कानून पहले बनाकर बाद में उस पर चर्चा का क्या औचित्य?
कानून पहले बनाकर बाद में उस पर चर्चा का क्या औचित्य?
नए साल के पहले तीन दिन उत्तरी और पश्चिमी भारत में ट्रक ड्राइवरों ने बड़े पैमाने पर हड़ताल की। पेट्रोल पम्पों पर ईंधन खत्म होने लगा और जरूरत की चीजों की कीमतें आसमान छूने लगीं। ट्रक चालक और मालिक भारतीय न्याय संहिता (हाल ही में संसद में लागू किए गए तीन नए आपराधिक अधिनियमों में से एक) के प्रावधानों में से एक का विरोध कर रहे थे। केंद्रीय गृह सचिव ने आखिरकार विधेयक के उस प्रावधान पर रोक लगाई, जिसमें हिट-एंड-रन मामलों में कड़े दंड का प्रावधान था।
यह एक बड़ी बीमारी का लक्षण-मात्र है- कानून पहले बनाओ और उस पर चर्चा बाद में करो। शुरुआत नोटबंदी से हुई थी। उसके बाद कोविड 19 में मात्र चार घंटे के नोटिस पर पूरे देश में लॉकडाउन लगा दिया गया। तीन कृषि कानून गैर-जिम्मेदाराना तरीके से पारित किए गए और एक शक्तिशाली आंदोलन के बाद उन्हें वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा।
2017 में जल्दबाजी में जीएसटी लागू कर दिया गया। इसके बाद पांच साल में जीएसटी से संबंधित 129 संशोधन और 741 अधिसूचनाएं जारी करनी पड़ीं। 2023 का डेटा संरक्षण अधिनियम केवल 52 मिनट और 67 मिनट की बहस के बाद पारित कर दिया गया, जिसमें क्रमशः लोकसभा और राज्यसभा में केवल नौ और सात सांसदों ने चर्चा में भाग लिया था। इसी प्रवृत्ति का नवीनतम उदाहरण आपराधिक कानून विधेयक हैं।
इस तरह की लापरवाही का सबसे ज्यादा असर हाशिए पर रहने वाले लोगों पर पड़ता है। जरा इस पर विचार करें। 2017 के बुर्कापाल नक्सली हमले में आरोपी 121 आदिवासियों को एनआईए अदालत ने सबूतों की कमी का हवाला देते हुए बरी कर दिया। लेकिन पहले ही वे पांच साल जेल में बिता चुके थे।
मुकदमे के दौरान वे केवल दो बार अदालत में उपस्थित हुए थे। भारत की जेल सांख्यिकी रिपोर्ट 2021 के अनुसार, जेलों में मौजूद कैदियों में से 77% ऐसे हैं, जिन पर मामले विचाराधीन हैं। भारतीय जेलों में बंद हर पांच विचाराधीन कैदियों में से तीन दलित, आदिवासी और ओबीसी समुदायों से हैं।
गृह मामलों की स्थायी समिति में मेरे दो विद्वान सहयोगियों- जिन्होंने लगभग तीन महीने तक आपराधिक कानून बिलों की जांच की थी- पी. चिदम्बरम (कांग्रेस), एन.आर. एलंगो (द्रमुक) ने इन पंक्तियों के लेखक के साथ व्यापक असहमति के नोट्स प्रस्तुत किए थे। इनमें अधिक कड़े कानूनों के कार्यान्वयन के खतरों पर आगाह किया गया था, जिनका दुरुपयोग मौजूदा अन्याय की स्थिति को बढ़ाने के लिए किया जा सकता है।
तीन आपराधिक कानून विधेयकों का पहला मसौदा प्रो. रणबीर सिंह समिति द्वारा बनाया गया था। समिति में समान सामाजिक, व्यावसायिक, आर्थिक पृष्ठभूमि और अनुभव वाले पुरुष सम्मिलित थे। इसमें महिलाओं, दलितों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, एलजीबीटीक्यू और दिव्यांगों सहित विभिन्न हाशिए वाले समूहों का प्रतिनिधित्व नहीं था।
विविध दृष्टिकोणों का अभाव एक महत्वपूर्ण चिंता का विषय होता है, खासतौर पर व्यापक सामाजिक प्रभावों वाले मामलों में। गृह मामलों की स्थायी समिति में सत्तारूढ़ सरकार का प्रचंड बहुमत है। यह एक रबर स्टाम्प कमेटी के अलावा कुछ नहीं थी। न्यायमूर्ति यूयू ललित, मदन लोकुर और अन्य सरीखे निपुण कानूनविदों को भी सत्यापन के लिए नहीं बुलाया गया। जबकि भाजपा कानूनी सेल के प्रमुखों में से एक को समिति में सम्मिलित किया गया था।
2014 में कानूनों के निर्माण से पूर्व उन पर परामर्श करने की नीति को संसद में पेश किया गया था, जिसके बाद से किसी भी कानून को मंजूरी देने से पहले जनता के साथ तीस दिन की परामर्श अवधि अनिवार्य की गई थी। परामर्श की प्रक्रिया में कानून के मसौदे को जनता से साझा करना शामिल है। साथ ही यह बताना भी अपेक्षित है कि इसका औचित्य क्या है, उसकी लागत क्या होगी और क्या प्रभाव पड़ेंगे।
परामर्श के दौरान प्राप्त टिप्पणियों को मंत्रालय की वेबसाइट पर उपलब्ध कराना भी तय किया गया था। लेकिन इन आपराधिक कानून विधेयकों के मामले में उन्हें सार्वजनिक जांच से बचाते हुए और सदस्यों और उद्देश्यों को गुप्त रखते हुए ही समिति का गठन कर दिया गया था।
विधेयकों को संसद के खाली सदन में पारित कराया गया, जब भारत की लगभग एक-चौथाई आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाले 146 सांसदों को निलंबित कर दिया गया था। ये सच है कि अंग्रेजों के जमाने में बनाए गए आपराधिक कानूनों के फ्रेमवर्क में सुधार की जरूरत है, लेकिन उनके स्थान पर बनाए कानून तो नागरिकों को ब्रिटिश राज से भी बदतर तरीके से ट्रीट करने वाले हैं!
(ये लेखक के अपने विचार हैं। इस लेख की सहायक-शोधकर्ता चाहत मंगतानी हैं)