UP में एनकाउंटर का आगाज करने वाले IPS अजय राज …

UP में एनकाउंटर का आगाज करने वाले IPS अजय राज …
30 बच्चों का अपहरण करने वाले 13 डाकुओं को चंबल में ढेर किया, दरोगा की हत्या का लिया था बदला

“मैं जब आगरा में पोस्टेड था, तो यह इलाका डाकुओं की दहशत में जीता था। चारों तरफ चंबल और बीहड़ से डाकू आगरा शहर में घुस जाते थे, लूटपाट और अपहरण कर मोटी फिरौती मांगते थे। ताज महल के लिए फेमस इस शहर में उन दिनों जंगा और फूला गैंग बहुत चर्चित हुआ करते थे।

किसी भी सेठ को उठवा लेना, बदला लेने के लिए हत्या कर देना। ये सब आम हो चला था। एक दिन मैं अपने ऑफिस में बैठा था। तभी सूचना मिली की शहर के एक स्कूल की पूरी क्लास का अपहरण कर लिया गया है। मुझे सुनकर बड़ा अजीब लगा। पता किया, तो पूरी क्लास के 35 बच्चों को डाकुओं ने उठा लिया था और एक रोडवेज बस में भरकर उन्हें चंबल की ओर ले गए थे…। इस वारदात के दौरान एक दरोगा की हत्या की गई, जिसने पूरे पुलिस महकमे को हिला दिया।

मेरे रोंगटे खड़े हो गए और यहीं से शुरू हुआ डाकुओं के खिलाफ मेरा मिशन। “ऑपरेशन चंबल घाटी” में डाकुओं का सफाया करते-करते मुझे एसटीएफ बनाने का मौका मिला। इसके साथ ही दिल्ली में रहते हुए आतंकी हमले की भी जांच की।” ये जुबानी है IPS अजय राज शर्मा की।

खाकी वर्दी की छठी कड़ी में आज कहानी IPS अजय राज शर्मा की। वो IPS जिसने डाकुओं का सफाया तो किया ही, STF में रहकर श्रीप्रकाश शुक्ला को ठिकाने लगाया और इंटरनेशनल क्रिकेट में फिक्सिंग का भी खुलासा किया। यूपी में डाकुओं के एनकाउंटर की शुरुआत इन्हीं के कार्यकाल से मानी जाती है। इस कहानी को आप 4 चैप्टर में पढ़ेंगे।

जमींदार परिवार में हुआ जन्म, देहरादून में सेंट जोसेफ स्कूल में पढ़ाई
अजय राज बताते हैं, “मेरा जन्म पूर्वांचल के मिर्जापुर जिले में हुआ, मेरे पिताजी इंदर राज शर्मा एक संभ्रांत परिवार से थे और हमारे यहां जमींदारी थी। उन दिनों हमारे घर पर पुलिसकर्मियों और अफसरों का आना-जाना भी रहता था। ये देखकर मुझे शुरू से ही पुलिस अफसर बनने की इच्छा थी। मेरे पिताजी भी चाहते थे कि मैं पढ़-लिखकर कोई बड़ा अफसर बनूं।

इसीलिए शुरुआत से ही पढ़ाई पर उनका जोर रहा। उन्होंने मुझे पढ़ने के लिए बोर्डिंग स्कूल भेज दिया। मेरी शुरुआती पढ़ाई-लिखाई देहरादून में सेंट जोसेफ एकेडमी में हुई। पांच-छह साल यहां रहने के बाद यानी 1956 में मैं इलाहाबाद आ गया। यहां क्रिश्चियन स्कूल से12वीं तक की पढ़ाई कंपलीट करने के बाद इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में दाखिला ले लिया। साल 1965 में यहां से मैंने MA किया।

इलाहाबाद चूंकि सिविल सर्विस की तैयारी का बड़ा केंद्र बनना उसी समय से शुरू हो गया था। मैंने भी वहीं पर तैयारी शुरू कर दी थी। पहले अटेम्प्ट में ही मेरा चयन सिविल सर्विस में हो गया। मुझे वर्ष 1966 का उत्तर प्रदेश कैडर मिला और यहीं से शुरू हो गई उत्तर प्रदेश पुलिस में सर्विस।

70 के दशक में उत्तर प्रदेश में डाकुओं का बहुत बोलबाला था। मध्य प्रदेश और राजस्थान की सीमाओं से लगे इस राज्य के बीहड़ का क्षेत्र दुर्दांत डाकुओं का सेंटर बन गया था। ये डाकू पुलिस-प्रशासन और सरकार को खुलेआम चुनौती देते थे। मेरी पहली पोस्टिंग आगरा में ही अपर पुलिस अधीक्षक के रूप में हुई।

“एक दिन हम ऑफिस में बैठे हुए थे। एसएसपी एसके शंगुल आम लोगों की शिकायतें सुन रहे थे। तभी सूचना मिली कि 40 से 50 हथियारबंद डाकुओं ने एक स्कूल पर हमला कर दिया है। यहां से वे पूरी क्लास का अपहरण कर ले गए हैं। इस सूचना ने सभी को चौंका दिया। खुद एसएसपी कहने लगे कि मैंने अपने जीवन में ऐसी घटना कभी नहीं सुनी कि पूरी क्लास का अपहरण हो जाए।

मैं यह सोचने लगा कि आखिर कोई डाकू पूरी क्लास का अपहरण क्यों करेगा? साथ ही टीचर को भी उठा ले गए हैं। इस दौरान एसएसपी ने मुझे चंबल के सबसे चर्चित जंगा और फूला गैंग के बारे में बताया। फूला रहने वाला तो राजस्थान का था, लेकिन ज्यादातर वारदात उत्तर प्रदेश में अंजाम देता था। जंगा के बाद फूला ही गैंग का लीडर बन गया था और उसी ने इस अपहरण कांड को अंजाम दिया था।

फूला गैंग के पास इन दिनों आधुनिक हथियार भी आ गए थे। उनके पास सेमी ऑटोमैटिक राइफल और स्टेनगन हुआ करती थीं। इन हथियारों के मिलने के बाद से ही ये और खतरनाक हो गए थे। पुलिस को सूचना देने वालों को ये लोग सरेआम गोलियों से छलनी कर दिया करते थे। ऐसी वारदात से लोगों में दहशत रहती थी। बच्चों का अपहरण भी एक दरोगा की हत्या के बाद किया था। दरोगा की हत्या की सूचना ने हमारा खून खौला दिया। हम सीधे घटनास्थल पर पहुंच गए।”

एसआई की हत्याकर बच्चों को उठाकर ले गए, डाकू की गर्लफ्रेंड ने छलनी कर दिया
घटनास्थल पर मौजूद लोगों ने बताया कि जंगा और फूला गैंग ने एक स्कूल की पूरी क्लास के बच्चों का अपहरण कर लिया है। इसके बाद अपहरण करके उन्होंने रोडवेज की एक बस रुकवाई, जिसमें सवारियों को उतरने के लिए धमकाया जाने लगा।

कुछ सवारियों ने तो उतरना शुरू कर दिया, लेकिन बस में मौजूद एक व्यक्ति डाकुओं से भिड़ने लगा। उसने बस से उतरने से मना कर दिया और अन्य सवारियों को भी नहीं उतरने के लिए कहा। इस पर डाकुओं ने उसके सीने पर बंदूक लगाकर धमकाना शुरू कर दिया। उस व्यक्ति ने कहा- मेरा नाम महाबीर सिंह है और मैं इस थाने का दरोगा हूं। उन्होंने डाकुओं को चुनौती दे दी कि तुम इन बच्चों को लेकर यहां से नहीं जा सकते। इस पर एक डाकू ने उन्हें धक्का देने की कोशिश की।

महाबीर ने उस डाकू की राइफल छीनने की कोशिश की, तो वहां मौजूद एक महिला डाकू ने महावीर पर गोली चला दी। इसके बाद नीचे उतार कर महाबीर को कई गोलियां मारीं। इससे चारों तरफ दहशत फैल गई और सभी सवारियां उतर कर नीचे खड़ी हो गईं। डाकू बस में भरकर उन बच्चों को ले गए। जिस महिला डाकू ने महाबीर पर गोली चलाई थी, वह फूला की प्रेमिका गुल्लो थी।

जांच में यह भी पता चला कि उन डाकुओं ने इतने बच्चों को इसलिए उठाया था, क्योंकि वो जिसका अपहरण करने आए थे उसे पहचान नहीं पाए थे। बाद में एक-एक करके उन्होंने सारे बच्चों को छोड़ दिया और जिस बच्चे के अपहरण की फिरौती लेनी थी, उसे रोक लिया था। कुछ दिन बाद फिरौती की रकम मिलने के बाद उस बच्चे को भी छोड़ दिया था।”

अजय राज अपनी पुस्तक ‘बाइटिंग द बुलेट’ में लिखते हैं, “उस दिन 40 हथियारबंद डाकुओं से अकेले भिड़ने वाले दरोगा महाबीर सिंह की हिम्मत का मैं कायल हो गया। कैसे वर्दी का जुनून उन डाकुओं से निहत्थे भिड़ गया। महाबीर सिंह जब उन डाकुओं से भिड़ रहा था, तब उसके हाथ में एक डाकू कुंवर जी गड़रिया का पट्‌टा आ गया। उस पट्‌टे को हाथ में उठाकर मैंने उस वीर पर चलाई गई एक-एक गोली का बदला लेने की कसम खाई।

अब मेरा एक ही उद्देश्य था कि डाकुओं के गैंग का सफाया। उसकी शहादत ने मुझे जज्बाती और जिद्दी बना दिया। कुंवर जी गड़रिया फूला गैंग का मुख्य सदस्य था। मेरे जेहन में हमेशा महाबीर का चेहरा घूमा करता था। हमने इस गैंग को खत्म करने की रणनीति बनानी शुरू की, लेकिन इसी बीच मेरा तबादला हो गया। मैं बड़ा मायूस हुआ। मुझे लगा कि अब मेरी कसम पूरी नहीं हो पाएगी।

लेकिन चार साल बाद यानी 1970 में मुझे फिर मौका मिला। मैं प्रमोट करके पुलिस अधीक्षक पद पर फिर आगरा भेजा गया। इस बार जिम्मेदारी थोड़ी अलग थी। मुझे “ऑपरेशन चंबल घाटी” को ड्राइव करने का अवसर मिला। ये फैसला सुनते ही मेरी बाजुएं खिल गईं और जेहन में बस एक ही बात आई कि अब दरोगा महाबीर की हत्या का बदला ले लूंगा।”

अजय राज बताते हैं, “वर्ष 1970 में मई-जून का महीना रहा होगा। ऑपरेशन को पूरा करने के लिए मुझे पोस्ट, हथियार, गोला-बारूद और अपनी मर्जी से टीम बनाने का अधिकार तो मिल गया था। बस एक ऑफिस का इंतजाम नहीं हो पा रहा था। हम इतनी जल्दी में थे कि बहुत दिन तक ऑफिस का इंतजार नहीं कर सकते थे। इसलिए हमने आगरा सर्किट हाउस में ही वर्किंग शुरू कर दी। हमारे साथ पीएसी की एक पूरी कंपनी थी।

हमारा एक मात्र उद्देश्य चंबल से डाकुओं को मिटाना था। इन सब के बीच मेरा पर्सनल लक्ष्य फूला को मारना था। क्योंकि उसके कहने पर ही उसकी प्रेमिका गुल्लो ने दरोगा महाबीर की हत्या की थी। सारा सेटअप जमाने के बाद हमने अपनी वर्किंग शुरू कर दी। सबसे पहले फूला गैंग का सर्च ऑपरेशन शुरू किया। फूला का लोगों में बहुत भय था, तो कोई भी उसके बारे में जानकारी देने को तैयार नहीं था।

अपनी ट्रेनिंग के दौरान मैंने एक चीज तो बहुत मजबूती से सीख ली थी कि किसी भी गैंग को कैसे दो फाड़ करना है। उन्हीं के बीच के आदमी को तोड़कर पुलिस का गवाह बनाता था और दूसरे गैंग का खात्मा कर देता था। ऐसा ही मैंने फूला और जंगा के गैंग में भी किया। जैसे ही हमें पता चला कि फूला और जंगा राजस्थान के धौलपुर के पास स्थिति चंबल के क्षेत्र में हैं। वो लोग वहां बॉर्डर पर बसे गांव “तोर” में आने वाले थे।

मामला दूसरे राज्य का था। इसके बाद भी मैंने हिम्मत नहीं हारी और अपने दल-बल के साथ निकल पड़ा। मामला खून-खराबे का था, तो सीधे एडिशनल एसपी धौलपुर को सूचना दी। इसके बाद फ्री माइंड होकर दोपहर के तीन बजे “तोर” गांव को घेर लिया। लाउडस्पीकर से फूला गैंग को चुनौती दी…”फूला तुमको चारों तरफ से घेर लिया गया है..भागने की कोशिश मत करो। पुलिस के सामने सरेंडर कर दो।” जैसे ही हमने यह अनाउंस किया तो फूला गैंग ने फायरिंग शुरू कर दी। दोनों तरफ से कई घंटे फायरिंग और गोलाबारी होती रही।

हालात ये हो रहे थे कि कौन-सी गोली किसको लगेगी पता ही नहीं चल रहा था। हमारी आंखों के सामने दरोगा महाबीर का चेहरा था। इसी गुस्से में हमने लगातार फायरिंग की, जिसमें गैंग का डाकू लज्जाराम और कुंवर जी गड़रिया मारा गया। इस बीच अंधेरा बढ़ता जा रहा था, हमने रात भर की तैयारी कर ली थी। हथियारों की रोशनी की चमक और हथगोलों के उजाले में हम फायरिंग कर रहे थे, उधर से भी फायरिंग जारी थी।

इसी बीच राजस्थान के एसपी नारायण सिंह भी घटनास्थल पर पहुंच गए। उन्होंने भी हमारा सपोर्ट किया। करीब 22 घंटे तक फायरिंग हुई। सुबह पता चला कि 13 डाकू मारे जा चुके हैं। हालांकि फूला और उसकी प्रेमिका गुल्लो फरार हो गए थे। फूला को बाद में धौलपुर पुलिस ने मार गिराया। इस प्रकार मैंने अपनी कसम पूरी की और दरोगा महाबीर की हत्या का बदला ले लिया। यह पहला मौका था, जब डाकुओं का उत्तर प्रदेश पुलिस ने इतनी बड़ी संख्या में एनकाउंटर किया था।

ये सब गोरखपुर से शुरू हुआ था। एक नौजवान लड़का अपराध की दुनिया में बुलंदियों पर जा रहा था। व्यापारी, ठेकेदार, विधायक और मंत्री किसी की भी हत्या करना उसके लिए आम बात हो गई थी। वह खुलेआम मर्डर करता और पूरी की पूरी AK-47 की मैगजीन खाली कर देता। लखनऊ में एक व्यापारी की सौ गोलियां मारकर हत्या की, तो गोरखपुर के विधायक वीरेंद्र शाही को डेढ़ सौ से ज्यादा गोलियां मारकर राजधानी लखनऊ में दिनदहाड़े मौत के घाट उतार दिया।

1997 में शेर-ए-पूर्वांचल के नाम से मशहूर वीरेंद्र शाही की हत्या ने पूरे प्रदेश को हिला दिया। शुक्ला यहीं नहीं रुका। उसने बिहार के मंत्री बृज बिहारी और एक विधायक अजित सरकार का मर्डर किया। लखनऊ में विधानसभा के पास दीप होटल में अपनी AK-47 से तीन लोगों की हत्या की। यह पहला मामला था, जब उत्तर प्रदेश में किसी माफिया ने AK-47 का इस्तेमाल किया था।

शुक्ला इतना खूंखार हो चुका था कि किसी पुलिस वाले में भी इतनी हिम्मत नहीं पड़ रही थी कि उसको पकड़ने की कोशिश करे। उसकी अपराध की दुनिया बढ़ती ही जा रही थी। नेता और मंत्री उससे कांपने लगे थे। इसी बीच अफवाह उड़ी कि श्रीप्रकाश शुक्ला ने तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की सुपारी ले ली है। यहीं से सिस्टम हिल गया और कल्याण सिंह ने तत्कालीन डीजीपी को तलब कर लिया। सबसे बड़ा सवाल यह था कि “बिल्ली के गले में घंटी बांधे कौन”?

सीएम ने हम सबको बुलाया, तो मैंने अपने अनुभव से सीएम को एक स्पेशल टास्क फोर्स बनाने का सुझाव दिया। क्योंकि चंबल ऑपरेशन के दौरान हमने इसी तरह की टीम बनाकर कई गैंग का खात्मा किया था। सीएम ने उसको स्वीकार किया और इसकी जिम्मेदारी मुझे सौंप दी।

हमने एक मजबूत टीम बनाकर उसकी सर्चिंग शुरू कर दी। श्रीप्रकाश को जब यह पता चला कि उसे मारने के लिए एसटीएफ का गठन किया गया है, तो उसने हमारे कई साथियों को धमकाया भी। तीन महीने तक गोरखपुर, लखनऊ, दिल्ली में हम उसकी सर्चिंग करते रहे।

आखिरकार सितंबर, 1998 में हमारी तलाश पूरी हुई। दिल्ली में उसकी लोकेशन मिली और हमने उसका पीछा शुरू कर दिया। गाजियाबाद में नीले रंग की सीएलो कार में उसका सामना STF से हो गया। हमने उसे मार गिराया। उत्तर प्रदेश के तमाम नेताओं और व्यापारियों ने श्रीप्रकाश की मौत के बाद राहत की सांस ली।

अजय राज शर्मा उत्तर प्रदेश के कई जिलों में एसपी और एसएसपी के पद पर रहे। वह बरेली में पोस्टिंग के दौरान का एक किस्सा बताते हैं, “आगरा में ट्रेनिंग कंपलीट करने के बाद मेरी तैनाती बरेली में कर दी गई। यहां थानों का मुझे बड़ा अजीब-सा रवैया दिखाई दिया। यहां सबसे बड़ी कमी थी, वह थी पुलिस पर विश्वास की। मैंने यह बातें सिर्फ सुनी ही नहीं, बल्कि अपनी आंखों से देख भी लीं।

दिसंबर 1968, सर्दियों का महीना था। मैं सदर कोतवाली में बैठा हुआ था। अचानक एक व्यक्ति बदहवास सा थाने पहुंचा। वह जोर-जोर से रोने लगा, कॉन्स्टेबल से बोला मेरे साथ लूट हो गई है। केस दर्ज कर लीजिए। FIR लिखने वाला कॉन्स्टेबल उस पर चिल्ला पड़ा। उसे डांटते हुए कहा- ठीक से बताओ क्या हुआ है? उस पीड़ित व्यक्ति ने बताया-मेरा नाम चंदन सिंह है। मैं अल्मोड़ा का रहने वाला हूं, अगले महीने मेरी बेटी की शादी है।

मैं 10 हजार रुपए लेकर उसकी शादी का सामान खरीदने बरेली आया था। मुझे भूख लगी थी, तो मैं खाना खाने के लिए एक ढाबे पर बैठ गया। यहां पहले मौजूद कुछ लोगों ने मुझे पीटा और मेरे सारे पैसे छीन लिए। अब मेरे पास बेटी की शादी का सामान खरीदने के लिए एक पैसा नहीं बचा है। वो कॉन्स्टेबल चंदन सिंह पर बहुत जोर से चिल्लाया और बोला-पहले तो तुम लोग शराब पीने में पैसे उड़ा देते हो, फिर फर्जी लूट का केस दर्ज कराने आ जाते हो।

गरीब व्यक्ति रोने लगा। उसकी हालत देखकर ऐसा लग रहा था, जैसे की वो पीड़ित नहीं कोई गुनाह करने वाला हो। मुझे यह बड़ा खराब लगा, मैं दो कॉन्स्टेबल के साथ अपनी गाड़ी से उस ढाबे पर पहुंचा और जैसे ही दो लोगों को पकड़कर हड़काया, तो उन्होंने अपना गुनाह कबूल कर लिया। मैंने चंदन सिंह के पैसे और घड़ी वापस कराई। उन दोनों लुटेरों को गिरफ्तार कर कोतवाली ले आया। अब वह कॉन्स्टेबल यह सीन देखकर बगलें झांकने लगा। यह एक ऐसा मामला था, जिसके बाद लोगों में पुलिस का भरोसा बढ़ना शुरू हुआ।”

अजय राज जब दिल्ली के पुलिस कमिश्नर बनाए गए, उसी समय संसद भवन पर अटैक हुआ था। अजय राज बताते हैं, “13 दिसंबर 2001 का दिन था, मैं अपने ऑफिस में बैठा हुआ था। अचानक टीवी पर न्यूज फ्लैश हुई कि संसद भवन पर किसी ने हमला कर दिया है। चारों तरफ गोलियां चल रही हैं। यह दोपहर 12.15 का समय था। हमारी समझ में नहीं आ रहा था कि यह क्या हो रहा है और कौन कर रहा है?

एक मिनट के लिए मैं शॉक्ड हो गया और सोचने लगा कि यह मेरे ही कार्यकाल में होना था। लेकिन तुरंत अपने आपको संभाला और सीधे संसद भवन की ओर चल दिया। यहां जाकर पता चला कि एक गाड़ी में जिस पर एमएचए का स्टीकर लगा था, उसमें बैठे आतंकियों का मकसद संसद भवन के अंदर घुसकर सभी सांसदों को गोली मारना था। लेकिन, वे रेकी ठीक से नहीं कर पाए थे और उन्होंने एक सिक्योरिटी जोन में जाकर गाड़ी को लड़ा दिया।

इस हमले में सभी आतंकी मारे गए और दिल्ली पुलिस के 9 जवान शहीद हुए। देश में हुई इतनी बड़ी घटना के बाद सबसे बड़ा सवाल यही था कि आखिर ये लोग कौन थे और संसद भवन पर ही हमला क्यों करना चाहते थे? हमने दो दिन के भीतर इसका खुलासा किया। आतंकियों के पॉकेट से जो मोबाइल फोन बरामद हुए, वो हमारे लिए सबसे बड़े हथियार बने।

जैसे ही उनके मोबाइल को एक्टिव किया गया, तो पता चल गया कि वो सिम इंडिया में ही खरीदे गए थे। लेकिन इस फोन से कॉल पाकिस्तान में की जा रही थी। इसी से पता चल गया कि ये पाकिस्तान ऑपरेटेड आतंकी हमला था।

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