बिलकिस बानो मामले में आपराधिक न्याय व्यवस्था के लिए क्या सीख छुपी है ?
बिलकिस बानो मामले में आपराधिक न्याय व्यवस्था के लिए क्या सीख छुपी ह
दो हफ्ते पहले, 8 जनवरी को, भारत की सुप्रीम कोर्ट ने बिलकिस बानो के दर्दनाक मामले में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। इस फैसले में कोर्ट ने 11 दोषियों को गुजरात राज्य सरकार से मिली राहत को खारिज कर दिया। कोर्ट का मानना है कि राज्य सरकार के पास इस मामले में राहत देने का कोई अधिकार नहीं है। कोर्ट द्वारा तय समय सीमा का पालन करते हुए, सभी 11 दोषियों ने 21 जनवरी की रात गोधरा उप-जेल में आत्मसमर्पण कर दिया।
2002 के गुजरात दंगों के दौरान इन सभी दोषियों ने बानो के साथ सामूहिक बलात्कार किया, जो उस समय गर्भवती थीं। इतना ही नहीं इन लोगों ने उनकी बच्ची के साथ-साथ कई अन्य रिश्तेदारों की बेरहमी से हत्या कर दी। अधिक चिंता की बात यह है कि ये सभी लोग बानो के परिचित, उनके पड़ोसी थे।
कई सालों तक उनका यह मुकदमा यौन हिंसा और सांप्रदायिक हिंसा के पीड़ितों के संघर्ष का प्रतीक बना रहा। सुप्रीम कोर्ट द्वारा छूट को खारिज करने का फैसला न्यायिक प्रक्रिया में ईमानदारी को स्थापित करती है बल्कि इस बात पर भी जोर देता है कि न्याय को किसी सामाजिक या राजनीतिक प्रभाव की चिंता किए बिना, निष्पक्षता से काम करना चाहिए। इस फैसले को मिल रही तारीफ, ऐसी न्याय व्यवस्था के लिए सामूहिक इच्छा का सबूत है जो सजा की माफी के खिलाफ खड़ी है।
भले ही इस फैसले ने न्याय व्यवस्था के प्रति उम्मीद जगाई हो, लेकिन विशेष परिस्थियों में इस न्याय व्यवस्था का बेअसर होना चिंता का विषय है। न्याय व्यवस्था तब मुश्किल में पड़ जाती है जब पीड़ित की पहचान हाशिये में पड़े समाज से जुड़ी हो और आरोपियों को सत्ता का संरक्षण प्राप्त हो। यह मामला भी इस तरह की जटिलताओं से भरा पड़ा है जिसमें बानो न सिर्फ धार्मिक अल्पसंख्यक हैं बल्कि समाज की महिलाओं के प्रति पुरानी सोच (biases) से प्रभावित हैं। इन बातों का असर, न्याय के लिए उनके संघर्ष पर पड़ रहा है। साथ ही, जब हम इस फैसले और दोषियों की जेल में वापसी की खुशियां मना रहे हैं, हमें भविष्य में भी बहुत कुछ करने की जरूरत है। बानो का सफर हमें न्याय के लिए व्यापक संघर्ष के आत्म मंथन का मौका देता है। हमें सोचना चाहिए कि हम कैसे यौन हिंसा के पीड़ितों की मदद कर सकते हैं।
जेलों में जगह की कमी
जस्टिस बी.वी. नागरत्ना, जिन्होंने यह फैसला सुनाया है, उन्होंने दोषियों को जेल वापस भेजने के पीछे यूनानी दार्शनिक प्लेटो के ज्ञान का सहारा लिया है। प्लेटो का कहना था कि सजा का लक्ष्य बदला लेना नहीं है, बल्कि अपराध पर रोक लगाना और दोषियों में सुधार करना है। अपने लेख में प्लेटो तर्क देते हैं कि, जहां तक संभव हो हमें एक डॉक्टर की नकल करनी चाहिए, जो सिर्फ दर्द देने की नियत से रोगी को दवा नहीं देता, बल्कि उसे रोगी के भले की भी चिंता होती है। यहां सजा को उस इलाज की तरह देखा जाता है जो सजा पाने वाले व्यक्ति का इलाज है।
हालांकि, बानो मामले के दोषी हमारे कानून और सजा व्यवस्था की एक चिंताजनक तस्वीर को दिखाते हैं। जेल में 15 साल बिताने के बाद भी, इन लोगों में किसी तरह का पछतावा नहीं दिखा। यह जेल व्यवस्था की महत्वपूर्ण कमी को सामने लाता है। रिहाई के समय समर्थकों द्वारा फूल माला पहनाए जाने और मिठाइयां खिलाने पर दोषी इस तरह खुश हो रहे थे, जैसे वे कोई युद्ध जीत कर आ रहे हों। उन्हें एक दक्षिणपंथी हिंदू राष्ट्रवादी संगठन, विश्व हिन्दू परिषद ने एक बैठक में आमंत्रित करके एक बार फिर माला पहनाई और उनके रिहाई की खुशी मनाई।
सुप्रीम कोर्ट के हाल के फैसले से जहां बानो को अस्थाई राहत मिली है, वहीं न्याय के सिद्धांत और जेल व्यवस्था के बीच तालमेल की कमी भी साफ तौर पर दिखती है। प्लेटो के विचार से प्रभावित होकर सजा को बदलाव के माध्यम के रूप में इस्तेमाल तो किया जाता है। लेकिन, फैसले में इस बात को अनदेखा किया गया कि जेल सिर्फ दोषियों को कैद में रखने का काम कर रही हैं। जेल किसी भी वास्तविक सुधार को करने में विफल हैं। जब कोई भारतीय जेलों में संसाधनों और सुधार कार्यक्रमों की कमी की ओर देखता है, तो दोषियों को एक जिम्मेदार नागरिक बनाने और उन्हें समाज में शामिल करने की बातें खोखली लगने लगती हैं।
बानो का मामला एक बड़ी कमी को सामने लाता है। यदि दोषियों में अब तक कोई सुधार नजर नहीं आता, संभव है कि सजा पूरी होने के बाद जब वे रिहा होंगे, उनमें कोई सुधार नहीं हुआ होगा। रिहाई के बाद उनकी आजादी, बानो के घावों को फिर से हरा कर देगी। इस फैसले का कम होता असर, स्थाई न्याय और राहत देने में व्यवस्था की नाकामी उजागर करता है।
साथ ही, बानो का मामला इस तथ्य की याद दिलाता है कि न्याय की इच्छा, सजा दिलाने के उपायों से आगे तक जाती है। इसके लिए हमारी सजा व्यवस्था से जुड़े संस्थानों और समाज के तय मानकों पर फिर से विचार करने की जरूरत है। संस्थागत बदलाव करके ही हम अपराध के चक्र को रोक सकेंगे। इसके साथ ही, यह न्यायपूर्ण और संवेदनशील समाज को स्थापित करने के लिए जरूरी है। न्याय की खोज को कोर्ट के कमरों तक सीमित नहीं रखना चाहिए, बल्कि एक ऐसे इकोसिस्टम को तैयार करना चाहिए जो अपराधी मानसिकता की जड़ पर चोट करते हुए उसमें स्थाई बदलाव लाए।
‘बंदी-स्त्रीवाद’ (carceral feminism) के खतरे
स्त्रीवादी चर्चा के दायरे में एक शब्द उभरा है जिस पर हमें गहन जांच और चिंतन की जरूरत है: ‘बंदी-स्त्रीवाद’(carceral feminism)। इन शब्दों को बार्नार्ड कॉलेज की प्रोफेसर, एलिजाबेथ बर्नस्टीन द्वारा गढ़ा गया है, यह शब्द एक कैद जैसी स्थिति वाले शासनों में स्रियों से जुड़े मसलों की वकालत करता है। यह स्त्रीवाद और शासन के बीच विरोधाभासी संबंधों पर प्रकाश डालता है, जहां शासन पितृसत्ता(patriarchy) का सहयोगी होने के साथ स्वतंत्रता पर रोक लगाने का काम करता है।
भारत बंदी-स्त्रीवाद की समस्या से जूझ रहा है। स्त्रियों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले लोग यानी स्त्रीवादी लोग कानून से और अधिक कठोर सजा की मांग कर रहे हैं, लेकिन वे यह सवाल नहीं उठाते हैं कि महिलाएं बलात्कार के मामलों में रिपोर्ट लिखाने से बचने की कोशिश क्यों करती हैं।
आपराधिक न्याय व्यवस्था के प्रति अविश्वास गहरा है, चूंकि पितृसत्ता ने आपराधिक न्याय व्यवस्था के हर संस्थान को अपने कब्जे में ले रखा है। इसमें पुलिस के साथ सामना होने से मेडिकल अधिकारियों के साथ बातचीत और न्याय व्यवस्था सभी शामिल हैं। इसलिए, केवल न्याय सुधारों और सजा के जरिये इस समस्या का उचित समाधान नहीं किया जा सकता है। पुलिस बल, यौन हिंसा की शिकायतों पर पर्दा डालने के लिए बदनाम है। अक्सर, वे पीड़ितों से असहज और असंवेदनशील सवाल करके उनकी पीड़ा को और ज्यादा बढ़ा देते हैं। यही अप्रिय माहौल मेडिकल जांच तक भी जाता है, जो पीड़ितों को और अधिक परेशान करता है।
समाजशास्त्री और स्त्रीवादी कानूनी विद्वान प्रतीक्षा बख्शी बलात्कार के मुकदमे का स्वभाव ‘अश्लील’ बताती हैं। वे कहती हैं कि पीड़ितों को सवालों के ऐसे दौर से गुजरना पड़ता है जो उन्हें दोबारा घायल करता है और पीड़ित पर ही दोष लगाने की संस्कृति को बनाए रखता है। कई तरह के असहज सवाल पीड़ितों के मानसिक स्थिति पर सवाल खड़े करते हैं। ये सवाल सुझाते हैं कि पीड़ितों के ही किसी काम या चुनाव के कारण उनके साथ यह गंभीर अपराध हुआ है।
स्थिति को और बारीकी से देखने की जरूरत है
बंदी-स्त्रीवाद की सीमाओं और अपराधियों को सुधारने की जेलों की विफलता/ नाकामी को देखते हुए हमें एक नया तरीका अपनाने की जरूरत है, जिसपर अधिक बारीकी से विचार किया गया हो। पीड़ित को केंद्र में रखते हुए कोशिश करनी चाहिए, जिससे कानूनी रास्तों और उपायों पर निर्भरता कम हो सके। साथ ही, पीड़ितों के मान -सम्मान और सुरक्षा को प्राथमिकता देने की जरूरत है।
जैसे हम सुप्रीम कोर्ट के दृढ़ फैसले के लिए उसकी तारीफ करते हैं, हमें मिलकर एक ऐसे समाज को बनाने के लिए दृढ़ संकल्प लेना चाहिए जहां पीड़ितों की आवाज सुनी जाए, उनके दर्द को महसूस किया जाये और उनकी न्याय की लड़ाई को मान्यता दी जाए। हर मुश्किल से लड़ कर बानो की जीत की खुशियां मनाते हुए हमें नहीं भूलना चाहिए कि हर पीड़ित/ पीड़िता में शायद इतना साहस न हो कि वह आपराधिक न्याय व्यवस्था में अनगिनत बाधाओं का सामना करते हुए लगातार न्याय की लड़ाई लड़े।
लेखक : स्तुति शाह कोलंबिया लॉ स्कूल में एक डॉक्टरेट स्कॉलर हैं