में राजनीति के दिग्गज पटवा को हराया था
कांग्रेस नेता व पूर्व मंत्री नरेंद्र नाहटा ने 20 साल बाद मनासा सीट से चुनाव लड़ा है। इसी सीट से 1985 में उन्होंने भाजपा के दिग्गज नेता सुंदरलाल पटवा को हराकर सुर्खियां बंटोरी थीं। नाहटा ने पटवा को उन्हीं की परंपरागत सीट पर मात दी थी। सुंदरलाल पटवा यहां से चार बार चुनाव लड़ चुके थे। इसमें से दो बार 1957 व 1962 में जीते व 1967 व 1972 में हार गए थे। इसके बाद पटवा 1977 में मंदसौर और 1980 में सीहोर से चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंचे थे।

पटवा ने 1985 में एक बार फिर जीत की उम्मीद में मनासा का रुख किया, लेकिन नरेंद्र नाहटा ने उन्हें करीब 4500 वोट से हरा दिया था। 1985 में पटवा ने मनासा के अलावा रायसेन जिले की भोजपुर सीट से भी चुनाव लड़ा था। यहां से वे जीत गए थे।

हार के बाद पटवा मनासा से कभी चुनाव नहीं लड़े
इस चुनाव को कवर करने वाले वरिष्ठ पत्रकार अरुण पटेल बताते हैं कि नरेंद्र नाहटा के पिता एवं वकील भंवरलाल नाहटा पहले सीतामऊ से विधायक रहे और 1980 में मंदसौर- जावरा से सांसद चुने गए थे। 1983 में उनके निधन के बाद कांग्रेस ने बेटे नरेंद्र को मनासा विधानसभा सीट से टिकट दिया था। उस समय उनकी उम्र 38 साल के आसपास थी, जबकि पटवा करीब 64 साल के अनुभवी राजनेता थे। पटवा इस हार के बाद फिर कभी अपने गृह क्षेत्र मनासा से चुनाव नहीं लड़े। इस सीट से नरेंद्र नाहटा दो चुनाव और जीते। दिग्विजय मंत्रिमंडल में मंत्री भी बने।

77 साल के नाहटा कांग्रेस के सबसे बुजुर्ग प्रत्याशी हैं। 1985 में उन्होंने पटवा को शिकस्त दी थी तब उनकी उम्र 38 साल थी।
77 साल के नाहटा कांग्रेस के सबसे बुजुर्ग प्रत्याशी हैं। 1985 में उन्होंने पटवा को शिकस्त दी थी तब उनकी उम्र 38 साल थी।

उमा भारती 2003 में CM, 2008 में चुनाव हार गईं
पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती 2008 में टीकमगढ़ सीट से विधानसभा का चुनाव हार गई थीं। जबकि वे 2003 में पहली बार मलहरा सीट से विधानसभा चुनाव जीतकर मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री बनी थीं। 2004 में कर्नाटक के हुबली में तिरंगा फहराए जाने के एक मामले को लेकर उन्हें सीएम पद से इस्तीफा देना पड़ा था। इसके बाद उमा भारती ने भाजपा से बगावत कर 30 अप्रैल 2006 को उज्जैन में भारतीय जनशक्ति पार्टी बनाई थी।

2008 के चुनाव में उमा की पार्टी ने 213 सीटों पर चुनाव लड़ा, लेकिन पार्टी को 6 सीटों पर ही जीत मिली थी। उमा भारती को कांग्रेस के यादवेंद्र सिंह ने 9 हजार 828 वोटों से हराया था। हालांकि, 2011 में उनकी बीजेपी में वापसी हो गई थी।

2012 के यूपी चुनाव में उमा को भाजपा ने सीएम फेस बनाया था। 2014 में झांसी से सांसद चुनी गईं।

2008 में नरोत्तम मिश्रा ने कांग्रेस से दतिया को छीना था
दतिया सीट पर श्याम सुंदर श्याम 1952 व 1957 तथा 1977 व 1980 में कांग्रेस के टिकट पर लगातार जीते। 1985 के चुनाव से पहले श्याम सुंदर श्याम का निधन हो गया। उनकी जगह कांग्रेस ने पुत्र राजेंद्र भारती को टिकट दिया। वे यह चुनाव जीतकर पहली बार विधायक बने। 1990 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा के टिकट पर शंभू तिवारी विधायक बने। इसके बाद 1993 में राज परिवार के कुंवर घनश्याम सिंह कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीते।

1998 में कांग्रेस से बगावत कर राजेंद्र भारती ने समाजवादी पार्टी से चुनाव लड़ा और जीते। 2003 में कांग्रेस ने फिर से घनश्याम सिंह को मौका दिया। इस साल भाजपा की लहर होने के बाद भी घनश्याम सिंह जीते। विधानसभा सीटों के परिसीमन के बाद 2008 का चुनाव हुआ। डबरा सीट छोड़कर डॉ. नरोत्तम मिश्रा ने दतिया से चुनाव लड़ा और जीते। उन्होंने बसपा के टिकट पर चुनाव लड़े राजेंद्र भारती को हराया था। इसके बाद 2013 और 2018 में डॉ. मिश्रा के सामने कांग्रेस ने राजेंद्र भारती को उतारा, लेकिन वे जीत नहीं पाए।

इस बार राजेंद्र भारती और नरोत्तम के बीच सीधी टक्कर
इस बार कांग्रेस ने दतिया से राजेंद्र भारती को फिर टिकट दिया है। उनकी टक्कर भाजपा के कद्दावर मंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा से है। दोनों के बीच सीधा मुकाबला है। इस बार अगर भाजपा जीतती है तो डॉ. मिश्रा लगातार चार बार विधायक बनेंगे। यह इस सीट से नया रिकॉर्ड होगा। 66 साल के इतिहास में अभी तक कोई भी दतिया से लगातार चार बार विधायक नहीं चुना गया है।

30 साल बाद तरुण ने लगाई थी भाजपा के गढ़ में सेंध
जबलपुर पश्चिम सीट को भाजपा का गढ़ माना जाता था। यहां 1993 से लेकर 2008 तक चार चुनाव में भाजपा ने लगातार जीत दर्ज की। भाजपा के हरेंद्र जीत सिंह बब्बू चार में से तीन चुनाव जीते। 2008 के चुनाव में बब्बू ने कांग्रेस के तरुण भनोत को हराया था। 2013 के चुनाव में भनोत ने बब्बू को मात दी। 2018 में भाजपा ने बब्बू को पांचवीं बार मौका दिया, लेकिन भनोत ने उन्हें फिर शिकस्त दे दी। 2023 के चुनाव में भाजपा ने भनोत के सामने जबलपुर से चार बार के सांसद राकेश सिंह को मैदान में उतारा।

डॉ. सीतासरन की वजह से होशंगाबाद सीट पर भाजपा का कब्जा
होशंगाबाद सीट पर 33 साल से भाजपा का कब्जा है। 1990 में डॉ. सीतासरन शर्मा ने कांग्रेस के दो बार के विधायक विजय कुमार दुबे को हराकर इस सीट को भाजपा की झोली में डाला था। 2008 में परिसीमन से पहले ये इटारसी सीट थी। इस सीट पर तीन बार लगातार डॉ. सीतासरन और एक बार उनके भाई गिरिजाशंकर शर्मा जीते। परिसीमन के बाद जब यह होशंगाबाद सीट हुई, उसके बाद हुए 2013 व 2018 के चुनाव में भी डॉ. सीतासरन जीते। पिछले चुनाव में उन्होंने कांग्रेस के सरताज सिंह को 15,217 वोट से हराया था। 2023 के चुनाव में डॉ. सीतासरन का मुकाबला कांग्रेस प्रत्याशी और उनके भाई गिरिजाशंकर से है।

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