138 साल पुरानी कांग्रेस पार्टी : कभी कांग्रेस के सामने विपक्ष नहीं था, अब विपक्षी पार्टी का दर्जा नहीं मिल पाया ?

तब और अब… कभी कांग्रेस के सामने विपक्ष नहीं था, अब विपक्षी पार्टी का दर्जा नहीं मिल पाया
 138 साल पुरानी कांग्रेस पार्टी को आजाद भारत में छह प्रधानमंत्रियों के जरिए सबसे ज्यादा 56 वर्ष शासन करने का मौका मिला. आजादी के बाद की कांग्रेस पार्टी नेहरू- गांधी की पर्याय रही है. इस अवधि में पार्टी सत्ता में रही हो अथवा विपक्ष में, दोनों ही दशा में नेहरू-गांधी परिवार के फैसले अंतिम रहे हैं.

138 साल पुरानी कांग्रेस पार्टी को आजाद भारत में छह प्रधानमंत्रियों के जरिए सबसे ज्यादा 56 वर्ष शासन करने का मौका मिला. आजादी के फौरन बाद देश की बागडोर कांग्रेस के हाथों में थी. उस समय संसद में औपचारिक तौर पर कोई विपक्ष और विपक्षी नेता नहीं था. जो कांग्रेस में नहीं थे उन्हें ही विपक्ष मान लिया गया था. लेकिन 2014 आने तक लम्बे दौर तक संसद में वर्चस्व रखने वाली कांग्रेस पार्टी ने न केवल सत्ता गंवाई बल्कि विपक्ष के नेता का दर्जा हासिल करने की हैसियत भी खो दी.

जब पार्टी को लगा पहला बड़ा झटका

पार्टी को बड़ा झटका 1977 के लोकसभा चुनाव में लगा जब इमरजेंसी के विरोध में जनता लहर में कांग्रेस का उत्तर भारत से लगभग सफाया हो गया. हालांकि, जल्दी ही 1980 में कांग्रेस की वापसी हुई. 1984 तक इंदिरा गांधी और फिर 1989 तक राजीव गांधी प्रधानमंत्री रहे. आगे 1991-96 में नरसिंह राव और 2004-14 की अवधि में डॉक्टर मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व में कांग्रेस की अगुवाई वाले यूपीए गठबंधन का शासन रहा.

आजादी के पहले-आजादी के बाद की कांग्रेस में बड़ा फर्क

बेशक कांग्रेस 138 साल पुरानी पार्टी है लेकिन आजादी के पहले और आजादी के बाद की कांग्रेस में बहुत बड़ा फर्क रहा है. आजादी के संघर्ष की कांग्रेस में पार्टी संगठन निर्णायक स्थिति में था. आजादी के बाद की कांग्रेस पार्टी नेहरू- गांधी की पर्याय रही है. इस अवधि में पार्टी सत्ता में रही हो अथवा विपक्ष में, दोनों ही दशा में नेहरू-गांधी परिवार के फैसले अंतिम रहे हैं.

आजादी के बाद कांग्रेस पार्टी के 18 अध्यक्ष बने हैं. आजादी के बाद इन 76 सालों में से 38 साल नेहरू-गांधी परिवार के सदस्य ही पार्टी के अध्यक्ष रहे है. शेष अवधि के 20 अध्यक्ष या तो परिवार के आगे दंडवत रहे अथवा उन्हें पद छोड़ना पड़ा. असलियत में परिवार के दबदबे की शुरुआत आजादी के ठीक पहले पार्टी अध्यक्ष के 1946 के चुनाव में पड़ गई, जब गांधी जी के दबाव में किसी भी राज्य की कमेटी से प्रस्ताव न होने के बाद भी पंडित जवाहर लाल नेहरू अध्यक्ष चुन लिए गए. इस चुनाव में 15 में 12 राज्य कमेटियां सरदार पटेल और दो आचार्य कृपलानी के पक्ष में थीं. एक कमेटी तटस्थ थी.

Indira Gandhi

अध्यक्ष वही जो नेहरू-गांधी परिवार को हो स्वीकार

कांग्रेस के इतिहास में 1950 का अध्यक्ष पद का चुनाव याद किया जाता है जब सरदार पटेल गुट के उम्मीदवार पुरुषोत्तम दास टंडन ने नेहरू समर्थित आचार्य कृपलानी को पराजित कर दिया था. सरदार पटेल की 15 दिसंबर 1950 को मृत्यु के बाद टंडन को नेहरू के दबाव में इस्तीफा देना पड़ा था. उसके बाद पार्टी अध्यक्ष पर या तो नेहरू- गांधी परिवार अथवा उसके वफादार ही टिके रह सके.

1969 में कांग्रेस के ऐतिहासिक विभाजन का कारण नेहरू- गांधी परिवार को पार्टी के भीतर से मिल रही चुनौती थी. तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष एस. निंजलिगप्पा की अगुवाई में पार्टी द्वारा राष्ट्रपति पद के लिए चयनित उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी को इंदिरा गांधी ने स्वीकार नहीं किया. निर्दलीय वीवी गिरि को उन्होंने समर्थन और जीत दिलाई. पार्टी दो हिस्सों में बंट गई लेकिन 1971 के लोकसभा चुनाव में जबरदस्त जीत के जरिए इंदिरा गांधी ने सिद्ध किया कि जहां वो और उनका परिवार है, वही असली कांग्रेस है.

तब और अब... कभी कांग्रेस के सामने विपक्ष नहीं था, अब विपक्षी पार्टी का दर्जा नहीं मिल पाया

2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस विपक्ष के नेता की मान्यता के लिए जरूरी सदस्य नहीं जुटा सकी.
राव की ताजपोशी के लिए सोनिया की हरी झंडी

1977 की जबरदस्त पराजय के बाद 1978 में कांग्रेस एक बार फिर बंटी. लेकिन 1980 में सत्ता में वापसी के जरिए पार्टी पर परिवार का नियंत्रण कायम रहा. देश की सबसे पुरानी पार्टी नेहरू-गांधी परिवार पर कितना आश्रित हो चुकी है इसकी बानगी राजीव गांधी के 1991 में निधन के बाद देखी जा सकती है. जाहिर तौर पर अगले छह वर्षों तक परिवार का कोई सदस्य सक्रिय राजनीति में नहीं था लेकिन 1991 में नरसिम्हा राव की प्रधानमंत्री पद पर ताजपोशी सोनिया गांधी की सहमति से ही संभव हुई. प्रधानमंत्री के तौर पर सोनिया गांधी को खुश रखने की राव हर मुमकिन कोशिश करते रहे. बात दीगर है कि वे इसमें कामयाब नहीं रहे.

Pv Narasimha Rao Death Anniversary

नरसिम्हा राव को 1991 में प्रधानमंत्री की कुर्सी अप्रत्याशित तरीके से मिली थी.

सिकुड़ते जनाधार के बाद भी पार्टी में गांधी परिवार मजबूत

सोनिया गांधी के सक्रिय राजनीति में आने के औपचारिक फैसले के बाद तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सीता राम केसरी की 1998 में पद और कांग्रेस मुख्यालय से अपमानजनक विदाई इतिहास का हिस्सा है. 2004-14 के बीच यूपीए सरकार के डॉक्टर मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व के दोनों कार्यकालों में इस परिवार के वर्चस्व की चर्चा होती रही. बेशक इस बीच कांग्रेस का जनाधार लगातार सिकुड़ा है लेकिन पार्टी पर नेहरू-गांधी परिवार की पकड़ बदस्तूर कायम है.

फिलहाल पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे हैं लेकिन पार्टी के छोटे से बड़े नेता-कार्यकर्ता को गांधी परिवार का ही नेतृत्व स्वीकार्य है. फिलहाल केवल तीन राज्यों कर्नाटक, तेलांगना और हिमाचल प्रदेश में पार्टी की अपने बूते सरकार है. झारखंड और बिहार जैसे राज्यों में जूनियर पार्टनर के तौर पर वह सत्ता से जुड़ी है. देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश जहां से नेहरू-गांधी परिवार के तीन सदस्य जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने ,वहां की अस्सी लोकसभा सीटों में उसकी एक और 403 सदस्यीय विधानसभा में सिर्फ दो सीटों की हिस्सेदारी है.

नेता विपक्ष की हैसियत भी न मिली

आजादी के बाद पहला लोकसभा चुनाव 1952 में हुआ. बीच की अवधि में संविधानसभा का कार्य पूर्ण हो जाने के बाद उसे अस्थायी संसद के तौर पर बदल दिया गया था. आजादी के संघर्ष की अगुवाई कांग्रेस ने की थी. स्वाभाविक रूप से संविधान सभा के बहुसंख्य सदस्य भी उसी से जुड़े हुए थे. 313 सदस्यीय अस्थाई सदन में औपचारिक तौर पर कोई विपक्ष नहीं था. जो कांग्रेस में नहीं थे उन्हें असम्बद्ध सदस्य माना जाता था.

शुरुआत में उनकी संख्या 22 थी. 1951 में यह संख्या 28 हो गई. पहली बार 1969 में कांग्रेस के विभाजन के बाद कांग्रेस (ओ) के नेता डॉक्टर राम सुभग सिंह को विपक्ष के नेता का अधिकृत दर्जा प्राप्त हुआ था. लेकिन आजाद भारत में सबसे लंबे समय तक शासन करने वाली पार्टी पिछले दो लोकसभा चुनावों में नेता विपक्ष के लिए जरूरी लोकसभा की कुल सदस्य संख्या की दस प्रतिशत सीटें हासिल नहीं कर सकी है. 2014 में उसे 44 और 2019 में 52 सीटें हासिल हुईं थी

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