‘प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट’ को खत्म करने की मांग !

\राम जन्मभूमि और अयोध्या इन दिनों खबरों में है. रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा होने के साथ ही काशी और मथुरा भी खबरों में आ गयी हैं. काशी में ज्ञानवापी की सर्वे रिपोर्ट सार्वजनिक हुई जिसमें यह माना गया है कि ज्ञानवापी में कई सारे हिंदू चिह्न पाए गए हैं. उसी के बाद वाराणसी कोर्ट ने तहखाने में पूजा की अनुमति भी दी और वह तत्काल शुरू भी हो गयी. उसके बाद जुमे की नमाज को वहां काफी तनाव का माहौल रहा, लेकिन कोई अप्रिय घटना नहीं हुई. इधर, हरियाणा की कोर्ट ने लगभग आधी शताब्दी की लड़ाई के बाद लाक्षागृह की जमीन भी हिंदू पक्ष को दे दी है. काशी और मथुरा के संदर्भ में अब प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट, 1991 का हवाला दिया जाने लगा है और ‘हिंदू पुनर्जागरण’ की भी बातें होने लगी हैं. देश के सांप्रदायिक सौहार्द को भी खतरा बताया जाने लगा है. 

हिंदू पक्ष को नहीं होगा नुकसान

‘प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट’ 1991 में आया था. वह कहता है कि 15 अगस्त 1947 को जो भी रिलिजस स्ट्रक्चर जिस स्थिति में था, उसको उसी स्थिति में रखने की वकालत करता है. यानी, अगर उस तारीख को किसी ढांचे में पूजा हो रही थी, या नमाज हो रहा था, तो उसे कायम रखने की बात थी. या फिर, पारसी या यहूदी, जो भी ढांचा जिस भी तरह की पूजा पद्धति वहां थी, उसको कायम रखने की बात थी. वो सारी चीजें वैसी ही रहेंगी, उसमें कोई छेड़छाड़ नहीं होगी. यानी, 1991 का कानून यह कहता था कि जो यथास्थिति है, 1947 की वही कायम रखी जाएगी. वैसे, ये जो कानून है, उसकी वजह से काशी और मथुरा में हिंदू पक्ष को नुकसान नहीं होगा. इसलिए कि काशी में जो विवाद है, जो ज्ञानवापी है, वहां पर तो हमेशा से बाबा विश्वनाथ की पूजा होती आयी है. 1993 ईस्वी तक होती आयी है. तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने उसको रुकवाया था और अभी चार दिनों पहले  वाराणसी के डिस्ट्रिक्ट कोर्ट ने वहां पर पूजा की अनुमति दी है. सुप्रीम कोर्ट ने भी उस पर रोक लगाने से इनकार कर दिया है. हाईकोर्ट ने भी कहा है कि वह पूरी सुनवाई करेंगे, लेकिन तब तक वह रोक नहीं लगाएंगे. तो, यथास्थिति तो बदली नहीं गयी है. 

इसी तरह मथुरा के कृष्ण जन्मस्थान की स्थिति है. 15 अगस्त 1947 छोड़िए, उसके कई साल बाद तक वहां पूजा होती रही है. तो, 1991 के कानून से इन दोनों मंदिरों की स्थिति पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है. हां, यह बात जरूर है कि 1991 का कानून गलत है और उससे बाकी के मॉन्यूमेंट्स, जो हिंदू हुआ करते थे और जिन्हें बाद में आक्रांताओं ने मुस्लिम स्ट्रक्चर में तब्दील कर दिया गया, जो कि इस्लामिक कानून के हिसाब से भी गैर-कानूनी है, लेकिन इन दोनों स्थानों-काशी और मथुरा-पर कोई फर्क पड़ेगा. 

प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट को समझिए 

यह जो कानून है, संसद में जब यह पारित हुआ तो उसमें कहा गया कि 15 अगस्त 1947 से पहले बने किसी भी धार्मिक स्थल को दूसरे में नहीं बदला जा सकता है. अगर कोई छेड़छाड़ करता है तो उसे तीन साल की कैद और जुर्माना हो सकता है. उसी तरह उन्होंने 15 अगस्त 1947 को एक डेटलाइन माना था और यह तय किया था कि उसके बाद स्ट्रक्चर के स्वरूप में कोई बदलाव नहीं हो सकता है. इसके पीछे उनका उद्देश्य था कि जो मालिकाना हक को लेकर जो लड़ाइयां हो सकती हैं, क्योंकि इस देश का बंटवारा धार्मिक आधार पर हुआ था, तो उसे रोकने के लिए या नया विवाद रोकने के लिए किया गया था. इसमें अपवाद भी थे. अपवादों में प्राचीन और ऐतिहासिक महत्व के, पुरातात्विक महत्त्व के स्थल थे, जो प्राचीन स्मारक और अवशेष अधिनियम के तहत आते हैं, उन सभी पर यह कानून लागू नहीं होगा. तो, मूलतः यह कानून इसलिए बनाया गया था कि तत्कालीन कांग्रेस सरकार को डर था कि अगर हिंदू समाज जागृत हुआ, क्योंकि उस वक्त राम जन्भूमि मंदिर जोर पकड़ रहा था, तो कभी न कभी जो कोई भी इमारत हिंदू मंदिर कभी थी, लेकिन उसको बाद में इस्लामिक बना दिया गया या वहां नमाज पढ़ी जाने लगी, उसको लेकर लोग कोर्ट न जाने लगें. इसलिए, यह कानून लाया गया और कोर्ट जाने का रास्ता ही एक तरह से रोक दिया गया. 

काशी और मथुरा के साथ बाकी बहुत कुछ

वस्तुतः विहिप और राम मंदिर आंदोलन से जुड़े बड़े नेताओं ने कहा था कि आप मथुरा, काशी और अयोध्या छोड़ दीजिए बाकी वे लोग छोड़ देंगे, तो मुस्लिम पक्ष नहीं माना. अब जब राम जन्मभूमि का मामला हिंदुओं ने कोर्ट में लड़कर जीता और मेरिट से जीता है, तो फिर वे एक ही क्यों लेगें? बाकी भी लड़ेंगे. फिर, मेरिट की जहां तक बात है तो हरियाणा में अभी जो लाक्षागृह का फैसला आय़ा है, कोर्ट का, वह देखिए. महाभारतकालीन वह इमारत है, एएसआई के अंदर भी आता है, फिर भी 55 साल से उस पर कब्जा था, उसको किसी बदरुद्दीन शाह की मजार बता रहे थे. यह तो विडंबना ही है. जाहिर तौर पर राम जन्मभूमि के बाद उस आग को बाहर निकाला है. मथुरा में तो वह आरटीआई की बात हो, जिसमें एएसआई ने कटरा देवराय की बात की हो या फिर और दस्तावेज हों, वह तो पूरी जमीन ही हिंदू राजा की थी, जिसे उसने बाद में एक बड़े नेता को दिया था. वहां मुस्लिम पक्षा का तो कुछ था नहीं. हां, उसमें एक कांट्रैक्ट उन्होंने जरूर खुद से कर लिया था, लेकिन उसका कोई कानूनी दावा नहीं है. हां, यह जरूर है कि प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट जाना चाहिए, क्योंकि जो राष्ट्र अपने इतिहास को भूलता है, उससे आंखें चुराता है, वह कभी प्रगति नहीं करता. इसका एक उदाहरण जर्मनी है. जब द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वहां पुनर्निर्माण हुआ तो बाकायदा कानून बना कि हिटलर और नाजियों ने जिन स्ट्रक्चर को चेंज किया या अपना नाम डाला, उन सबको रिस्टोर किया जाए. यह जरूरी भारत में भी हैं. 70 साल पहले हो जाना चाहिए था, नहीं हुआ तो अब तो कम से कम हो. 

भारत को रवींद्रनाथ ठाकुर ने ‘मेल्टिंग पॉट’ जरूर कहा था, लेकिन वह तो स्वतंत्रता और देश का विभाजन देखने के पहले चले गए. जहां तक सेकुलरिज्म का सवाल है, तो उसकी डिबेट में नहीं जाना है, लेकिन मस्जिद को लेकर इस्लाम में बिल्कुल स्पष्ट आदेश हैं. वह उसी जमीन पर हो सकता है, जो वक्फ के कब्जे में हो और किसी ने उसे समर्पित किया हो. वह जमीन का मालिकाना भी उस व्यक्ति के हाथ में होना चाहिए, जो उसे समर्पित करता है. मंदिरों के स्ट्रक्चर को इस्लामिक बना देने से, ढाह देने से वह मस्जिद नहीं हो जाती है. जो गैर-कानूनी ढांचे हैं, उनको रिस्टोर करने में कोई दिक्कत मुसलमानों को भी नहीं होनी चाहिए. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि  …न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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