दिल्ली मुख्य सचिव …. तब न्यायालय झुक जाता है
दिल्ली मुख्य सचिव का कार्यकाल बढ़ाकर क्यों कोर्ट ने अपने ही तर्क को नजरअंदाज क्यों किया ..
नवंबर 2023 में सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले के तहत दिल्ली के मुख्य सचिव नरेश कुमार के कार्यकाल को छह महीने बढ़ाने की अनुमति दे दी है, जो कोर्ट के अपने फैसले का अपने तर्क को ही छोड़ने का उदाहरण है।
कोर्ट सही सिद्धांत तय करने की कोशिश करता है लेकिन जब सरकार अपनी एड़ी-चोटी का जोर लगाती है और तय किए गए कानून का पालन करने से इंकार कर देती है, तब न्यायालय झुक जाता है और जैसा सरकार चाहती है, वैसा करने के लिए एक तर्क को अपना लेता है।
इस तरह का उलटफेर न्यायालय के निर्णयों को “पानी पर लिखने” जैसा यानी कभी भी बदल देना है।
दिल्ली में मौजूदा मुख्य सचिव पर भ्रष्टाचार और पक्षपात के आरोप हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के उपराज्यपाल को पत्र लिखकर मुख्य सचिव को हटाने की मांग की है।
वह वैसे भी 30 नवंबर 2023 को रिटायर होने वाले थे और दिल्ली सरकार ने अगले मुख्य सचिव की नियुक्ति पर केंद्र से चर्चा की मांग की थी।
सॉलिसिटर जनरल ने जवाब में कहा कि 2023 का संशोधन अधिनियम केंद्र को राष्ट्रीय राजधानी में सिविल सेवाओं पर कानूनी अधिकार देता है। केंद्र ने बाद में कोर्ट को बताया कि मुख्य सचिव का कार्यकाल छह महीने बढ़ाने का फैसला किया गया है।
संशोधन अधिनियम का पारित होना
इस फैसले के बाद, अखिल भारतीय सेवा (मृत्यु के बाद सर्विस लाभ) नियम 1958 के 16 के तहत मुख्य सचिव का कार्यकाल बढ़ाने के लिए दिल्ली सरकार की सिफारिश जरूरी थी।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसके फैसले में अपवाद बना दिया है। दिल्ली के मुख्य सचिव ने ये मानते हुए कि उन्हें AIR या JCR के तहत अन्य अधिकारियों की तुलना में अलग जगह दी है और इस तरह वे सर्विस के फैसले में बंधे हुए हैं।
यदि सरकार सर्विस पे कंट्रोल करती है, तो उसके प्रधान यानी मुख्य सचिव को चुनने के फैसले में भी चुनाव उसका होना चाहिए।
हालांकि, 29 नवंबर 2023 का न्यायालय का हाल ही में दिया आदेश, जिसमें केंद्र सरकार को दिल्ली सरकार के विरोध के बावजूद मौजूदा दिल्ली के मुख्य सचिव के कार्यकाल को एकतरफा बढ़ाने की अनुमति दी थी।
इस फैसले ने न्यायालय के अपने संवैधानिक तर्क को खारिज कर दिया है।
हितों के टकराव का आरोप
भले ही राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार की सिफारिश की जरूरत दिल्ली के मुख्य सचिव पर सख्ती से लागू नहीं होती है।
क्योंकि वो केंद्र सरकार के लिए आरक्षित कुछ मामलों पर भी नियंत्रण रखते हैं, नियम में विस्तार के लिए दो अन्य पूर्व शर्तें भी शामिल हैं।
उनके कार्यकाल का बढ़ना नियम ‘औचित्य’ और ‘सार्वजनिक फायदे’ की जरूरत है। जैसा कि पहले कहा गया है कि, मौजूदा मुख्य सचिव के खिलाफ हितों के टकराव के गंभीर आरोप लगाए गए हैं।
जिनकी वर्तमान में जांच चल रही है, और मुख्यमंत्री ने दिल्ली के उपराज्यपाल से उन्हें तुरंत हटाने की सिफारिश की है।
जब मुख्य सचिव ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार का विश्वास पूरी तरह खो दिया है, तो ‘औचित्य’ या ‘जनहित’ का सवाल ही नहीं बचता है।
किसी सरकार में मुख्य सचिव की भूमिका पहली बार रोयप्पा मामले में सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की बेंच के फैसले द्वारा बताई गई थी।
इस फैसले का उल्लेख इसके हालिया आदेश में केवल नजरअंदाज करने के लिए किया गया है। रोयप्पा मामले में, न्यायालय ने माना था कि मुख्य सचिव का पद बहुत विश्वास का पद है, क्योंकि वह प्रशासन की मुख्य ‘धुरी’ है, इसलिए उनके और मुख्यमंत्री के बीच तालमेल जरूरी है।
हालांकि, दिल्ली में अब कोर्ट ने इस फैसले से बचते हुए कहा है कि मुख्य सचिव के मामले में रोयप्पा के आवेदन पर फैसला तब किया जाएगा, जब कोर्ट राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (संशोधन) 2023 की संवैधानिक वैधता को चुनौती पर सुनवाई करेगा।
लेकिन इस मामले में रोयप्पा की अनदेखी करते हुए, न्यायालय ने रोयप्पा की टिप्पणियों को ध्यान में रखते हुए कहा कि मुख्य सचिव को उन मामलों पर निर्वाचित सरकार के आदेशों को मानना चाहिए, जिन पर उनकी काम का विस्तार होता है।
इसके बाद न्यायालय ने आज मौजूद कानून की स्थिति के आधार पर मामले का फैसला किया, लेकिन यह ध्यान देने में असफल रहा कि 2023 के संशोधन ने रोयप्पा मामले के आवेदन को खारिज नहीं किया था, और इसलिए, रोयप्पा कानून की स्थिति है जो आज भी मौजूद है।
यह खामी इस बात से साफ है कि कोर्ट का आदेश 2023 के संशोधन पर भी निर्भर नहीं करता है
नियुक्ति पर दिल्ली सरकार की बात
दिलचस्प बात यह है कि दिल्ली सरकार ने केंद्र सरकार से दिल्ली के मुख्य सचिव की नियुक्ति की शक्ति पूरी तरह से छीनने के लिए नहीं कहा और सिर्फ उनकी नियुक्ति दोनों सरकारों के बीच एक सहयोगात्मक प्रक्रिया के रूप में करने की बात कही।
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने गलती से ये मान लिया कि मुख्य सचिव की नियुक्ति के संबंध में केंद्र सरकार का संदर्भ देते समय उपराज्यपाल अपने विवेक से कार्य करते हैं।
जबकि, केंद्र सरकार के लिए इस तरह के उदाहरण की जरूरत है, इसे दिल्ली की सरकार की मदद और सलाह पर आधारित होना चाहिए।
न्यायालय ने तर्क दिया कि मुख्य सचिव केंद्र सरकार के लिए आरक्षित तीन मुद्दों को लेकर फिक्रमंद हैं।
हालांकि, इस बात को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया कि वह 100 से ज्यादा अन्य मुद्दों से भी चिंतित हैं जिन पर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार सक्षम है।
सर्विस फैसले के माध्यम से, न्यायालय ने यह साफ किया कि उचित लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली के लिए सेवाओं पर दिल्ली सरकार का नियंत्रण क्यों जरूरी है।
इसने लोगों, उनके प्रतिनिधियों (संसद सदस्य/विधान सभा सदस्य), मंत्रिपरिषद और नौकरशाहों के बीच जवाबदेही की त्रिपक्षीय श्रृंखला को मान्यता दी।
कोर्ट को यह मानना चाहिए था कि जब मुख्य सचिव पूरी तरह से चुनी हुई सरकार का विश्वास खो देता है, तो जवाबदेही की बात नहीं रह जाती है।
ये भरोसा एक बार नहीं टूटता बल्कि ये शासन के सभी मामलों में निर्वाचित सरकार और नौकरशाही के बीच अविश्वास को बढ़ाता है।
सर्विस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय को आज की तुलना में ज्यादा सरल चुनौती का सामना करना पड़ा।
सेवाओं से जुड़ा हर मामला, जिसे न्यायालय अब सुनता है वह उसके अपने रुख, उसके अपने तर्क और रोयप्पा और सर्विसेज में निर्धारित उसकी अपनी प्रतिबद्धता का परीक्षण करना होगा।
दिल्ली के मुख्य सचिव के कार्यकाल को बढ़ाने का एकतरफा आदेश देकर, न्यायालय ने न केवल संवैधानिक तर्क को खो दिया है, बल्कि अपने खुद के अतीत के ज्ञान को भी खत्म कर दिया है, जिसने उस संवैधानिक व्याख्या को अर्थ दिया था और उसके लिए महान मूल्य निर्धारित किया था।
शीर्ष अदालत ने न केवल संवैधानिक तर्क को, बल्कि अपने तर्क को भी नजरअंदाज कर दिया है।
लेखक; संजय हेगड़े, सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील हैं।