पूरी दुनिया में अपने अधिकारों के लिए लड़ रही हैं स्त्रियां

ईरान में प्रदर्शनकारी औरतें ज़न, ज़िंदगी, आज़ादी का नारा बुलंद कर रही हैं। यह आंदोलन न केवल ईरान, बल्कि दुनिया के अनेक हिस्सों में औरतों के संघर्षों का सार है। ईरान में औरतें हिजाब के विरुद्ध सड़कों पर उतरी हैं, अफगानिस्तान में वे तालिबानी हुकूमत के द्वारा लड़कियों का स्कूल बंद किए जाने की मुखालफत कर रही हैं, अमेरिका में वे गर्भपात पर रोक लगाए जाने के सर्वोच्च अदालत के निर्णय का विरोध कर रही हैं, चीन में औरतों का संघर्ष कम्युनिस्ट पार्टी के पोलितब्यूरो में बेहतर प्रतिनिधित्व पाने के लिए है।

इन तमाम लड़ाइयों में कामयाबी के अवसर बहुत उजले नहीं हैं, लेकिन उन्हें अपने नतीजों के आधार पर नहीं बल्कि हौसले की बुनियाद पर मूल्यांकित किया जाना चाहिए। ईरान में औरतों ने आजादी के लिए अपनी जिंदगी दांव पर लगा दी है। उनकी मांग बुनियादी मानवीय अस्मिता और समानता है। वे नहीं चाहतीं कि उन्हें बताया जाए क्या पहनना है और कैसे जीना है। इसे ईरान की पहली फेमिनिस्ट क्रांति कहा जा रहा है। बीते दो दशकों में ईरान में बहुत आंदोलन हुए हैं और उन सभी को कुचल दिया गया है।

शायद स्त्रियों के इस आंदोलन की आवाज भी खामोश कर दी जाए। ईरान राइट्स ग्रुप की रिपोर्टों के मुताबिक पहले ही इस आंदोलन में मरने वाली स्त्रियों की संख्या दो सौ से ऊपर हो चुकी है। अफगानिस्तान में तालिबानी हुकूमत ने 13 साल या उससे अधिक उम्र वाली लड़कियों की स्कूली पढ़ाई पर रोक लगा दी है। तालिबानी सोच कहती है कि इस उम्र की लड़कियों को घर से बाहर अकेले नहीं निकलना चाहिए।

तालिबान के इतिहास को देखते हुए लगता नहीं कि स्कूल जाने के लिए आंदोलन कर रही लड़कियां कामयाब हो सकेंगी। साथ ही वैसा करके वे अपने जीवन और सुरक्षा के लिए भी खतरे को न्योता दे रही हैं। इसके बावजूद लड़कियां हिम्मत हारने को तैयार नहीं हैं और यह जोखिम उठा रही हैं। अमेरिका जैसे अमीर देशों में भी हालात कोई बहुत अच्छे नहीं हैं।

सर्वोच्च अदालत ने रो वर्सेस वेड केस के निर्णय को उलटते हुए गर्भपात कराने के महिलाओं के संवैधानिक अधिकार को समाप्त कर दिया था। अमेरिका में अनेक राज्यों में स्टेट लॉ हैं, जो गर्भपात की अनुमति देते हैं, लेकिन 13 राज्यों में यह प्रतिबंधित है। सर्वोच्च अदालत के निर्णय ने इन राज्यों में गर्भपात को प्रतिबंधित करने वाले कानूनों को प्रभावी बना दिया है।

कुछ शहरों में अदालतों ने गर्भपात पर बैन को ब्लॉक कर दिया, लेकिन कुछ अन्य शहरों में बैन ही अब नई पॉलिसी बन गया है। गर्भपात-विरोधी कार्यकर्ता एबॉर्शन क्लिनिकों पर धरना दे रहे हैं, जिनमें से अनेक अब बंद हो चुके हैं। इसी महीने हो रहे मिड-टर्म चुनावों में यह एक बड़ा मुद्दा बन सकता है। इसके बावजूद रोल-बैक की लड़ाई बहुत लम्बी और कशमकश भरी रहने वाली है।

भारत में भी महिलाएं रोज ही लड़ाइयां लड़ती हैं- चाहे वो धर्मगुरुओं के विरुद्ध हो या कानून-प्रवर्तन की एजेंसियों के, लेकिन सबसे ज्यादा जद्दोजहद उन्हें अपने घरों में करना पड़ती हैं, ताकि उन्हें बराबरी का हक मिल सके। धर्म और संस्कृति द्वारा निर्धारित नियमों से लड़ना आसान नहीं है। अकसर तो सर्वोच्च अदालत भी इन्हें चुनौती नहीं दे सकती।

केरल के सबरीमला मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश के मामले में सर्वोच्च अदालत का आदेश भी पर्याप्त साबित नहीं हुआ था। 2017 में सर्वोच्च अदालत ने ट्रिपल तलाक को अमान्य करार दे दिया था, इसके बावजूद आज भी इसका पालन किया जा रहा है। दहेज तो छह दशक पहले ही गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था, इसके बावजूद आज भी दहेज-प्रथा जारी है।

हर रोज दहेज-प्रताड़ना के मामलों में बीस औरतों की मृत्यु होती है। भारत की महिलाएं रोजाना जिस तरह का संघर्ष कर रही हैं, वह किसी बड़े नारीवादी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए नहीं है, बल्कि वे अपनी जिंदगी और आजादी के लिए लड़ाई लड़ रही हैं। इनमें से अधिकतर चुपचाप ही संघर्ष करती हैं।

आज पूरी दुनिया में महिलाओं के द्वारा किए जा रहे आंदोलनों से हमें एक सबक मिलता है। और वो यह कि अत्याचार और भेदभाव को खामोशी से स्वीकार कर लेने से वो बढ़ते ही हैं, कम कभी नहीं होते।

(ये लेखिका के अपने विचार हैं।)

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